जीवन में कुछ परिवर्तन

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यदि आप अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करना चाहते है तो ऐसा नियमित रूप से करेगे तो इससे आप का भाग्
य और समय धीरे धीरे परिवर्तन होने लगेगा ....कार्तिक महिना का पावन पर्व चल रहा है इस महीने में ब्रह्म बेला में उठ कर इश्वर का नाम , ध्यान , योग और पूजा करने से अकस्मात् लाभ होता है

1. सूर्योदय से पूर्व ब्रह्मा बेला में उठे , और अपने दोनों हांथो की हंथेली को रगरे और हंथेली को देख कर अपने मुंह पर फेरे, क्योंकि :- शास्त्रों में कहा गया है की कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थिता गौरी, मंगलं करदर्शनम् ॥
हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, तथा हाथ के मूल मे सरस्वती का वास है अर्थात भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है,ज़िसके बल पर हम धन अर्थात लक्ष्मी अर्जित करतें हैं। जिसके बल पर हम विद्या सरस्वती प्राप्त करतें हैं।इतना ही नहीं सरस्वती तथा लक्ष्मी जो हम अर्जित करते हैं, उनका समन्वय स्थापित करने के लिए प्रभू स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। ऐसे में क्यों न सुबह अपनें हाथ के दर्शन कर प्रभू की दी हुई ताकत का अहसास करते हुए तथा प्रभू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दिन की अच्छी शुरूवात करें।

2.मल , मूत्र , दातुन (मंजन) , भोजन करते समय मौन ( शांत ) रहे
3- . योग और प्राणायाम को नियमित जीवनचर्या में शामिल करे ,ऐसा करने से शरीर हमेशा निरोग रहता है,
4. . प्रातः अपने माता पिता गुरुजनों और अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले , ऋषियों ने कहा है की जो भी माता बहन या भाई बंधू अपने घरों में रोज अपने से बड़ो या पति , सास -ससुर का रोज आशीर्वाद लेते है उनके घर में कभी अशांति नहीं आती है या कभी भी तलाक या महामरी नहीं हो टी है इशलिये अपने से बड़ो की इज्जत करें और उनका आशीर्वाद लें .
5 तिलक किये बिना और अपने सर को बिना ढके पूजा पाठ और पित्रकर्म या कोई भी शुभ कार्य न करें, जहाँ तक हो सके तिलक जरुर करें,
6. रोज नहा धोकर अपने शारीर को स्वक्ष करें , साफ वस्त्र पहने , गुरु और इश्वर का चिंतन करते हुए अपने काम को इश्वर की सेवा करते हुए करें, कुछ भी खाने पिने से पहले गाय, कुत्ता और कौवा का भोजन जरुर निकले, इश्को करने से आप के घर में अन्ना का भंडार हमेशा भरा रहेगा.
7.सोते समय अपना सिरहाना (सर ) दक्षिण दिशा की ओर रखने से धन व आयु की बढ़ोत्तरी होती है।उत्तर की ओर सिरहाना रखने से आयु की हानि होतीहै
8. कभी भी बीम या शहतीर के नीचे न बैठें और न ही सोयें । इससे देह पीड़ा या सिर दर्द होता है ।
9. अपने घर में तुलशी का पौधा लगायें ,
10-घर में पोछा लगाते समय पानी में नमक या सेंधा नमक डाल लें । घर में झाडू व पोंछा खुले स्थान पर न रखें ।
11-घर में टूटे-फूटे बतरन, टूटा दर्पण ( शीशा ), टूटी चारपाई या बैड न रखें । इनमें दरिद्रता का वास होता है।
12-यदि घर में कोइ घडी ठीक से नहीं चल रही हैं तो उन्हें ठीक करा लें ।बंद घड़ी गृहस्वामी के भाग्य को कम करती है ।
13-पूर्व की ओर मुंह करके भोजन करने से आयु, दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करने से प्रेत, पश्‍चिम की ओर मुंह करके भोजन करने से रोग व उत्तर की ओर मुंह करके भोजन करने से धन व आयु की प्राप्ति होती है ।
14- परोपकार का पालन करें, असहाय , गरीब और पशुओं और पर्यावरण की रक्षा करें
15- अपने धर्मं की रक्षा करें, मानव समाज की रक्षा करें, अपने देश और जन्मभूमि की रक्षा करें ,
16-मन वाणी और कर्म से सदाचार का पालन करें .
17- प्यार ही जीवन है खुद भी जियो और दूसरों को भी जीने दो 
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वेद और हिंदू नारी

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जिस कुल में नारियों कि पूजा, अर्थात सत्कार होता हैं, उस कुल में दिव्यगुण, दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों कि पूजा नहीं होती, वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल हैं।

आज से दस हजार साल पहले आर्य या कहें कि वैदिक काल में नारी की स्थिति क्या थी यह सभी के लिए विचारणीय हो सकता है। नारी की स्थित से समाज और देश के सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर का पता चलता है। यदि नारी को धर्म, समाज और पुरुष के नियमों में बांधकर रखा गया है तो उसकी स्थिति बदतर ही मानी जा सकती है।

किंतु जिन्होंने वेद-गीता पढ़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि दस हजार वर्ष पूर्व जबकि मानव जंगली था, आर्य पूर्णत: एक सभ्य समाज में बदल चुके थे। तभी तो वेदों में जो नारी की स्थिति का वर्णन है उससे पता चलता है कि उनकी स्थिति आज के समाज से कहीं अधिक आदरणीय और स्वतंत्रतापूर्ण थी।

नारी की स्थिति :
1.वैदिक काल में कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता या प्रार्थनाकर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था।

2.नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं। मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थी।

3.शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। नारी के बिना नर का जीवन अधूरा है इस अधूरेपन को दूर करने और संसार को आगे चलाने के लिए नारी का होना जरूरी है। नारी को वैदिक युग में देवी का दर्जा प्राप्त था।

4.ऋग्वेद में वैदिक काल में नारियां बहुत विदुषी और नियम पूर्वक अपने पति के साथ मिलकर कार्य करने वाली और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली होती थी। पति भी पत्नी की इच्छा और स्वतंत्रता का सम्मान करता था।

5.वैदिक काल में वर तलाश करने के लिए वधु की इच्छा सर्वोपरि होती थी। फिर भी कन्या पिता की इच्छा को भी महत्व देती थी। यदि पिता को कन्या के योग्यवर नहीं लगता था तो वह पिता की मर्जी को भी स्वीकार करती थीं।

6.बहुत-सी नारियां यदि अविवाहित रहना चाहती थीं तो अपने पिता के घर में सम्मान पूर्वक रहती थी। वह घर परिवार के हर कार्य में साथ देती थी। पिता की संम्पति में उनका भी हिस्सा होता था।

7.सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में जहां पुरुष के रूप में देवता और भगवानों की पूजा-प्रार्थना होती थी वहीं देवी के रूप में मां सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का वर्णन मिलता है। वैदिक काल में नारियां मां, देवी, साध्वी, गृहिणी, पत्नी और बेटी के रूप में ससम्मान पूजनीय मानी जाती थीं।

8.बाल विवाह की प्रथा तब नहीं थी। नारी को पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाता था। उसे हर वह विद्या सिखाई जाती थी जो पुरुष सीखता था- जैसे वेद ज्ञान, धनुर्विद्या, नृत्य, संगीत शास्त्र आदि। नारी को सभी कलाओं में दक्ष किया जाता था उसके बाद ही उसके विवाह के संबंध में सोचा जाता था। इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।

ऐसे हुआ नारी का पतन :
महाभारत युद्ध के बाद नारी का पतन होना शुरू हुआ। इस युद्ध के बाद समाज बिखर गया, राष्ट्र राजनीतिक शून्य हो गया था और धर्म का पतन भी हो चला था। युद्ध में मारे गए पुरुषों की स्त्रीयां विधवा होकर बुरे दौर में फंस गई थी। 

राजनीतिक शून्यता के चलते राज्य असुरक्षित होने लगे। असुरक्षित राज्य में अराजकता और मनमानी बढ़ गई। इसके चलते नारियां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण की शिकार होने लगी। फिर भी यह दौर नारियों के लिए उतना बुरा नहीं था जितना की मध्य काल रहा।

पुराने समय में पुरुष के साथ चलने वाली नारी मध्य काल में पुरुष की सम्पति की तरह समझी जाने लगी। इसी सोच के चलते नारियों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। मध्य काल में नए नए जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और शोषण करना शुरू किया।

धर्म और समाज के जंगली कानून ने नारी को पुरुष से नीचा और निम्न घोषित कर उसे उपभोग की वस्तु बनाकर रख दिया। वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी।

तथाकथित मध्यकालीन धर्म ने नारी को पुरुर्षों पर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनधिकारी बताया गया। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर नारी के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया गया जिसके चलते उसे आसानी से विद्याहीन, साहसहीन कर दिया जाए। समाज, देश और धर्म के ‍नारी को अनुपयोगी बनाया गया ताकि वह अपने जीवन यापन, इज्जत और आत्मरक्षा के लिए पूर्णत: पुरुष पर निर्भर हो जाए।

इस सभी तरह के भय और दहशत के माहौल के चलते हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा, बाल विवाह प्रथा और नारियों को शिक्षा से दूर रखने का चलन बढ़ गया।

हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर.। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।-यजुर्वेद 5/10
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हिंदू मंदिर का अर्थ

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मंदिर का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। मंदिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं- जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं ‍जैसे ‍की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में मंदिर ही कहते हैं टेम्पल नहीं। जो लोग टैम्पल कहते हैं वे मंदिर के विरोधी हो सकते हैं।

द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और ‍मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।

मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहां देवताओं की पूजा होती है उसे 'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहां पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहां प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।
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हिंदू दशनामी संतों की मठ परंपरा

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गोसाईं या बाबाजीयों की दशनामी मठ परंपरा और समाज का प्रचलन शंकराचार्य के समय से चला आ रहा है। शंकराचार्य ने ही उक्त समाजों की स्थापनी की थी। उन्होंने ही देश के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए। बाद में दशनामियों के दस संप्रदाय की शुरुआत हुई। उक्त संप्रदाय में हिंदुओं की सभी जाति के लोग शामिल हुए। यह जातिबंधन तोड़ने की शायद सबसे पुरानी कोशिश थी। 

मठ की स्थापना के बाद दशनामियों ने 200 वर्षों बाद मठिकाओं की स्थापना की। इन्हें बाद में मढ़ी भी कहा गया। यह मढ़ियां संख्या में 52 थीं। 27 मढ़ियां भारतीयों की, चार मढ़ियां वनों की और एक मढ़ी लताओं की कहलाती है।

पर्वत, सागर और सरस्वती पदधारियों की कोई मढ़ी नहीं है। बावन मढ़ियों के अंतर्गत यह सारी संन्यास परंपरा समाजसेवा के लिए भी सक्रिय हैं। बाद में इनमें भी दंढी और गोसाई के दो भेद हुए। तीर्थ आश्रम सरस्वती एवं भारती नामधारी संन्यासी दंडी कहलाए। शेष गोसाइयों में गिने गए। बाद में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के अनेक अखाड़े प्रसिद्ध हुए जिनमें से सात पंचायती अखाड़े आज भी सक्रिय हैं।


कुम्भ में स्नान के लिए श्रीपंचायती तपोनिधि, निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा वर्षों से भाग लेते रहे हैं।

बाद में भक्तिकाल में इन शैव दशनामी अखाड़ों की तरह रामभक्त वैष्णव साधुओं के भी संगठन खड़े हुए। इन्हें अणि का नाम दिया गया। अणि यानि सेना। वैष्णव बैरागी साधुओं ने भी धर्म के संदर्भ में यह अखाड़े गठित किए, जिनमें तीन मुख्य थे। दिगम्बर अखाड़ा, श्रीनिर्वाणी अखाड़ा, श्री निर्मोही अखाड़ा। इनके अंतर्मन अनेक इकाइयां और भी थीं।

संन्यासियों और बैरागियों के लिए कुम्भ के स्नान को लेकर भी द्वंद्व का इतिहास रहा है। लेकिन आजकल इनकी संयुक्त समिति गठित होने और सरकार द्वारा मान्यता दिए जाने से संघर्ष की स्थिति खत्म हो गई है।

साधुओं की अखाड़ा परंपरा के बाद गुरु नामकदेव के पुत्र श्रीचंद्र द्वारा स्थापित उदासीन संप्रदाय भी श्रीपंचायती अखाड़ा, बड़ा उदासीन एवं श्रीपंचायती अखाड़ा नया उदासीन नाम से सक्रिय हैं।

पिछली शताब्दी में सिख साधुओं के नए संप्रदाय निर्मल संप्रदाय और उसके अधीन श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया। इन सभी अखाड़ों के लिए कुम्भ इस कारण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके चुनाव व नई कार्यकारिणियों का इस दौरान गठन करने की परंपरा चली आ रही है।
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ऐसे बनता है नागा साधु के बाद महंत

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मेले का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है। साधु संतों का शाही स्नान देखने के लिए देश-विदेश के लोग एकत्रित होते हैं। शाही स्नान के लिए लाखों की संख्या में जब संत निकलते हैं तो यह दृश्य लोगों में धार्मिक भावनाओं का संचार करता है।

18 विभिन्न अखाड़ों का प्रतिनिधित्व वैष्णवी अखाड़े के हाथ होता है। वैष्णवी अखाड़े में महंत की पदवी पाने के लिए नवागत संन्यासी को वर्षों तक सेवा करनी पड़ती है। इस के बाद ही उसको महंत की पदवी हासिल होती है।

वैष्णव अखाड़े की परंपरा के अनुसार जब भी नवागत व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता है तो तीन साल की संतोषजनक सेवा 'टहल' करने के बाद उसे 'मुरेटिया' की पदवी प्राप्त होती है। इसके बाद तीन साल में वह संन्यासी 'टहलू' पद ग्रहण कर लेता है।
'टहलू' पद पर रहते हुए वह संत एवं महंतों की सेवा करता है। कई वर्ष के बाद आपसी सहमति से उसे 'नागा' पद मिलता है। एक नागा के ऊपर अखाड़े से संबंधित महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां होती हैं।

इन जिम्मेदारियों में खरा उतरने के बाद बाद उसे 'नागा अतीत' की पदवी से नवाजा जाता है। नागा अतीत के बाद 'पुजारी' का पद हासिल होता है। पुजारी पद मिलने के बाद किसी मंदिर, अखाड़ा, क्षेत्र या आश्रम का काम सौंपे जाने की स्थिति में आगे चलकर ये 'महंत' कहलाते हैं। -
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वकील की ईमानदारी

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श्रीधर एक प्रसिद्ध डॉक्टर था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। श्रीधर ने जीवन-बीमा करा रखा था। बीमे की राशि लगभग दस हजार रुपये डॉक्टर की पत्नी रूपाली को मिल गई। रूपाली ने वह राशि डॉक्टर के एक वकील मित्र राजगोपाल को जमा करने के लिए दे दी। राजगोपाल ने वह राशि रूपाली के नाम से पंद्रह वर्ष के लिए एक प्रतिष्ठित कंपनी में जमा करा दी।

इस बात को सात साल बीत गए। अचानक रूपाली को रुपयों की जरूरत पड़ी। उसने राजगोपाल से अपने दस हजार रुपये मांगे। वकील राजगोपाल तो उन पैसों को भूल ही चुके थे उन्होंने अपने पुराने कागजात देखे। लेकिन उन्हें कहीं भी दस हजार रुपये जमा नहीं मिले। वह काफी परेशान हो गए। अगर वह रूपाली को झूठा बताते तो लोग उन पर एक विधवा के रुपये हड़प कर लेने का इल्जाम लगा सकते थे। अतः काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने स्वयं अपनी जेब से दस हजार रुपये रूपाली को दिए।

उधर कंपनी की पंद्रह वर्ष की मियाद पूरी हो जाने के बाद रूपाली के नाम जमा कराए दस हजार रुपये पचास हजार में तब्दील हो गए थे। कंपनी ने रूपाली को पत्र लिखकर सूचित किया। रूपाली को जब पत्र मिला तो वह बहुत हैरान हुई। वह कंपनी के अधिकारियों से जाकर मिली और उन्हें बताया कि उसने तो रुपये जमा ही नहीं कराए। तब रूपाली राजगोपाल से मिली और पूछताछ की। तब कहीं जाकर राजगोपाल को याद आया कि उसी ने वह रुपये रूपाली के नाम से उस कंपनी में जमा कराए थे।

कंपनी से रूपाली को पचास हजार रुपये मिल गए। रूपाली ने वह रुपये राजगोपाल को देने चाहे, क्योंकि वह तो अपने दस हजार रुपये ले चुकी थी। लेकिन वकील ने अपने दस हजार रुपये ही लिए।

सच में वह बल होता है कि एक दिन सामने आकर ही रहता है। रूपाली भी सच्ची थी और राजगोपाल भी। यह सच यदि छिपा रहता तो रूपाली के प्रति राजगोपाल के मन में संदेह का नाग जरूर फन उठाता। लेकिन राजगोपाल सच्चा होने के साथ ईमानदार भी था, इसीलिए उसने अपने 10 हजार रुपये ही वापस लिए।
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किस्मत का खेल

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चमनलाल सारा दिन धूप में इधर-उधर घूम-फिरकर टूटा-फूटा सामान और कबाड़ जमा करता, फिर शाम को उसे बड़े कबाड़ी की दुकान पर बेचकर पेट भरने लायक कमा लेता था। एक दिन वह एक घर से पुराना सामान खरीद रहा था। घर के मालिक ने उसे एक पुराना पानदान भी दिया, जो उसने मोल-भाव करके एक रुपये में खरीद लिया। 
कुछ आगे बढ़ने पर एक और घर ने उसे कुछ कबाड़ बेचा, लेकिन घर के मालिक को वह पानदान पसंद आ गया और उसने पांच रुपये में उसे खरीद लिया। लेकिन जब काफी कोशिश के बाद भी वह पानदान उससे नहीं खुला तो अगले दिन उसने उसे चमनलाल को वापस करके अपने पांच रुपये ले लिए।

शाम को बड़े कबाड़ी ने भी वह पानदान न खुलने के कारण उससे नहीं खरीदा। अगले दिन रविवार था। रविवार को बाजार के चौक पर चमनलाल पुराना सामान बेचता था। वहां उससे कोई ग्राहक पांच रुपये देकर वह पानदान ले गया। लेकिन अगले रविवार को वह ग्राहक वह पानदान उसे वापिस कर गया क्योंकि वह उससे भी नहीं खुला।
बार-बार पानदान उसी के पास पहुंच जाने के कारण चमनलाल को बहुत गुस्सा आया और उसने उसे जोर से जमीन पर पटककर मारा। अबकी पानदान खुल गया। पानदान के खुलते ही चमनलाल की आंखें खुली-की-खुली रह गईं। उसमें से कई छोटे-छोटे बहुमूल्य हीरे छिटककर जमीन पर बिखर गए थे।

अगले दिन प्रातः वह उसी घर में गया जहां से उसने पानदान खरीदा था। पता चला कि वे लोग मकान बेचकर किसी दूसरे शहर में चले गये हैं। चमनलाल ने उनका पता लगाने की कोशिश भी की लेकिन नाकामयाब रहा। बाद में चमनलाल उन हीरों को बेचकर संपन्न व्यापारी बन गया और सेठ चमनलाल कहलाने लगा।

समय से पहले भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता। यही चमनलाल के साथ हुआ। वह तो किसी तरह उस पानदान से छुटकारा पाना चाह रहा था, जो बार-बार लौटकर उसी के पास आ जाता था। किस्मत बार-बार उसके दरवाजे पर दस्तक दे रही था, तभी तो वह पानदान उसे कबाड़ी से सेठ बना गया।
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सच्चा ब्राह्मण

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रामनाथ कर्मकांडी ब्राह्मण था। पूजा-पाठ और भक्ति में उसका पूर्ण विश्वास था। लेकिन वह बहुत ही गरीब था। जहां वह रहता था वह ब्राह्मणों का ही गांव था। लेकिन वे सभी ढोंग और पाखंड में विश्वास रखते थे। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना था।

कई बार उन ढोंगी ब्राह्मणों ने रामनाथ को भी सलाह दी थी कि वह भी लोगों को बेवकूफ बनाकर खूब पैसा कमाए, लेकिन इस काम के लिए उसका मन नहीं मानता था। एक बार रामनाथ की पत्नी ने उससे कहा, ‘आप दरबार में जाकर राजा से मदद मांगें।’

पत्नी की सलाह पर रामनाथ अगले दिन प्रातः राजा से मिलने महल की ओर चल दिया। वहां तक पहुंचने में एक दिन का समय लगता था। वह चलता रहा, चलते-चलते जब थक गया तो कुछ देर आराम करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसे भूख भी लग रही थी। उसने रोटी की पोटली खोली तो उसमें पूजा का सामान भी था। उसे याद आया कि उसने तो आज पूजा ही नहीं की। वह पूजा करने लगा। उसके बाद उसने रोटी की पोटली खोली और जिस पेड़ के नीचे बैठा था, एक रोटी उसकी जड़ में रख कर बोला, ‘हे वृक्ष ! कृपया मेरी तरफ से यह रोटी स्वीकार करें।’
तभी वहां आवाज गूंजी, ‘हे ब्राह्मण आपने यहां पधारकर हमारा उद्धार कर दिया। हम तो वर्षों से आपकी है प्रतीक्षा कर रहे थे।’
रामनाथ हैरान रह गया। उसने देखा कि वृक्ष पर दो मैना बैठी थीं।’
मैना बोलीं, ‘जिस वृक्ष के नीचे आप बैठे हैं वह ऋषि तुंगभद्र हैं और हम दोनों स्वर्ग की अप्सराएं। कृपा करके आपके पास जो जल है, उसकी कुछ बूंदें इस वृक्ष और हम दोनों पर छिड़क दें तो हम सब अपने वास्तविक रूप में आ जाएंगे।

रामनाथ ने तुरंत उस वृक्ष पर और दोनों मैनाओं पर जल छिड़क दिया। वे सब अपने वास्तविक रूप में आ गए। ऋषि तुंगभद्र ने रामनाथ को धन्यवाद दिया और उसे दो थैली स्वर्ण-मुद्राएं दीं। इसके बाद वे तीनों वहां से अदृश्य हो गए। उनके जाते ही वहां एक सुंदर-सा मकान बन गया और फिर से एक आवाज गूंजी, ‘रामनाथ ! यह मकान तुम्हारा है।’
रामनाथ अपने गांव लौट आया। वहां उसने देखा कि गांव के सभी मकान टूटे पड़े हैं। वह अपने घर की तरफ दौड़ा। लेकिन उसका मकान सही-सलामत था। उसने अपनी पत्नी को सारी बात बताई। उसकी पत्नी बोली, ‘लगता है गांव के सभी ढोंगी पंडितों को भगवान ने श्राप दे दिया है।’
इसके बाद रामनाथ अपनी पत्नी के साथ नए मकान में आकर सुख से रहने लगा।

सच्ची श्रद्धा व भक्ति का फल एक-न-एक दिन अवश्य ही मिलता है। रामनाथ छल-कपट से धन कमाने को ठीक नहीं मानता था, उसकी ईमानदारी में शक्ति थी। इसी शक्ति ने ऋषि व अप्सराओं को मुक्ति दी और रामनाथ को भी वैभव मिल गया।

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राजा का कर्तव्य

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राजा प्रतापराय अपनी प्रजा के प्रति बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ था। एक बार प्रजा ने अपने राजा के यश और कल्याण की वृद्धि के लिए यज्ञ करने का विचार किया। राजा ने यज्ञ की अनुमति दे दी, साथ ही इस यज्ञ के लिए हर संभव मदद की पेशकश की । किंतु प्रजा प्रतिनिधियों ने यह कह कर मानने से इनकार कर दिया कि यह यज्ञ राजा के कल्याण हेतु प्रजा की तरफ से होगा। अतः इसका सारा खर्चा भी प्रजा वहन करेगी, साथ ही प्रतिनिधियों ने राजा से यज्ञ में उपस्थित होने को कहा। राजा ने उनकी बात को स्वीकार कर लिया।

नियत समय पर यज्ञ शुरू हो गया। 21 दिन का यज्ञ था। प्रतिदिन राजा स्वयं यज्ञ में उपस्थित होता और अपने हाथों से आहुतियां देता। यज्ञ को बीस दिन हो चुके थे। प्रजा को बस इन्तजार था तो इक्कीसवें दिन का। इस दिन राजा को इक्कीस आहुतियां देनी थीं। इसके बाद राजा प्रतापराय का यश पूरी दुनिया में फैल जाना था।

इक्कीसवें दिन प्रातः यज्ञ की सारी तैयारियाँ हो गईं। राजा का इंतजार हो रहा था। जब काफी देर तक राजा वहाँ नहीं पहुँचा तो कुछ लोग महल में चले गए। वहाँ पता चला कि राजा वहाँ नहीं है, वह सुबह-सवेरे ही सैनिकों के साथ कहीं चला गया था।

प्रजा को जब यह खबर मिली तो वह उदास हो गई। यज्ञ भी पूर्ण नहीं हो पाया। चार दिन बाद जब राजा लौटा तो लोग उससे मिलने महल में गए। राजा ने उनसे कहा, ‘मुझे अफसोस है कि आप लोगों का यज्ञ पूरा नहीं हो पाया, किंतु मेरा जाना जरूरी था। पड़ोसी राज्य ने हम पर आक्रमण कर दिया था और वे लोग नगर की सीमा तक आ गए थे। हम लोगों ने दुश्मनों को मार भगाया।’
प्रजा खुश हुई और राजा को बधाई देते हुए, ‘महाराज यदि एक दिन आप और रुक जाते तो यशस्वी राजा बन जाते।’
राजा ने कहा, ‘यदि मैं एक दिन और रुक जाता तो हम लोग पड़ोसी राज्य के गुलाम हो जाते। आज भले ही मैं यशस्वी नहीं हूँ, लेकिन स्वतन्त्र तो हूँ। मैं राजा हूँ और प्रजा के प्रति मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उन्हें स्वतंत्र वातावरण दूँ।’

राजा का सर्वप्रथम धर्म है प्रजा की रक्षा करना। इसी से उसके यश-कीर्ति का अनुमान लगता है। यज्ञ करने से राजा यशस्वी होता है या नहीं, यह तो ऊपरवाला जाने। लेकिन उस समय का यही तकाजा था कि सीमा पर पहुँचे शत्रु को मुँहतोड़ जवाब दिया जाता, जैसा उस समझदार राजा ने दिया भी।

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भगवान

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प्राचीनकाल की बात है...पृथ्वी पर भयंकर बीमारियों, भूकम्प, आंधी-तूफान तथा खूंखार जानवरों का आतंक था। 
परेशान लोगों ने ईश्वर की आराधना की। उन्होंने भगवान से दिव्य पुरुष की मांग की, जो उन्हें इन सब प्रकोपों से मुक्ति दिला सके। अन्ततः भगवान को उन पर तरस आ गया और उन्होंने एक दिव्य-पुरुष पृथ्वी पर भेज दिया।
लोगों ने उस दिव्य-पुरुष को सिर-आँखों पर बैठा लिया। सभी उस पर बड़ी-बड़ी फूलों की माला चढ़ाने लगे। वह दिव्य-पुरुष लोगों की इस हरकत से बहुत परेशान हो रहा था। वह बार-बार लोगों से कहता भी, ‘रहने दो, इन सबकी क्या जरूरत है।’ किंतु लोग नहीं माने अंततः वह दिव्य पुरुष उन फूल मालाओं के बोझ तले दबकर मर गया।
लोग फिर भगवान से प्रार्थना करने लगे। इस बार भी भगवान ने एक और दिव्य-पुरुष पृथ्वी पर भेज दिया। उसका भी यही हश्र हुआ।

इस तरह लोग बार-बार प्रार्थना करते और भगवान हर बार एक दिव्य-पुरुष भेज देते।
इस बार जब लोग भगवान से दिव्य पुरुष की मांग कर रहे थे तो भगवान ने उनके पास एक पत्थर की मूर्ति भेज दी। लोगों ने उसका भी भरपूर स्वागत किया। उस पर भी खूब फूल-मालाएं चढ़ाईं। लेकिन उसे कुछ न हुआ...वह जस-का-तस रहा।
तब भगवान ने मन-ही-मन कहा, ‘इसबार तुम लोग जितनी मर्जी फूल-मालाएं चढ़ा लो यह दिव्य-पुरुष नहीं मरेगा।’
बार-बार एक ही घटना की पुनरावृत्ति होने पर यह सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है...क्या कारण है इसके पीछे। लोग ईश्वर के भेजे दिव्य-पुरुष को फूलों के बोझ तले दम तोड़ने को विवश कर देते थे, जबकि अपनी ओर से वे उसका सत्कार कर रहे थे। कुछ करने से पहले भला-बुरा सोच लेना चाहिए।
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रिश्तों की अहमियत

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