विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
मनुष्य के अंतः करण में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। जैसा वातावरण मिलेगा वह बीज रूप से वृक्ष बनने लगेंगे। अतः संग का मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। संग सांसारिक विषयों में घिरे लोगों का होगा तो वह कुसंग में बदल कर सर्वनाश का कारण बन जाएगा।
यदि संग जीवन मुक्त, ब्रह्मनिष्ठ संतों का होगा तो वह मनुष्य के उद्धार का कारण बन जाएगा। इसीलिए नारद भक्ति सूत्र में कहा है सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी कामनाओं को नियंत्रण में रखने के लिए अपना संग सुधारना होगा।
अपनी संगति सुधारो सब कुछ सुधर जाएगा। अपने अंतःकरण में कामना का बीज उत्पन्न होने से पूर्व ही सिद्ध संतों की चरण-शरण ले लो। जैसी संगति होगी वैसा ही चिंतन प्रारंभ हो जाएगा। दुःसंग से अपने साधन अर्थात् ईश्वर भक्ति के विपरीत चिंतन होने लगता है और यही चिंतन मनुष्य के मन में सांसारिक रसों के प्रति आसक्ति प्रकट कर देता है और फिर कामना की पूर्ति न होने पर मोह उत्पन्न होने लगता है। मोह ग्रसित व्यक्ति की स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। जिसके कारण उसकी बुद्धि कर्तव्य का विवेक न होने के कारण उसका सर्वनाश कर देती है।
'तरंगयिता अपीमे सगांत् समुद्रायन्ति' - यदि किसी कारण साधक, काम-क्रोध से होता हुआ बुद्धि नाश की स्थिति तक पहुंच भी जाता है तो उसके मन में सदगुरु की कृपा एवं ईश्वर की भक्ति का भाव बना रहने पर वह सर्वनाश से बच जाता है और उसे अपनी भक्ति साधना को पुनर्जीवित करने का अवसर मिल जाता है।
यही स्थिति भक्ति सूत्र को देने वाले देवर्षि नारद की भी हुई थी, क्योंकि विश्वमोहिनी से विवाह करने की कामना उन्हें बुद्धिनाश की स्थिति तक पहुंचा देती है लेकिन भगवान की करुण कृपा के फलस्वरूप वह पुनः अपने संत स्वरूप को प्राप्त हो लेते हैं। सूत्र है कि लौकिक कामना से भगवद्भक्त संत भी संत स्वरूप से लोकविषयों में फंस जाता है और प्रभु कृपा होते ही विषयों की कामना से उपराम होकर वह पुनः परमसंतत्व को प्राप्त कर अपने तत्वज्ञान से जगत का उद्धारक बन जाता है।
सत, रज और तम तीनों गुणों की साम्य अवस्था का नाम प्रकृति है। भगवान अपनी शक्ति से इसी प्रकृति द्वारा संसार की रचना करते हैं। मनुष्य का अंतः करण प्रकृति का परिणाम है इसमें यह तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। यही मनुष्य के भांति-भांति प्रकार के संस्कारों को तरंगित करते रहते हैं।
साधक इनको समझते हुए इनके प्रभाव से बचने का उपाय खोजता हैं लेकिन सिद्ध संत इन तीनों के प्रभाव से परे इन्हें साक्षी भाव से देखते हैं और इनका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए सिद्ध त्रिगुणातीत होते हैं।
ज्ञान और अज्ञान में इतना ही भेद है कि बीच में एक भ्रम का परदा लगा हुआ है। जहां परदा खुल गया, अज्ञान समाप्त हो गया, ज्ञान की ज्योति जग गई, मनुष्य जो अपने आपको भूला हुआ था, होश में आ गया कि मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? मैं क्या करने आया था और क्या करने लगा? मैं क्या लेकर आया था और मुझे क्या लेकर जाना है?
इस प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में फंसा हुआ जीव प्रकाश होते ही सत्य को देखने लगता है। यह बात अत्यंत विचारणीय है कि- हे मनुष्य, तू हंस स्वरूप हैं। जब तक तू कर्तापन के भ्रम में फंसा हुआ है कि तू नर है या नारी, बूढ़ा है या जवान है, पूजा-पाठ, क्रिया-कर्म, गीता-भागवत, रामायण, वेद शास्त्र, उपन्यास जितना मर्जी पढ़ लो लेकिन ज्ञान के बिना सब अधूरा है क्योंकि ज्ञान में ही सब लय है। अगर ज्ञान नहीं है तो सब कुछ अधूरा-सा ही लगेगा।
इसलिए हे मनुष्य! तू चेतन है, पहले अपने होश में तू आ जा। 'कहां से तू आया कहां लपटायो?'
'निर्गुण से हंस आयो, सर्गुण में समायो, काया गढ़ की बंधी माया में समाया।'
सर्गुण माने यह स्वर जो चल रहा है। निर्गुण से आकर यह स्वर में प्रवेश किया। बहुत से लोग सर्गुण इस शरीर को मानते हैं या वह जो मूर्ति प्रतिमा दिखाई देते हैं उन्हें सर्गुण मानते हैं, पर वह सर्गुण नहीं है। जो यह स्वर चल रहा है और इसका गुणों में प्रवेश है, उसे सर्गुण कहते हैं।
सर्गुण में समायो और कायागढ़ की बंधी माया में आकर डेरा डाला, मकान जो बना था उसमें डेरा डाला और जो काया से माया तक का विस्तार हुआ था इसमें तू लपटा गया तो सब कुछ भूल गया, होश नहीं रहा, फिर कोई संत मिले और चेतावनी दी कि- हे मनुष्य! तू कहां भरमा था, देख तू कौन है?
पांच तत्व में तू कोई तत्व ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश में तू कुछ भी नहीं। तू न रजो गुण है, न सतो गुण और न तमो गुण है। फिर तू क्या है? 'चेतन जीव आधार है, सोहंग आप ही आप।'
हम सबके मन में कभी न कभी यह प्रश्न आता होगा कि वास्तव में धर्म क्या है? हमारे जीवन में धर्म धारण करने का क्या उपाय है? क्या किसी मन में दीक्षित हो जाना धार्मिक बनने की पहचान है? आमतौर पर धर्म को मत-मतांतरों से जोड़ दिया गया है।
असल में धर्म बाहर की वस्तु नहीं यह भीतर का विकास है, उसे समाज में नहीं, व्यक्ति के अंतराल में ढूंढ़ा जाना चाहिए। धर्म व्यक्ति और व्यष्टि के बीच में तादाम्य की फलश्रुति है, जब कि व्यक्ति और समाज के मध्य का संबंध संप्रदाय कहलाता है। धर्म और संप्रदायवाद में उतना ही अंतर है जितना जीवन और मृत्यु। जहां धर्म होगा, वहां सर्वत्र सुगंधि बिखरती रहेगी, जहां संप्रदायवाद होगा, वहां सड़न और दुर्गंध होगी। करुणा उदारता, सेवा सहकारिता, यह तो जीवन की सहचरी और चैतन्यता के लक्षण हैं।
धर्म और संप्रदाय में यदि कोई अंतर है तो उसे उतना ही विशाल होना चाहिए जितना कि आकाश और पाताल क्योंकि धर्म हमें ऊंचाइयों के प्रति श्रद्धावान बनाता है और इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा अंतराल अहंकारपूर्ण नहीं अहंशून्य होना चाहिए। जहां अहमन्यता होगी, विवाद और विग्रह वहीं पैदा होंगे। जहां सरलता होगी वहां सात्विकता पनपेगी। सरल और सात्विक होना दैवी विभूतियां हैं। जो इन्हें जितने अंशों में धारण करता है, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे उस अनुपात में धार्मिक हैं।
इसलिए यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि धर्म हमें देवत्व की ओर ले चलता है, जबकि संप्रदाय अधोगामी भी बनाता है। कट्टरवाद, उग्रवाद यह सभी संप्रदायवाद की देन है। सांप्रादायिक होने का मतलब है कूपमंडूक होना, केवल अपने वर्ग एवं समूह की ही चिंता करना। इसके अतिरिक्त धर्म अधिक उदार बनाता तथा आत्मविस्तार का उपदेश देता है। 'आत्मवत सर्वभुतेषु एवं वसुधैव कुटुम्कबम' यह इसी की शिक्षा है।
संप्रदाय असहिष्णु होता है। वह उन्माद और आतंक फैलाता है। जाति, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर विभेद करना यह संप्रदाय का काम है। धर्म तो ईश्वर की तरह समदष्टा है वह कहता है कि हम सब को परमात्मा की रक्षा करनी चाहिए। हम इसी ऊहापोह में फंसे रहते हैं कि कहीं कोई शूद्र मंदिर के ईश विग्रह को अपवित्र न कर दे, किसी तनखैये को गुरुद्वारे में क्या काम, कोई काफिर मस्जिद में न घुसे।
हमारे मनीषियों का कहना है, ' धर्म एवं हतो हन्ति रक्षति रक्षतः' अर्थात् मरा हुआ धर्म मार डालता है, रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है। आज की सामाजिक परिस्थिति के इस सत्य के प्रमाण रूप में देखा जा सकता है। धर्म को खतरा अधर्म से नहीं, नकली धर्म से होता है। अधर्म तो प्रत्यक्ष है, इसमें दुराव- छुपाव जैसी कोई बात तो होती नहीं, खतरनाक वे है जो धर्म की आड़ लेकर काम करते हैं, क्योंकि वहां असली आवरण में नकली व्यक्ति होता है।
हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की मान्यता है देवताओं की संख्या तैंतीस कोटि बताई जाती है। देवताओं की इतनी बड़ी संख्या एक सत्य शोधक को बड़ी उलझन में डाल देती है। इन देवताओं में अनेक की तो ईश्वर से समता मानी जाने लगी है इस प्रकार 'बहुईश्वरवाद' उपज खड़ा होता है।
संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्म एक ईश्वरवाद को मानते हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों में भी अनेक अभिवचन एक ईश्वर होने के समर्थन में भरे पड़े हैं। फिर यह अनेक ईश्वर कैसे? ईश्वर की ईश्वरता में साझेदारी का होना कुछ बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होता। अनेक देवताओं का अपनी-अपनी मर्जी से मनुष्यों पर शासन करना, शाप-वरदान देना आदि ईश्वर जगत की अराजकता है।
अर्थात् बाह्यपूजा या मूर्ति पूजा सब से नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने, ऊंचा उठने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है। सबसे उच्च अवस्था वह है जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।
वेद भी कहते हैं न 'तस्य प्रतिमा अस्ति' अर्थात् ईश्वर तेरी कोई प्रतिमा नहीं है। अध्यात्म विज्ञान में महान वैज्ञानिक महर्षि पतंजलि ईश्वर को बड़ा स्पष्ट रीति से परिभाषित करते हैं। यह परिभाषा साधनों के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है, क्योंकि यह ऐसा शब्द है, ऐसा सत्य है जिसके बारे में ज्यादातर लोग भ्रमित हैं।
शास्त्र पुराण धर्म, महजब सबने मिलकर ईश्वर की अनेक धारणाएं गढ़ी हैं कोई तो उसे सातवें आसमान में खोजता है तो कोई मंदिरों पूजाग्रहों में योगेश्वर पतंजलि ने सभी तरह का सत्यनिराकरण किया है। वे कहते हैं कि पहले तो ईश्वर को किसी व्यक्तित्व में न बांधो। वह सभी बंधनों से मुक्त हैं।
जिस तरह ब्रह्मचर्य में ग्रहस्थ की, ग्रहस्थ में वानप्रस्थ की तैयारी होती है उसी तरह वानप्रस्थ में संन्यास की तैयारी होती है। तब वन के आश्रम का भी त्याग हो जाता है।- ऐसी अवस्था को ही परिवाज्रक कहा गया है।
परिव्राजक विचरण करता है। उसे ही ब्रह्म निष्ठ कहा गया है। यही मोक्ष है। संन्यास आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम की पुनरावृत्ति है। प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदों का अध्ययन करने के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।
सनातन धर्म में संन्यास को बहुत महत्व दिया गया है। संन्यासी को साधु, ऋषि, मुनि, महात्मा, स्वामी या परिव्राजक कहा जाता है। संन्यासियों के भी कई भेद बताए गए हैं, लेकिन पुराणकारों के अनुसार संन्यास आश्रम के दो भेद हैं।
संन्यास आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को पारमेष्ठिक या योगी कहा जाता है। योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने वाला तथा मोक्ष की कामना रखने वाला व्यक्ति पारमेष्ठिक संन्यासी कहलाता है। लेकिन व्यक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कर अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है, तो उसे 'योगी संन्यासी' कहा जाता है।
वैष्णव, शैव, शाक्त, दसनामी और नाथ संप्रदाय में साधुओं के अलग-अलग भेद हैं, लेकिन कहलाते सभी संन्यासी ही है। संन्यासी होने के लिए संन्यासी भाव का होना जरूरी है तभी संन्यास आश्रम मोक्षदायी सिद्ध होता है। संन्यास की श्रेष्ठ अवस्था है परमहंस हो जाना।
भारतीय परम्परा में जीवन का ध्येय पुरुषार्थ को माना गया है। धर्म का ज्ञान होना जरूरी है तभी कार्य में कुशलता आती है कार्य कुशलता से ही व्यक्ति जीवन में अर्थ अर्जित कर पाता है। काम और अर्थ से इस संसार को भोगते हुए मोक्ष की कामना करनी चाहिए।
पुरुषार्थ चार है- (1)धर्म (religion 0r righteouseness), (2)अर्थ (wealth) (3)काम (Work, desire and Sex) और (4)मोक्ष (salvation or or liberation)।
उक्त चार को दो भागों में विभक्त किया है- पहला धर्म और अर्थ। दूसरा काम और मोक्ष। काम का अर्थ है- सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। इन दो पुरुषार्थ काम और मोक्ष के साधन है- अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है।
(1)धर्म- धर्म से तात्पर्य स्वयं के स्वभाव, स्वधर्म और स्वकर्म को जानते हुए कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष के मार्ग खोलना। मोक्ष का मार्ग खुलता है उस एक सर्वोच्च निराकार सत्ता परमेश्वर की प्रार्थना और ध्यान से। ज्ञानीजन इसे ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार कहते हैं।
तटस्थों के लिए धारणा और ध्यान ही श्रेष्ठ है और भक्तों के लिए परमेश्वर की प्रार्थना से बढ़कर कुछ नहीं- इसे ही योग में ईश्वर प्राणिधान कहा गया है- यही संध्योपासना है। धर्म इसी से पुष्ट होता है। पुण्य इसी से अर्जित होता है। इसी से मोक्ष साधा जाता है।
(2)अर्थ- अर्थ से तात्पर्य है जिसके द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि की सिद्धि होती हो। भौतिक सुखों से मुक्ति के लिए भौतिक सुख होना जरूरी है। ऐसा कर्म करो जिससे अर्थोपार्जन हो। अर्थोपार्जन से ही काम साधा जाता है।
(3)काम- संसार के जितने भी सुख कहे गए हैं वे सभी काम के अंतर्गत आते हैं। जिन सुखों से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक पतन होता है या जिनसे परिवार और समाज को तकलीफ होती है ऐसे सुखों को वर्जित माना गया है। अर्थ का उपयोग शरीर, मन, परिवार, समाज और राष्ट्र को पुष्ट करने के लिए होना चाहिए। भोग और संभोग की अत्यधिकता से शोक और रोगों की उत्पत्ति होती है। दोनों के लिए ही समय और नियम नियुक्ति हैं।
(4)मोक्ष- मोक्ष का अर्थ है पदार्थ से मुक्ति। इसे ही योग समाधि कहता है। यही ब्रह्मज्ञान है और यही आत्मज्ञान भी। ऐसे मोक्ष में स्थित व्यक्ति को ही कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। हिंदूजन ऐसे को ही भगवान, जैन अरिहंत और बौद्ध संबुद्ध कहते हैं। यही मोक्ष, केवल्य, निर्वाण या समाधि कहलाता है।
योग में समाधि की दो अवस्थाएँ मानी गई है- (1) सम्प्रज्ञात और (2) असंम्प्रज्ञात समाधि। इन दोनों के उप-भेद भी है।
पुराणिकों ने इसके छ प्रकार बताए हैं- (1) सार्ष्टि (ऐश्वर्य), (2) सालोक्य (लोक की प्राप्ती), (3) सारूप (ब्रह्म स्वरूप), (4) सामीप्य (ब्रह्म के पास), (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता), (6) लीनता या सामुज्य (ब्रह्म में लीन हो जाना)। ब्रह्मलीन हो जाना ही पूर्ण मोक्ष है।
मोक्ष प्राप्त व्यक्ति की देवता, पितर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु और सामान्यजन आराधना करते हैं। उन्हें ही भगवान कहते हैं। किंतु श्रेष्ठजन सिर्फ परमेश्वर की ही आराधना करते हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि उस एक परमेश्वर को साधने से ही सब स्वत: ही सधते हैं। उसे छोड़कर और किसी को साधने से जिसे साधा जा रहा है वही सधता है ईश्वर नहीं।
'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।
संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्या काल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
यह समय मौन रहने का भी है। इस समय के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि का त्याग कर दिया जाता है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना के चार प्रकार है- (1)प्रार्थना, (2)ध्यान, (3)कीर्तन और (4)पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
(1)प्रार्थना : प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम है। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वेदों की ऋचाएँ प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएँ ही तो है। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।
(2)ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।
(3)कीर्तन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम है। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय संगीत का उल्लेख मिलता है।
(4)पूजा-आरती : पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। अत: पूजा-आरती के भी नियम है।
हिंदू कर्तव्यों में सर्वोपरी है संध्या वंदन। संध्या वंदन में सर्वश्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वंदना कहते थे। इसे करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है। आगे जानेंगे हम वैदिक प्रार्थनाओं का रहस्य।
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धूप से पाएँ जीवन में शांति
पशु, पक्षी, पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है।
सनातन धर्म ने हर एक हरकत को नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।
।।कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
कर पृष्ठे स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥
*प्रात:काल जब निद्रा से जागते हैं तो सर्व प्रथम बिस्तर पर ही हाथों की दोनों हथेलियों को खोलकर उन्हें आपस में जोड़कर उनकी रेखाओं को देखते हुए उक्त का मंत्र एक बार मन ही मन उच्चारण करते हैं और फिर हथेलियों को चेहरे पर फेरते हैं।
पश्चात इसके भूमि को मन ही मन नमन करते हुए पहले दायाँ पैर उठाकर उसे आगे रखते हैं और फिर शौचआदि से निवृत्त होकर पाँच मिनट का ध्यान या संध्यावंदन करते हैं। शौचआदि के भी नियम है।
*संध्यावंदन : शास्त्र कहते हैं कि संध्यावंदन पश्चात ही किसी कार्य को किया जाता है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे मुख्यत: संधि पाँच-आठ वक्त की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्या काल- उक्त दो वक्त की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के वक्त। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से परमेश्वर की प्रार्थना की जाती है।
*घर से बाहर जाते वक्त : घर (गृह) से बाहर जाने से पहले माता-पिता के पैर छुए जाते हैं फिर पहले दायाँ पैर बाहर निकालकर सफल यात्रा और सफल मनोकामना की मन ही मन ईश्वर के समक्ष इच्छा व्यक्त की जाती है।
*किसी से मिलते वक्त : कुछ लोग राम-राम, गुड मार्नींग, जय श्रीकृष्ण, जय गुरु, हरि ओम, साई राम या अन्य तरह से अभीवादन करते हैं। लेकिन संस्कृत शब्द नमस्कार को मिलते वक्त किया जाता है और नमस्ते को जाते वक्त।
फिर भी कुछ लोग इसका उल्टा भी करते हैं। विद्वानों का मानना हैं कि नमस्कार सूर्य उदय के पश्चात्य और नमस्ते सुर्यास्त के पश्चात किया जाता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदुओं ने अभिवादन के अपने-अपने तरीके इजाद कर लिए हैं जो की गलत है।
पशु, पक्षी, पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है। शास्त्र कहते हैं कि 'नियम ही धर्म है।'
सनातन धर्म ने हर एक हरकत को नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।
भोजन के नियम :
भोजन की थाली को पाट पर रखकर भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मौन रहने से लाभ मिलता है। भोजन भोजनकक्ष में ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मुख दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए। जल का ग्लास हमेशा दाईं ओर रखना चाहिए। भोजन अँगूठे सहित चारो अँगुलियों के मेल से करना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन का समय निर्धारित होना चाहिए।
शास्त्र कहते हैं कि योगी एक बार और भोगी दो बार भोजन ग्रहण करता है। रात्रि का भोजन निषेध माना गया है। भोजन करते वक्त थाली में से तीन ग्रास (कोल) निकाल कर अलग रखें जाते हैं तथा अँजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाएँ से बाएँ गोल घुमाकर अँगुली से जल को छोड़ दिया जाता है।
अँगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अँगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। यहाँ सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेष के लिए या मन कथन अनुसार गाय, कव्वा और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है।
भोजन के तीन प्रकार :
जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सात्विक भोजन से व्यक्ति का मन सकारात्मक सोच वाला व मस्तिष्क शांतिमय बनता है। इससे शरीर स्वस्थ रहकर निरोगी बनता है। राजसिक भोजन से उत्तेजना का संचार होता है, जिसके कारण व्यक्ति में क्रोध तथा चंचलता बनी रहती है। तामसिक भोजन द्वारा आलस्य, अति नींद, उदासी, सेक्स भाव और नकारात्मक धारणाओं से व्यक्ति ग्रसित होकर चेतना को गिरा लेता है।
सात्विक भोजन से व्यक्ति चेतना के तल से उपर उठकर निर्भिक तथा होशवान बनता है और तामसिक भोजन से चेतना में गिरावट आती है जिससे व्यक्ति मूढ़ बनकर भोजन तथा संभोग में ही रत रहने वाला बन जाता है। राजसिक भोजन व्यक्ति को जीवन पर्यंत तनावग्रस्त, चंचल, भयभीत और अति भावुक बनाए रखकर सांसार में उलझाए रखता है।
जल के नियम :
भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है। भोजन के एक घंटा पश्चात जल सेवन किया जा सकता है। भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है। दो वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वह समय के पाबंद रहें। संध्या काल के अस्त के पश्चात भोजन और जल का त्याग कर दिया जाता है।
पानी छना हुआ होना चाहिए और हमेशा बैठकर ही पानी पीया जाता है। खड़े रहकर या चलते फिरते पानी पीने से ब्लॉडर और किडनी पर जोर पड़ता है। पानी ग्लास में घुंट-घुंट ही पीना चाहिए। अँजुली में भरकर पीए गए पानी में मीठास उत्पन्न हो जाती है। जहाँ पानी रखा गया है वह स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुधरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी है।
विशेष : भोजन खाते या पानी पीते वक्त भाव और विचार निर्मल और सकारात्मक होना चाहिए। कारण की पानी में बहुत से रोगों को समाप्त करने की क्षमता होती है और भोजन-पानी आपकी भावदशा अनुसार अपने गुण बदलते रहते हैं।
माता लक्ष्मीजी के पूजन की सामग्री अपने सामर्थ्य के अनुसार होना चाहिए। इसमें लक्ष्मीजी को कुछ वस्तुएँ विशेष प्रिय हैं। उनका उपयोग करने से वे शीघ्र प्रसन्न होती हैं। इनका उपयोग अवश्य करना चाहिए। वस्त्र में इनका प्रिय वस्त्र लाल-गुलाबी या पीले रंग का रेशमी वस्त्र है।
माताजी को पुष्प में कमल व गुलाब प्रिय है। फल में श्रीफल, सीताफल, बेर, अनार व सिंघाड़े प्रिय हैं। सुगंध में केवड़ा, गुलाब, चंदन के इत्र का प्रयोग इनकी पूजा में अवश्य करें। अनाज में चावल तथा मिठाई में घर में बनी शुद्धता पूर्ण केसर की मिठाई या हलवा, शिरा का नैवेद्य उपयुक्त है। प्रकाश के लिए गाय का घी, मूँगफली या तिल्ली का तेल इनको शीघ्र प्रसन्न करता है। अन्य सामग्री में गन्ना, कमल गट्टा, खड़ी हल्दी, विल्वपत्र, पंचामृत, गंगाजल, ऊन का आसन, रत्न आभूषण, गाय का गोबर, सिंदूर, भोजपत्र का पूजन में उपयोग करना चाहिए।
तैयारी
चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियाँ इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व या पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी की दाहिनी ओर रहें। पूजनकर्ता मूर्तियों के सामने की तरफ बैठें। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है।
दो बड़े दीपक रखें। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अतिरिक्त एक दीपक गणेशजी के पास रखें।
मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएँ। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियाँ बनाएँ। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियाँ बनाएँ। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएँ।
इसके बीच में सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचोंबीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। थालियों की निम्नानुसार व्यवस्था करें- 1. ग्यारह दीपक, 2. खील, बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चन्दन का लेप, सिन्दूर, कुंकुम, सुपारी, पान, 3. फूल, दुर्वा, चावल, लौंग, इलायची, केसर-कपूर, हल्दी-चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती, एक दीपक।
इन थालियों के सामने यजमान बैठे। आपके परिवार के सदस्य आपकी बाईं ओर बैठें। कोई आगंतुक हो तो वह आपके या आपके परिवार के सदस्यों के पीछे बैठे।
चौकी
(1) लक्ष्मी, (2) गणेश, (3-4) मिट्टी के दो बड़े दीपक, (5) कलश, जिस पर नारियल रखें, वरुण (6) नवग्रह, (7) षोडशमातृकाएँ, (8) कोई प्रतीक, (9) बहीखाता, (10) कलम और दवात, (11) नकदी की संदूकची, (12) थालियाँ, 1, 2, 3, (13) जल का पात्र, (14) यजमान, (15) पुजारी, (16) परिवार के सदस्य, (17) आगंतुक।
पूजा की संक्षिप्त विधि
सबसे पहले पवित्रीकरण करें।
आप हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा सा जल ले लें और अब उसे मूर्तियों के ऊपर छिड़कें। साथ में मंत्र पढ़ें। इस मंत्र और पानी को छिड़ककर आप अपने आपको पूजा की सामग्री को और अपने आसन को भी पवित्र कर लें।
अब आचमन करें
पुष्प, चम्मच या अंजुलि से एक बूँद पानी अपने मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ केशवाय नमः
और फिर एक बूँद पानी अपने मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ नारायणाय नमः
फिर एक तीसरी बूँद पानी की मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ वासुदेवाय नमः
फिर ॐ हृषिकेशाय नमः कहते हुए हाथों को खोलें और अंगूठे के मूल से होंठों को पोंछकर हाथों को धो लें। पुनः तिलक लगाने के बाद प्राणायाम व अंग न्यास आदि करें। आचमन करने से विद्या तत्व, आत्म तत्व और बुद्धि तत्व का शोधन हो जाता है तथा तिलक व अंग न्यास से मनुष्य पूजा के लिए पवित्र हो जाता है।
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आचमन आदि के बाद आँखें बंद करके मन को स्थिर कीजिए और तीन बार गहरी साँस लीजिए। यानी प्राणायाम कीजिए क्योंकि भगवान के साकार रूप का ध्यान करने के लिए यह आवश्यक है फिर पूजा के प्रारंभ में स्वस्तिवाचन किया जाता है। उसके लिए हाथ में पुष्प, अक्षत और थोड़ा जल लेकर स्वतिनः इंद्र वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए परम पिता परमात्मा को प्रणाम किया जाता है। फिर पूजा का संकल्प किया जाता है। संकल्प हर एक पूजा में प्रधान होता है।
संकल्प - आप हाथ में अक्षत लें, पुष्प और जल ले लीजिए। कुछ द्रव्य भी ले लीजिए। द्रव्य का अर्थ है कुछ धन। ये सब हाथ में लेकर संकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए कि मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर अमुक देवी-देवता की पूजा करने जा रहा हूँ जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हों। सबसे पहले गणेशजी व गौरी का पूजन कीजिए। उसके बाद वरुण पूजा यानी कलश पूजन करनी चाहिए।
हाथ में थोड़ा सा जल ले लीजिए और आह्वान व पूजन मंत्र बोलिए और पूजा सामग्री चढ़ाइए। फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लीजिए और नवग्रह स्तोत्र बोलिए। इसके बाद भगवती षोडश मातृकाओं का पूजन किया जाता है। हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प ले लीजिए। सोलह माताओं को नमस्कार कर लीजिए और पूजा सामग्री चढ़ा दीजिए।
सोलह माताओं की पूजा के बाद रक्षाबंधन होता है। रक्षाबंधन विधि में मौली लेकर भगवान गणपति पर चढ़ाइए और फिर अपने हाथ में बँधवा लीजिए और तिलक लगा लीजिए। अब आनंदचित्त से निर्भय होकर महालक्ष्मी की पूजा प्रारंभ कीजिए।
खुद का ट्रीटमेंट यानी हम खुद जानें कि हमारी समस्या क्या है? इसे हम आत्मसम्मोहन व आत्मचिंतन भी कह सकते हैं। इसकी मदद से आपके शरीर तथा दिमाग दोनों सही परिणाम देने लगेंगे। हालांकि निगेटिव विचार तनावपूर्ण परिस्थितियों की देन होते हैं, लेकिन आप अपने अंदर संतुलन पैदा कर आत्म सुझावों द्वारा उनका सामना कर सकते हैं।
इसके लिए कुछ लोग मंत्रों को मन ही मन पढ़ते या फिर बोलकर उच्चारण भी करते हैं, ताकि मन को शांति एवं नई दिशा व सजगता मिल सके। मंत्रों के शब्द मन के अंदर एक जबर्दस्त पवित्र छाप छोड़ते हैं। ये शब्द दिलो-दिमाग पर गूंजते हैं, जिससे पूरा शरीर प्रभावित होता है।
अब जब संतुलन ही अहम चीज है, तो यहां हम कुछ ऐसी बातों का जिक्र करने जा रहे हैं, जिन पर अमल कर शुरू से ही आप अपने शरीर को संतुलित और स्वस्थ बना सकते हैं। आयुर्वेद ने इस संबंध में एक प्रणाली का उल्लेख किया हुआ है, जिसे हम सेल्फ रेफरल कहते हैं। सेल्फ-रेफरल का मतलब है- अपने अंदर झांकना या आत्मनिरीक्षण करना और फिर आत्मचिंतन करना।
जब आपको सुख का अनुभव हो, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन कर रहे हैं और जब डर, चिंता, नाराजगी- जैसे भाव आने लगें, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन से बाहर आ गए हैं और आप वस्तु चिंतन कर रहे हैं, क्योंकि इन भावनाओं की उत्पत्ति का कारण ही वस्तु-चिंतन है। और वस्तु चिंतन कुंठा एवं मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण होता है। इससे न सिर्फ सफलता की राह में रुकावट आती है, बल्कि आपके शरीर को कहीं न कहीं नुकसान भी पहुंचता है।
मनुष्य लगभग 10 हजार तरह की गंधों को पहचान सकता है और गंध संबंधी कोशिकाएं नाक के अंदर मौजूद झिल्ली पर होती हैं। यही कोशिकाएं गंध संबंधी खबर सीधे मस्तिष्क के अंदर स्थित हाइपोथैलमस के पास भेजती है। हाइपोथैलमस मस्तिष्क का एक बहुत छोटा-सा भाग है, मगर वह शरीर की दर्जनों प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार होता है।
जैसे- शरीर का तापमान, प्यास, खून में शर्करा का स्तर, विकास, नींद, जागना, भावनाएँ और पाचन। इस तरह गंध की कोई खबर सबसे पहले हाइपोथैलमस को प्रभावित कर, उसकी कार्य विधियों को सही रखती है।
ऐसे में खास-खास किस्म की गंधों के जरिए तीनों दोषों (वात, कफ, पित्त) को भी संतुलित किया जा सकता है। जैसी तुलसी, संतरा-मौसंबी और लौंग की गंध वात को प्रभावित करती है, वैसे ही चंदन, गुलाब, पुदीना और दालचीनी की मीठी-ठंडी खुशबू से पित्त संतुलित रहता है। और लौंग, काली मिर्च, मिंट आदि की गंध कफ को संतुलित करती है। अन्य जरूरतों के लिए भी कई गंधों के मिश्रण तैयार किए जा सकते हैं।
एक तरह से देखा जाए, तो आपका शरीर हमेशा उस वातावरण को ग्रहण करता रहता है, जिसमें आप रहते हैं और यह कार्य आपकी इंद्रियां करती हैं। लिहाजा, शारीरिक संतुलन के लिए शरीर का मन से संतुलन बनाए रखना भी जरूरी होता है। इसके लिए आत्म-सम्मोहन विधि सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होती है।
इसके अनुसार आत्म-सम्मोहन के दौरान ओंकार संगीतमय ध्वनि से आपके शरीर और दिमाग का संतुलन तो ठीक होता ही है, इर्द-गिर्द का वातावरण भी संतुलित होता है। इसमें कोई शक नहीं कि ध्वनि का मन और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
बिस्तर पर जाने से पहले या फिर तनाव की स्थिति में संगीत सुनने से मन आत्मचिंतन की प्रेरणा पाता है और प्रतिदिन आत्म-सम्मोहन के सफल अभ्यास से नकारात्मक भावनाएं दूर होती हैं और शरीर व मन स्वस्थ हो जाता है।
इसके लिए आवश्यक है कि अनुभवी व जानकार सम्मोहन चिकित्सक से 7 से 10 दिन तक लगातार सम्मोहन की विधि सीखी जाए। जो लोग एक या दो दिन में सिखाने का दावा करते हैं वे केवल इस विधि का आपको प्रारंभिक ज्ञान दे सकते हैं, इसके वास्तविक लाभ का अनुभव नहीं करा सकते।