मार्गशीर्ष का महीना विवाह पंचमी, गीता जयंती आदि विशेष पर्वों के कारण महत्व तो रखता ही है साथ ही इस महीने की पूर्णता दत्तात्रेय जयंती के रूप में पूर्णमासी को होने के कारण विशेष महत्व रखता है। सनातन वैदिक उपासना एवं सन्यास धर्म में दत्तात्रेय भगवान का विशेष महत्व है। इस पर्व के दिन सद्गृहस्थों के यहां व्रत पूजन तो होता ही है लेकिन दशनाम सन्यासियों के अखाड़ों में विशेष अध्यात्मिक प्रवचन भी चलते हैं जिससे आराधाना और साधना से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।
महायोगीश्वर दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। अतः इस दिन बड़े समारोहपूर्वक दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रिके व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया-विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं।
दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्रह्माणी, रुद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची।
भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।
देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणामकर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक् रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जए इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।
तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।
देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए।
कालांतर में ये ही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं।
परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं। इसीलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।
विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
भगवान दत्तात्रेय विष्णु के अवतार - आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी Lord Dattatreya Incarnation of Vishnu - Acharya Govind Ballabh Joshi
मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
शंकराचार्य को जानें
शंकराचार्य जयंती पर विशेष
WD
'शंकरो शंकर: साक्षात्'।
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
WD
'शंकरो शंकर: साक्षात्'।
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
दसनामी संप्रदाय-हिंदू संत धारा को जानें Know the Dasnami sect-Hindu saint stream
हिंदू संत धारा को जानें
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।
हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार को विस्तार दिया है।
स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है यह तो जनता ही तय करती है।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव और C.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।
*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं......
प्रारम्भिक दस नाथ:
आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।
चौरासी और नौ नाथ परम्परा : आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है।
नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ।
ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।
B) वैष्णव संप्रदाय :
वैष्णव भगवान विष्णु और उनके अवतारों को मानने वालों का संप्रदाय है। इसे भागवत संप्रदाय भी कहते हैं। मुख्यत: ईश्वर के अलावा ये लोग, विष्णु, राम और कृष्ण के भक्त होते हैं। इसलिए इसके मुख्यत: तीन विभाजन है कृष्णनामी, रामनामी और नारायण। इनका मूल जाप मंत्र है: 'श्रीमन नारायण, नायायण हरि हरि। भजमन नारायण नारायण हरि हरि' और इसके अलावा ये 'हरे रामा हरे कृष्णा' का भी जाप करते हैं।
वैष्णव संप्रदाय के संतों के नाम के आगे महर्षि या स्वामी और नाम के अंत में आचार्य का प्रयोग होता है, जैसे महर्षि वल्लभाचार्य और स्वामी रामानंदाचार्य। वैष्णव सम्प्रदाय के अनेकों उप संप्रदाय भी हो चले हैं उनमें प्रमुख हैं- 1.वल्लभ 2.रामानंद 3.माधव 4.बैरागी, 5.दास 6.निम्बार्क, 7.गौड़ीय, 8.श्री संप्रदाय आदि। इसमें बैरागी और रामानंद का संप्रदाय ही अधिक प्रसिद्ध है।
विष्णु के भक्त श्वेत वस्त्र पहनते, सिर मुँड़ाकर रखते, जबकि दसनामी जटाएँ धारण करते हैं। दसनामियों की तरह वैष्णवों के भी कई मठ है। सीता और राम के भक्त तुलसी के 108 मनकों की अपनी माला, तीन कोनों वाली लाठी और ललाट पर दो सफेद और एक ऊर्ध्वाकार धारियों से पहचाने जाते हैं। राधाकृष्ण के भक्त ललाट पर नाल के आकार की सफेद या काली धारी बनाते थे और गले में एक ही तुलसी की माला पहनते थे।
शैव और वैष्णवों के प्रमुख अखाड़े : जूना अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा एवं अटल अखाड़ा। वैष्णवों में बैरागी, उदासीन, रामादंन और निर्मल अखाड़ा।
दर्जा : हर मठ, अणि, नाथ के अनुयायियों के बीच प्रत्येक साधु को उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों के मुताबिक दर्जा प्राप्त है। नौसिखुआ से लेकर अवधूत और परमहंस तक। पूरे देश में मुश्किल से 10 या 12 परमहंस होंगे। पिछले सौ वर्षों में सबसे महान परमहंस थे दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण। परमहंस से ऊपर भगवान होते हैं। भगवान से ऊपर ईश्वर की सत्ता मानी गई है।
C). स्मृति आधारित संप्रदाय : जो सिर्फ एक निराकार परमेश्वर को ही मानकर उन्हीं की आराधना या स्मरण करता है तथा सभी तरह के वैदिक नियमों को मानता है उसे स्मृति आधारित संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। इस संप्रदाय के भी अनेकों उप संप्रदाय है। यहाँ स्मृति आधारित संप्रदाय लिखने का उद्येश्य है कि उक्त दो संप्रदायों से अलग जो संप्रदाय है वे इसी के अंतर्गत मान लिए जाते हैं।
नोट : उक्त आलेख में सुधार या कुछ अतिरिक्त जोड़ने के लिए हमें अवगत कराएँ
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।
हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार को विस्तार दिया है।
स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है यह तो जनता ही तय करती है।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव और C.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।
*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं......
प्रारम्भिक दस नाथ:
आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।
चौरासी और नौ नाथ परम्परा : आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है।
नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ।
ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।
B) वैष्णव संप्रदाय :
वैष्णव भगवान विष्णु और उनके अवतारों को मानने वालों का संप्रदाय है। इसे भागवत संप्रदाय भी कहते हैं। मुख्यत: ईश्वर के अलावा ये लोग, विष्णु, राम और कृष्ण के भक्त होते हैं। इसलिए इसके मुख्यत: तीन विभाजन है कृष्णनामी, रामनामी और नारायण। इनका मूल जाप मंत्र है: 'श्रीमन नारायण, नायायण हरि हरि। भजमन नारायण नारायण हरि हरि' और इसके अलावा ये 'हरे रामा हरे कृष्णा' का भी जाप करते हैं।
वैष्णव संप्रदाय के संतों के नाम के आगे महर्षि या स्वामी और नाम के अंत में आचार्य का प्रयोग होता है, जैसे महर्षि वल्लभाचार्य और स्वामी रामानंदाचार्य। वैष्णव सम्प्रदाय के अनेकों उप संप्रदाय भी हो चले हैं उनमें प्रमुख हैं- 1.वल्लभ 2.रामानंद 3.माधव 4.बैरागी, 5.दास 6.निम्बार्क, 7.गौड़ीय, 8.श्री संप्रदाय आदि। इसमें बैरागी और रामानंद का संप्रदाय ही अधिक प्रसिद्ध है।
विष्णु के भक्त श्वेत वस्त्र पहनते, सिर मुँड़ाकर रखते, जबकि दसनामी जटाएँ धारण करते हैं। दसनामियों की तरह वैष्णवों के भी कई मठ है। सीता और राम के भक्त तुलसी के 108 मनकों की अपनी माला, तीन कोनों वाली लाठी और ललाट पर दो सफेद और एक ऊर्ध्वाकार धारियों से पहचाने जाते हैं। राधाकृष्ण के भक्त ललाट पर नाल के आकार की सफेद या काली धारी बनाते थे और गले में एक ही तुलसी की माला पहनते थे।
शैव और वैष्णवों के प्रमुख अखाड़े : जूना अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा एवं अटल अखाड़ा। वैष्णवों में बैरागी, उदासीन, रामादंन और निर्मल अखाड़ा।
दर्जा : हर मठ, अणि, नाथ के अनुयायियों के बीच प्रत्येक साधु को उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों के मुताबिक दर्जा प्राप्त है। नौसिखुआ से लेकर अवधूत और परमहंस तक। पूरे देश में मुश्किल से 10 या 12 परमहंस होंगे। पिछले सौ वर्षों में सबसे महान परमहंस थे दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण। परमहंस से ऊपर भगवान होते हैं। भगवान से ऊपर ईश्वर की सत्ता मानी गई है।
C). स्मृति आधारित संप्रदाय : जो सिर्फ एक निराकार परमेश्वर को ही मानकर उन्हीं की आराधना या स्मरण करता है तथा सभी तरह के वैदिक नियमों को मानता है उसे स्मृति आधारित संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। इस संप्रदाय के भी अनेकों उप संप्रदाय है। यहाँ स्मृति आधारित संप्रदाय लिखने का उद्येश्य है कि उक्त दो संप्रदायों से अलग जो संप्रदाय है वे इसी के अंतर्गत मान लिए जाते हैं।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
शत्रु शमन के लिए : To subdue the enemy:
साबुत उड़द की काली दाल के 38 और चावल के 40 दाने मिलाकर किसी गड्ढे में दबा दें और ऊपर से नीबू निचोड़ दें। नीबू निचोड़ते समय शत्रु का नाम लेते रहें, उसका शमन होगा और वह आपके विरुद्ध कोई कदमनहींउठाएगा।
अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए :
यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अप बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यहप्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती
अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए :
यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अप बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यहप्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
kary Sidhi K liye - to accomplish the task -कार्य की सिद्धि के लिए
किसी कार्य की सिद्धि के लिए जाते समय घर से निकलने से पूर्व ही अपने हाथ में रोटी ले लें। मार्ग में जहां भी कौए दिखलाई दें, वहां उस रोटी के टुकड़े कर के डाल दें और आगे बढ़ जाएं। इससे सफलता प्राप्त होती है।
॰ किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहली के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी घुघंची को रख कर अपना कार्य बोलते हुए, उस पर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो अवश्य ही कार्य में सफलता मिलती है।
॰ अगर किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू लें। उसपर 4 लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें : `ॐ श्री हनुमते नम:´। 21 बार जाप करने के बाद उसको साथ ले कर जाएं। काम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।
॰ चुटकी भर हींग अपने ऊपर से वार कर उत्तर दिशा में फेंक दें। प्रात:काल तीन हरी इलायची को दाएँ हाथ में रखकर “श्रीं श्रीं´´ बोलें, उसे खा लें, फिर बाहर जाए¡।
प्रातः सोकर उठने के बाद नियमित रूप से अपनी हथेलियों को ध्यानपूर्वक देखें और तीन बार चूमें। ऐसा करने से हर कार्य में सफलता मिलती है। यह क्रिया शनिवार से शुरू करें।
॰ किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहली के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी घुघंची को रख कर अपना कार्य बोलते हुए, उस पर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो अवश्य ही कार्य में सफलता मिलती है।
॰ अगर किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू लें। उसपर 4 लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें : `ॐ श्री हनुमते नम:´। 21 बार जाप करने के बाद उसको साथ ले कर जाएं। काम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।
॰ चुटकी भर हींग अपने ऊपर से वार कर उत्तर दिशा में फेंक दें। प्रात:काल तीन हरी इलायची को दाएँ हाथ में रखकर “श्रीं श्रीं´´ बोलें, उसे खा लें, फिर बाहर जाए¡।
प्रातः सोकर उठने के बाद नियमित रूप से अपनी हथेलियों को ध्यानपूर्वक देखें और तीन बार चूमें। ऐसा करने से हर कार्य में सफलता मिलती है। यह क्रिया शनिवार से शुरू करें।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
भगवान ब्रह्मा का कुल Clan of Lord Brahma
ब्रह्मा हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। वे हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। सृष्टि का रचयिता से आशय सिर्फ जीवों की सृष्टि से है। पुराणों ने इनकी कहानी को मिथकरूप में लिखा।
प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि इन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती पर कु्दृष्टि डाली थी। दूसरा कारण यह कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था। इनका अकेला लेकिन प्रमुख मंदिर राजस्थान में पुष्कर नामक स्थान पर है। कई लोग गलती से इन्हें 'ब्रह्म' भी मान लेते हैं। जबकि 'ब्रह्म' शब्द 'ईश्वर' के लिए प्रयुक्त होता है।
पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि।
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।
इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।
प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
ब्रह्मा के उक्त कुल पर शोध किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि पुराणों में इनके कुल के संबंध में विरोधाभाषिक बातें हैं। कोई दस मानस पुत्र बताता है, कोई सत्रह तो कोई सिर्फ नौ। साथ ही पुराणकारों ने इनके कुल को मिथकीय विस्तार भी दिया जिससे इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं हो पाती है।
वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'
वैवस्वत मनु के इतिहास की रूपरेखा
प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि इन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती पर कु्दृष्टि डाली थी। दूसरा कारण यह कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था। इनका अकेला लेकिन प्रमुख मंदिर राजस्थान में पुष्कर नामक स्थान पर है। कई लोग गलती से इन्हें 'ब्रह्म' भी मान लेते हैं। जबकि 'ब्रह्म' शब्द 'ईश्वर' के लिए प्रयुक्त होता है।
पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि।
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।
इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।
प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
ब्रह्मा के उक्त कुल पर शोध किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि पुराणों में इनके कुल के संबंध में विरोधाभाषिक बातें हैं। कोई दस मानस पुत्र बताता है, कोई सत्रह तो कोई सिर्फ नौ। साथ ही पुराणकारों ने इनके कुल को मिथकीय विस्तार भी दिया जिससे इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं हो पाती है।
वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'
वैवस्वत मनु के इतिहास की रूपरेखा
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
मौत के बाद क्या होता है? What happens after death?
'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- भगवान कृष्ण
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सुषुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।
पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सुषुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।
सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सुषुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।
पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सुषुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।
सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
ॐ के उच्चारण का रहस्य ॐ है एक मात्र मंत्र, यही है आत्मा का संगीत The secret of pronunciation of Om is the only mantra, this is the music of the soul.
ॐ को ओम लिखने की मजबूरी है अन्यथा तो यह ॐ ही है। अब आप ही सोचे इसे कैसे उच्चारित करें? ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है।
आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।
साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।
*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।
*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।
सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।
*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :
प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।
साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।
*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।
*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।
सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।
*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :
प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
नहाने के बाद बोलें यह सरस्वती मंत्र..दिमाग चलेगा कम्प्यूटर से भी तेज Chant this Saraswati Mantra after bathing. Your brain will work faster than a computer.
शक्ति, धन के साथ विद्या व बुद्धि का बेहतर तालमेल सफलतम जीवन का सूत्र है। जगतजननी दुर्गा के तीन स्वरूपों महाकाली, महालक्ष्मी के संग महासरस्वती की आराधना शक्ति, पवित्रता, वैभव के साथ ज्ञान को जीवन में उतारने का ही संदेश देती है।
जगतजननी दुर्गा का ज्ञान स्वरूप महासरस्वती के रूप में पूजनीय है। महासरस्वती विद्या, ज्ञान, कला व वाणी की अधिष्ठात्री मानी गई है। यही कारण है कि आज के भाग-दौड़ भरे दौर में भी सफल, यशस्वी व प्रतिष्ठित जीवन की कामना पूरी करने के लिए मां सरस्वती का स्मरण बहुत जरूरी हो जाता है।
ज्ञान की कमी से मन व बुद्धि की कमजोरी आलस्य, कर्महीनता व दरिद्रता की ओर धकेलती है। वहीं वाणी व बुद्धि बल तन व धन की कमी को भी पाट देता है। देवी सरस्वती का ध्यान मन, बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है। जिसके लिए नवमी, पंचमी, शुक्रवार के अलावा हर रोज स्नान के बाद देवी का शास्त्रों में बताए एक विशेष मंत्र से ध्यान ऐसी ही कामनासिद्धि करने वाला माना गया है।
जानते हैं यह देवी सरस्वती मंत्र व आसान विधि -
- देवी सरस्वती के स्मरण के बेहद आसान तरीकों में सुबह स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र पहने, देवी प्रतिमा पर सफेद फूल अर्पित करे, दीप व अगरबत्ती लगाकर नीचे लिखे का मंत्र का श्रद्धा से बुद्धि, यश व सफलता की कामना से स्मरण करें -
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।
अगर आपकी धर्म और उपासना से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस आर्टिकल पर टिप्पणी के साथ नीचे कमेंट बाक्स के जरिए हमें भेजें।
जगतजननी दुर्गा का ज्ञान स्वरूप महासरस्वती के रूप में पूजनीय है। महासरस्वती विद्या, ज्ञान, कला व वाणी की अधिष्ठात्री मानी गई है। यही कारण है कि आज के भाग-दौड़ भरे दौर में भी सफल, यशस्वी व प्रतिष्ठित जीवन की कामना पूरी करने के लिए मां सरस्वती का स्मरण बहुत जरूरी हो जाता है।
ज्ञान की कमी से मन व बुद्धि की कमजोरी आलस्य, कर्महीनता व दरिद्रता की ओर धकेलती है। वहीं वाणी व बुद्धि बल तन व धन की कमी को भी पाट देता है। देवी सरस्वती का ध्यान मन, बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है। जिसके लिए नवमी, पंचमी, शुक्रवार के अलावा हर रोज स्नान के बाद देवी का शास्त्रों में बताए एक विशेष मंत्र से ध्यान ऐसी ही कामनासिद्धि करने वाला माना गया है।
जानते हैं यह देवी सरस्वती मंत्र व आसान विधि -
- देवी सरस्वती के स्मरण के बेहद आसान तरीकों में सुबह स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र पहने, देवी प्रतिमा पर सफेद फूल अर्पित करे, दीप व अगरबत्ती लगाकर नीचे लिखे का मंत्र का श्रद्धा से बुद्धि, यश व सफलता की कामना से स्मरण करें -
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।
अगर आपकी धर्म और उपासना से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस आर्टिकल पर टिप्पणी के साथ नीचे कमेंट बाक्स के जरिए हमें भेजें।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
इन शालग्राम शिलाओं को सिर्फ छूने से ही होता ये चमत्कार..! This miracle happens just by touching these Shalagram stones..!
आज देवउठनी एकादशी है। पौराणिक मान्यता के मुताबिक यह जगतपालक भगवान विष्णु के शयन से जागने की शुभ घड़ी है। इसी तरह यह तिथि विष्णु स्वरूप शालग्राम व तुलसी विवाह का मंगलकारी अवसर भी है।
पुराण प्रसंग के मुताबिक शंखचूड़ जैसी दानवी शक्तियों से मुक्ति और जगत कल्याण के लिए ही भगवान विष्णु को शालग्राम शिला का स्वरूप प्राप्त हुआ। यही नहीं दानव राज की पत्नी तुलसी ने श्री विष्णु कृपा के साथ देव वृक्ष तुलसी व गण्डकी नदी का रूप प्राप्त किया। इसलिए गण्डकी नदी और उसके आस-पास पाए जानी वाली शालग्राम शिलाएं बहुत ही पुण्यदायी मानी गई है। साथ ही विष्णु और तुलसी का किसी भी स्थान पर होना सुख-समृद्धि देने वाला माना जाता है।
नारायण स्वरूप यही शालग्राम शिलाएं इस पर बनने वाले चक्र के आधार पर विष्णु के अलग-अलग रूप व अवतारों के नाम वाली होती हैं, जो इतनी चमत्कारी भी मानी गई है कि इनकी पूजा ही नहीं बल्कि छूने मात्र से बड़े से बड़े पापों का अंत हो जाता है। जानते हैं कि ऐसी ही विलक्षण शालग्राम शिलाओं का स्वरूप कैसा होता है?
मत्स्य - कमल के आकार वाली शिला।
कूर्म - नीले रंग, तीन रेखा और बिन्दुओं से अंकित शिला।
ह्ययग्रीव शिला - जिस शिला पर पांच रेखाएं व अंकुश का आकार हो।
नृसिंह - जिस शिला के बीच गदा जैसी रेखा, नाभिचक्र और फैले हुए वक्षस्थल का आकार दिखाई दे।
वामन - छोटी और गोलाकार शिला।
वाराह - विषम आकार व बीच में दो चक्रों के चिन्ह वाली शिला।
कृष्ण - गोलाकार और पीछे की ओर का हिस्सा झुका हुआ हो।
दामोदर - नीले रंग व बीच में भी नीले रंग के च्रकवाली शिला।
अनन्तक - अनेक रंग, रूप व जिस पर नाग जैसे फण अंकित हो।
लक्ष्मीनारायण - दो चक्रों वाली शिला।
इसी प्रकार शंख, गदा, पद्म चिन्हों और चक्र अंकित शालग्राम शिलाएं विष्णु के अनेक नामों से जानी जाती है। जिनकी पूजा हर तरह से मंगल व कल्याण करने वाली मानी जाती है।
पुराण प्रसंग के मुताबिक शंखचूड़ जैसी दानवी शक्तियों से मुक्ति और जगत कल्याण के लिए ही भगवान विष्णु को शालग्राम शिला का स्वरूप प्राप्त हुआ। यही नहीं दानव राज की पत्नी तुलसी ने श्री विष्णु कृपा के साथ देव वृक्ष तुलसी व गण्डकी नदी का रूप प्राप्त किया। इसलिए गण्डकी नदी और उसके आस-पास पाए जानी वाली शालग्राम शिलाएं बहुत ही पुण्यदायी मानी गई है। साथ ही विष्णु और तुलसी का किसी भी स्थान पर होना सुख-समृद्धि देने वाला माना जाता है।
नारायण स्वरूप यही शालग्राम शिलाएं इस पर बनने वाले चक्र के आधार पर विष्णु के अलग-अलग रूप व अवतारों के नाम वाली होती हैं, जो इतनी चमत्कारी भी मानी गई है कि इनकी पूजा ही नहीं बल्कि छूने मात्र से बड़े से बड़े पापों का अंत हो जाता है। जानते हैं कि ऐसी ही विलक्षण शालग्राम शिलाओं का स्वरूप कैसा होता है?
मत्स्य - कमल के आकार वाली शिला।
कूर्म - नीले रंग, तीन रेखा और बिन्दुओं से अंकित शिला।
ह्ययग्रीव शिला - जिस शिला पर पांच रेखाएं व अंकुश का आकार हो।
नृसिंह - जिस शिला के बीच गदा जैसी रेखा, नाभिचक्र और फैले हुए वक्षस्थल का आकार दिखाई दे।
वामन - छोटी और गोलाकार शिला।
वाराह - विषम आकार व बीच में दो चक्रों के चिन्ह वाली शिला।
कृष्ण - गोलाकार और पीछे की ओर का हिस्सा झुका हुआ हो।
दामोदर - नीले रंग व बीच में भी नीले रंग के च्रकवाली शिला।
अनन्तक - अनेक रंग, रूप व जिस पर नाग जैसे फण अंकित हो।
लक्ष्मीनारायण - दो चक्रों वाली शिला।
इसी प्रकार शंख, गदा, पद्म चिन्हों और चक्र अंकित शालग्राम शिलाएं विष्णु के अनेक नामों से जानी जाती है। जिनकी पूजा हर तरह से मंगल व कल्याण करने वाली मानी जाती है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
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नारी शक्ति की सुरक्षा के लिये
1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ? जब आप लिफ़्ट में...