सब माया है

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भारत में मायावाद का प्रसिद्ध विवरण है-- "ब्रह्म सत्यम, जगत्‌ मिथ्या"। इस व्यवस्था में जीवात्मा का स्थान कहाँ है? यह भी जगत्‌ का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप आभास है। ब्रह्म माया से आप्त होता है और अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर ईश्वर बन जाता है। ईश्वर, जीव और बाह्म पदार्थ, प्राप्त ब्रह्म के ही तीन प्रकाशन हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है? एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है। पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है। सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है। इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया। उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा, और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है। भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं। शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है। मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें।
गौड़पाद कारिकाओं के आरंभ में ही कहता है।
स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं। स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता।
देश के संकोच के कारण हमें मानना पड़ता है कि स्वप्न में देखे हुए पदार्थ वस्तुगत अस्तित्व नहीं रखते, काल का संकोच भी बताता है कि स्वप्न के दृश्य वास्तविक नहीं। इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दानों एक समान अस्थिर हैं। वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछेश् आने वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत्‌ को देखा है।'
गौड़पाद के तर्क में दो भाग हैं--
स्वप्न के दृश्य मिथ्या हैं, क्योंकि उनके लिये पर्याप्त देश और काल विद्यमान नहीं।
स्वप्न तथा जागरण अवस्थाओं में मौलिक भेद नहीं स्वप्न में देश और काल को अपर्याप्त कहने में गौड़पाद जागरण के अनुभव को मापक और कसौटी मान रहा है। उसकी यह प्रतिज्ञा कि स्वप्न और जागरण में कोई मौलिक भेद नहीं, इस से खंडित हो जाती है।

जागरण और स्वप्न में कई मौलिक भेद हैं--
जागरण का अनुभव मूल है, स्वप्न का अनुभव उसकी नकल है। जन्म का अंधा स्वप्न में देख नहीं सकता, बहरा सुन नहीं सकता।
स्वप्न में चित्रों का संयोग अनिर्णीत होता है, जागरण में यह निर्णीत भी होता है। स्वप्न कल्पना का खेल है, इसमें बुद्धि काम नहीं करती। स्वप्न रूपक और कल्पना की भाषा का प्रयोग करता है, जागरण में प्रत्ययों की भाषा भी प्रयुक्त होती है।
स्वप्न में प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी दुनिया में विचरता है, जागरण में हम साझी दुनिया मेें रहते हैं। इस दूसरी दुनिया में व्यवस्था प्रमुख है। प्रतिदिन भ्रमण में अनेक पदार्थों को एक ही क्रम में स्थित देखता हूँ, मेरे साथी भी उन्हें उसी क्रम में देखते हैं; दूसरी ओर कोई दो मनुष्य एक ही स्वप्न नहीं देखते, न ही एक मनुष्य के स्वप्न एक दूसरे को दुहराते हैं।
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भिक्षुकोपनिषद ज्ञान । Knowledge Of Bhikshuka Upanishad

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भिक्षुकोपनिषद संन्यासियों के महत्व एवं उनके कार्यों पर प्रकाश डालता है. उपनिषद में मोक्ष की इच्छा रखने वाले भिक्षुओं के स्वरूप का आंकलन किया गया है. यहां पर इन्हें चार श्रेणियों कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस में बांटा गया है जिसमें से सर्वप्रथम है,

कुटीचक
कुटीचक्र भिक्षु योग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करते हैं उनके लिए भोजन केवल इतना ही होता है कि जिससे वह अपने शरीर की रक्षा कर सकें अपने को कठिन साधना मार्ग द्वारा स्थिर करने का प्रयास करते हैं. गौतम, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य एवं वसिष्ठ ऋषियों की भांति आठ ग्रास भोजन ग्रहण करते हैं तथा साधना में लीन रहते हैं.

बहूदक
बहूदक संन्यासियों का एक भेद है यह एक ऎसे संन्यासी होते हैं जो सात घरों से भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करते हैं, इनके लिये त्रिदंड, कमंडलु, गात्राच्छादन, कंथा, पादुका, शिक्य, कौपीन, छत्र, पवित्र, काषाय वस्त्र, रुद्राक्षमाला, बहिर्वास, एवं कृपाण को धारण करने का विधान है.

इन्हें सर्वांग में भस्म तथा मस्तक पर त्रिपुंड धारण करते हैं इन्हें शिखासूत्र नहीं त्याग करना चाहिए इन्हें योग्याभ्यास द्वारा अपने मार्ग का चयन करना आना चाहिए. भौतिक वासनाओं का त्याग लोभ से मुक्ति इनके लिए आवश्यक है भिक्षा द्वारा आठ ग्रास भोजन ग्रहण करते हैं यदि एक ही जगह से भरपेट भोजन मिले तो भी नहीं लेना चाहिए योगमार्ग साधना द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं.

हंस
हंस वर्ग का संन्यासी बहूदक के बाद की श्रेणी का होता है हंस संन्यासी भिक्षु किसी ग्राम में एक रात्रि से अधिक नहीं रहता, किसी नगर में वह पांच रातों तक, किसी तीर्थक्षेत्र में सात रात्रि से अधिक निवास नहीं करता है. हंस भिक्षु गोमूत्र को ग्रहण करने वाला तथा नियमित रूप से चान्द्रायण व्रत का पालन करता है यह संन्यासी योग साधना के मार्ग पर चल कर मोक्ष की खोज करता है.

परमहंस
परमहंस श्रेणी का भिक्षु अपना निवास स्थान किसी वृक्ष के नीचे, किसी शून्य गृह में अथवा श्मशान में बनाते हैं. परमहंस आश्रम में प्रवेश करने पर संन्यासी समस्त बंधनों से मुक्त होइ जाता है उसे तर्पण, श्राद्ध, संध्या आदि की आवश्यकता नहीं होती देवार्चन भी उसके लिये नहीं हैं वह अध्यात्मनिष्ठ होकर निर्द्वद्वं एवं निराग्रह भाव से ब्रह्म में स्थित रहने का कार्य करता है.

परमहंस संन्यासी भिक्षु के लिए “द्वैत भाव” का कोई अभिमत नहीं होता सभी वस्तुएं समान हैं स्वर्ण हो या मिट्टी कोई भेद नहीं होता, सभी वर्णों में समान भाव से भिक्षावृत्ति करते हैं संवर्तक, आरूणि, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव, वामदेव और हारीतक आदि की तरह आठ ग्रास भोजन ग्रहण करके योग साधना में प्रयत्नशील रहते हैं तथा समस्त प्राणियों में अपनी 'आत्मा' को पाते हैं, यह भिक्षुक शुद्ध मन से परमहंस वृत्ति का पालन करते हुए देह का त्याग करते हैं और मोक्ष को पाते हैं.

भिक्षुकोपनिषद महत्व
भिक्षुकोपनिषद संन्यासियों के विभिन्न भेदों का उल्लेख करता है अपने स्वरूप की भांति यह उपनिषद संन्यासी भिक्षु का भेद व्यक्त करता है. संन्यासी जो ज्ञान की परमावस्था को प्राप्त करने के लिए निम्न श्रेणीयों को पाता है तथा परमहंस होकर सच्चिदानंद ब्रह्म मैं ही हूँ' इस अर्थ को पूर्ण रूप से अनुभव करता है, कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस जो चार प्रकार के अवधूत कहे गए हैं जिन सबमें परमहंस सबसे श्रेष्ठ माना गया है. यह सभी वर्ग अपने अपने कार्यों द्वारा ब्रह्म को जानने का प्रयास करते हैं तथा मोक्ष को पाने की कामना रखते हैं.
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निर्वाण षटकम् Nirvana Shatakam

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||

[न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||

[न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||

[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

[मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं

ॐ नमः शिवाय.
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मोक्ष और ज्ञान के मार्गों पर चलने में बाधक

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पुराने समय से यह धारणा चली आ रही है कि घर-गृहस्थी भक्ति, मोक्ष और ज्ञान के मार्गों पर चलने में बाधक है। गृहस्थ जीवन को त्याग कर ही इन मार्गों पर चला जा सकता है। लेकिन यह धारणा सत्य नहीं है।

प्राचीन भारत के अधिकांश ऋषि-मुनि गृहस्थ ही थे। पत्नी-पुत्र आदि उनके तत्वचिन्तन में, उनके ऋषि जीवन में कभी बाधा नहीं बने, अपितु गृहस्थ उनके लिए आनन्द योग का सहायक ही सिद्ध हुआ। वे भी इन्दिय भोग भोगते थे, किन्तु उनका प्रभाव अपने चित्त पर नहीं पड़ने देते थे।

मनु और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।

कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्‍हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने पत्‍नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।

परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्‍थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।

(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित

(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित

(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित

(4) हविर्भू - पुलस्‍त ऋषि के साथ विवाहित

(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित

(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित

(7) ख्‍याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित

(8) अरूंधति - वशिष्‍ठ ऋषि के साथ विवाहित

(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित

कर्दम ऋषि ने सन्‍यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्‍हें समझाया कि अब तुम्‍हारे पुत्र के रूप में स्‍वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।

कर्दम एवं देवहूति की तपस्‍या के फलस्‍वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।

कहने का तात्पर्य यह है कि हम ग्रुहस्थ गोस्वामी और त्यागी मे कोइ अन्तर नहि है "जय दशनाम"
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दशनामी

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एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘शंकर’, जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुआ।
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सन्यासियों के प्रकार

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(1) भोगवार अर्थात वे संसार की समस्त वस्तुओं के प्रति उदासीन भाव रखते हैं। भोग उन सांसारिक वस्तुुओं का स्वाद लेने को कहते हैं जो जीवन के नितान्त आवश्यक नहीं हैं।
(2) कीटवार अथवा वे जो स्वल्पाहार करने का प्रयत्न करते है
(3) आनन्दवार अथवा वे जो भिक्षा की याचना से विरत रहते हैं और उतने ही पर निर्वाह करते है जितना उन्हे स्वतन्त्र रूप से मिल जाता है।
(4) भूरिवार अथवा वे जो जंगल में उत्पन्न होनेवाली वनस्पति आदि से अपना निर्वाह करते हैं।
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भगवान दत्तात्रेय Lord Dattatreya

धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इनका जन्म मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में हुआ था। ऐसी मान्यता है कि भक्त के स्मरण करते ही भगवान दत्तात्रेय उसकी हर समस्या का निदान कर देते हैं इसलिए इन्हें स्मृतिगामी व स्मृतिमात्रानुगन्ता कहा जाता है। श्रीमद्भगावत आदि ग्रंथों के अनुसार इन्होंने चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी।
भगवान दत्त के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ। गिरनारक्षेत्र श्रीदत्तात्रेय भगवान की सिद्धपीठ है। इनकी गुरुचरणपादुकाएं वाराणसी तथा आबूपर्वत आदि कई स्थानों पर हैं।

श्री दत्तात्रय याने अत्रि ऋषि और अनसूया के तपश्या का फल.
"दत्तात्रय " शब्द दत्त+अत्रेय की संधि से बना है। अत्रेय याने अत्रि ऋषि का पुत्र,ब्रह्मा,विष्णू व महेश इन तीन देवों का अवतार दत्तात्रया के रूप में होने से उन्हे तीन मुखहोना प्रसिध्द है व ये सत्व-रज-तम,उत्पत्ति-स्थिती-लय,जाग्रति-स्वप्न-सुषुप्ति के ध्योतक है।
ब्रह्मा,विष्णू व महेश का समावेश करनेवाले तीन मुख छ:हात में नीचे के दो हात ब्रह्मदेवके प्रतिक कमंडल व जयमाला,बीच के दो हात भगवान् शंकर के प्रतिक त्रिशूल व डमरू और उपर के दो हात विष्णू देवता के प्रतिक शंख व चक्र ऐसे रूप का वर्णन है।
श्री दत्तात्रय के बगल में एक झोली रहती है जो अंह नष्ट होने का प्रतिक है। घर घर भिक्षा मांगने से अंह कम होता है।
औदुंबर वृक्ष आद्य कलियुग से दत्तात्रय का प्रिय वृक्ष है। इसलिये दत्तात्रय के चित्र में और जहाँ जहाँ दत्तात्रय की मूर्ती या पादुका होगी वहाँ वहाँ अधिकतर औदुंबर वृक्ष दिखाई देता है।
श्री दत्तात्रयके पीछे माया का प्रतिक गायखडी होती है।
श्री दत्तात्रया के आस पास इच्छा,वासना,आशा व तृष्णा के प्रतिक चार श्वान होते हैं जो काम,क्रोध,मद आणि मत्सर श्री दत्तात्रयके काबू में होते हैं।
श्रीदत्तात्रय की विविध रूपों में उपासना की जाती है। इन्हे 'तीन मस्तक छ:हात'के स्वरूपमें पहचाना जाता है। उनके पीछे गाय पृथ्वीमाता की, चार कुत्ते वेदों के प्रतिक माने जाते है। इसलिये श्रीदत्तात्रय पवित्र पृथ्वी व पवित्र वेद इनका अधिष्ठाता देव है।
सोलह अवतार :
भक्त जनों के कल्याण के लिये दत्तात्रया के जो विविध अवतार हुये उनमें सोलह अवतारों को प्राधान्य दिया गया है। इन सोलह अवतारों के नाम नि हैं
1. योगिराज
2. अत्रिवरदा
3. दत्तात्रय
4. कालाग्निशमन
5. योगिजनवल्लभ
6. लीलाविश्वंभर
7. सिध्दराज
8. ग्यानसागर
9. विश्वंभरावधूत
10 मायामुक्तावधूत
11 मायायुक्तावधूत
12 आदिगुरू:
13. शिव
14 देवदेव
15 दिगंबर
16कमललोचन
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दशनाम

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तीर्थ-
त्रिवेणी संड्डमें तीर्थ तत्वमरयादि लक्षणौ। स्नायातत्दार्थ आवेन तीर्थ नामा च उच्यते।
"तत्वमसि" इस महाकाव्य रूपी त्रिवेणी के तीर्थ में जो तत्वान्वेषण भाव से स्नान करते हैं उन्हें तीर्थ कहते है।

आश्रम-
आश्रम ग्रहणे प्रौढ आशा पाश विवर्जिताः। यातायात विनिर्मुक्त एतदाश्रम लक्षणम।।
जाल से मुक्ति और आवागमन से मुक्ति और उक्त गुणों से युक्त सन्यासी को आश्रम कहते है

वन-आरण्य
सुरम्ये निर्झरदेश वने वासं करोति यः। आशा याशा विर्निमुक्तो वन नामा उच्यते।।
आशा रहित हो रमणीय झरना वाले वन प्रांत में वास करने वाले सन्यासी वन कहलाते है।

गिरि-
वासो गिरिश्वरे नित्ये गीताभ्यासे हितत्परः। शम्भीराचल बुदिध्श्रा नामा च उच्यते ।।
जो पर्वतो में रह कर बराबर गीता का पाठ करते हैं और गंभीर अटल बुद्धि वाले होते हैं वे गिरि हैं।

पर्वत-
बसेत पर्वत मूलेषू प्रौढो योध्यानधारणात। सारात सारं विजानाति पर्वतः परि कीर्तितः।।
जो पर्वतों में रहते हैं और ध्यान धारणादि में प्रौढ हैं और जीवन सार से परिचित है पर्वत कहे जाते है।

सागर-
वसेत सागर गंभीरो वन रत्न परिग्रहः। मध्र्यादाश्र न लंबे सागरः परि कीर्तितः।।
समुद्रक्त गंभीर, वन्यफूलमूलादि जीवी व मर्यादावान सन्यासी सागर कहे जाते है।

सरस्वती-
स्वरज्ञान वशोनित्यर स्वरवादी कवीश्ररः। संसार सागरे सराभिज्ञो यो हि सरस्वती।
स्वर ज्ञान वाले कविस्वर व संसार को असार मानने वाला सन्यासी सरस्वती कहा जाता है।

भारती-
विद्याभारेण सम्पूर्ण सर्वभारं परित्यजेत। दुख भारं न जानाति भारती पर कीर्तितः।।
विद्या से युक्त हो सभी सारो को छोड जो दुःख के बोझ को भी नहीं समझत वह भारती हैं।

पुरी-
ज्ञानत तत्वेण सम्पूर्णः पूर्णतत्व पदेस्थितः। पद ब्रह्मरता नित्य पुरी नामा स उच्यते।।
ज्ञान तत्व से युक्त पूर्ण तत्वज्ञ व शब्द ब्रह्ममें लीन में रहने वाला पुरी है।
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दशनाम नागा साधु

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भगवान शिव से जुड़ी मान्यताओं मे जिस तरह से उनके गणो का वर्णन है ठीक उन्ही की तरह दिखने वाले, हाथो मे चिलम लिए और चरस का कश लगते हुए इन साधुओं को देख कर आम आदमी एक बारगी हैरत और विस्मयकारी की मिलीजुली भावना से भर उठता है । ये लोग उग्र स्वभाओ के होते हैं, साधु संतो के बीच इनका एक प्रकार का आतंक होता है , नागा लोग हटी , गुस्सैल , अपने मे मगन और अड़ियल से नजर आते हैं , लेकिन सन्यासियों की इस परंपरा मे शामील होना बड़ा कठिन होता है और अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप मे स्वीकार नहीं करते ।वर्षो बकायदे परीक्षा ली जाती है जिसमे तप , ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन तथा निस्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। फिर ये अपना श्रध्या , मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर सन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों , संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है,अपना श्रध्या कर देने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो जाना , इंद्रियों मे नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर देना होता है कहते हैं की नागा जीवन एक इतर जीवन का साक्षात ब्यौरा है और निस्सारता , नश्वरता को समझ लेने की एक प्रकट झांकी है । नागा साधुओं के बारे मे ये भी कहा जाता है की वे पूरी तरह निर्वस्त्र रह कर गुफाओं , कन्दराओं मे कठोर ताप करते हैं । प्राच्य विद्या सोसाइटी के अनुसार “नागा साधुओं के अनेक विशिष्ट संस्कारों मे ये भी शामिल है की इनकी कामेन्द्रियन भंग कर दी जाती हैं”। इस प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधू विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी मानसिक अवस्था उनके अपने तप बल निर्भर करती है ।

धूनी मल कर , नग्न रह कर और गुफाओं मे तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रन्थों मे मिलता है । प्राचीन विवरणो के अनुसार संकराचार्य ने बौद्ध और जैन धर्म के बढ़ते प्रचार को रोकने के लिए और सनातन धर्म की रक्षा के लिए सन्यासी संघो का गठन किया था । कालांतर मे सन्यासियों के सबसे बड़े जूना आखाठे मे सन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र और शास्त्र दोनों मे पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया । उद्देश्य यह था की जो शास्त्र से न माने उन्हे शस्त्र से मनाया जाय । ये नग्ना अवस्था मे रहते थे , इन्हे त्रिशूल , भाला ,तलवार,मल्ल और छापा मार युद्ध मे प्रशिक्षिण दिया जाता था । इस तरह के भी उल्लेख मिलते हैं की औरंगजेब के खिलाफ युद्ध मे नागा लोगो ने शिवाजी का साथ दिया था , आज संतो के तेरह अखाड़ों मे सात सन्यासी अखाड़े (शैव) अपने अपने नागा साधू बनाते हैं :- ये हैं जूना , महानिर्वणी , निरंजनी , अटल ,अग्नि , आनंद और आवाहन आखाडा ।
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समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश

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पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी।

वे चार स्थान है : - प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है।

अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं।

युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ-अमृत स्नान और अमृतपान की बेला। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है। कुम्भ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है।
Photo: कुम्भ मेला 

पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी।

वे चार स्थान है : - प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है।

अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं।

युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ-अमृत स्नान और अमृतपान की बेला। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है। कुम्भ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है।
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