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भारतवर्ष में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सभी जगह असंख्य शिवलिंग एवं शिवालय हैं। शायद ही ऐसा कोई शहर या गांव हो, जहां शिवलिंग किसी ना किसी रूप मे विराजमान न हों। शिवलिंग पूजन का विधान प्राचीनकाल से ही रहा है। इसके प्रमाण हड़प्पा सभ्यता से भी मिलते हैं। रोम और यूनान मे भी क्रमशः 'प्रियेपस' और 'फल्लूस' नाम से लिंग पूजा होती थी।
चीन और जापान के प्राचीन साहित्य में भी लिंगपूजा के साक्ष्य मिलते हैं। यहूदियों के देवता 'बेलफेगो' की पूजा भी लिंग रूप में होती थी। वैदिक साहित्य में भी शिव की उपासना का सर्वाधिक वर्णन लिंगरूप में ही हुआ है। अधिकतर लिंग मूर्तियां मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाती हैं, तथा लिंग के निचले हिस्से को पीठ रूप में स्थित रखा जाता है, जो कि योनि का रूप माना जाता है। वास्तव में शिवलिंग सृष्टि की उतपत्ति का मूल कारण पुरूष और प्रकृति का प्रतीक है। शिवलिंग पूजन का रहस्य समझने के लिए शिवलिंगों के विविध रूपों को जानना परमावश्यक है।
बाणलिंग : यह शिवलिंग नर्मदा नदी के गर्भ से प्राकृतिक रूप में मिलते हैं, जिन्हें नर्मदेश्वर भी कहा जाता है।
मानुषलिंग : यह शिवलिंग मनुष्य द्वारा स्वयं तैयार किए जाते हैं तथा इनका निचला भाग चैकोर होता है।
मुखलिंग : ऐसे शिवलिंगों मे पूजा के भाग पर मुखों की आकृतियां बनी होती हैं, जिनकी संख्या पांच तक हो सकती है।
गंगाधर मूर्ति : इनमें शिव की जटाओं में गंगा का निवास प्रदर्शित किया जाता है।
अर्द्धनारीश्वर मूर्ति : इनमें पुरूष एवं प्रकृति का मिश्रित रूप दर्शाया जाता है। इसका बायां भाग नारी तथा दायां भाग पुरूष का होता है।
कल्याण सुंदर मूर्ति : इसमें शिव-पार्वती के विवाह का दृश्य प्रकट होता है।
हरिहर मूर्ति : इनमें श्रीविष्णु एवं शिव का मिश्रित रूप होता है। बायां भाग श्रीविष्णु (हरि) का तथा दायां भाग शिवजी (हर) का होता
है।
महेश मूर्ति : ये मूर्तियां दो प्रकार की होती हैं। तीन सिरों वाली अथवा पांच सिरों वाली।
धर्म मूर्ति : इनमें चार मुख एवं हाथ होते हैं।
भिक्षाटन मूर्ति : इनमें शिव के बाएं हाथ में कंकाल एवं ध्वज तथा दाएं हाथ में भिक्षापात्र (खप्पर) होता है।
एकपद मूर्ति : इनमें शिवजी एक पांव पर खड़े होते हैं।
शिव और पार्वती संपूर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। शिवलिंग की पूजा उसके आधार पीठ के बिना नहीं की जाती है। शिवलिंग में लिंग को शिव तथा आधार पीठ को पार्वती का रूप माना जाता है। शिवलिंग के आधार पीठ (जलधारी) का झुकाव हमेशा उत्तर दिशा की ओर होता है। अतः शिवलिंग का एक रहस्य दिशाबोध भी है। जलाधारी को पांव का रूप माना जाता है, इसलिए इसमें शयन की स्थिति का ज्ञान होता है। वैदिक संस्कृति में सोते समय सिर दक्षिण दिशा की ओर तथा पांव उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए। प्रातः काल शिवलिंग की पूजा करते समय श्रद्धालु को इस प्रकार खड़े होना चाहिए कि जलाधारी उसके बाएं हाथ पर हो। यह शिव के उगते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं तथा प्रदोषकाल (सायंकाल) में पूजन करते समय जलाधारी का झुकाव दाएं हाथ की ओर होना चाहिए, यह शिव के डूबते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं।
अधिकतर मंदिरों में पूर्वमुखी अथवा पश्चिममुखी लिंग के दर्शन होते हैं। दक्षिणमुखी लिंग महाकाल का प्रतीक होता है। इसी प्रकार पांचमुखी शिवलिंग को पशुपतिनाथ कहा जाता है। शिवलिंग की पूजा भक्त की आवश्यकता के अनुसार किसी दिशा में बैठ कर की जा सकती है। शिव के पांच मुखों के नाम इस प्रकार हैं -
पूर्वामुख शिव : सोजात शिव। यह सृष्टि के निर्माता होते है।
पश्चिमीमुख शिव : अघोर शिव। यह सृष्टि के संहारकर्ता हैं।
उत्तरमुखी शिव : कामदेव शिव। यह सृष्टि के पालनकर्ता हैं।
दक्षिणमुखी शिव : तत्पुरूष शिव यह मुक्तिदाता होते हैं।
उर्ध्वमुखी शिव : ईशानदेव शिव। यह कृपाकर्ता हैं। प्राचीनकाल से ही प्रकृति की पूजा भिन्न-भिन्न रूपों में की जाती रही है, जिसके प्रमाण हमें सिंधु एवं वैदिक संस्कृति से प्राप्त होते हैं। कालिदास के शब्दों में शिवत्व के आठ भेद बताए गए हैं - जल, अग्नि, वायु, ध्वनि, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी एवं पर्वत। इन्हीं आठों का सम्मिश्रण प्रत्येक शिवलिंग में विराजमान रहता है। अतः एक शिवलिंग उपासना से प्रकृति के सभी रूपों का पूजन स्वतः ही हो जाता है।
चीन और जापान के प्राचीन साहित्य में भी लिंगपूजा के साक्ष्य मिलते हैं। यहूदियों के देवता 'बेलफेगो' की पूजा भी लिंग रूप में होती थी। वैदिक साहित्य में भी शिव की उपासना का सर्वाधिक वर्णन लिंगरूप में ही हुआ है। अधिकतर लिंग मूर्तियां मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाती हैं, तथा लिंग के निचले हिस्से को पीठ रूप में स्थित रखा जाता है, जो कि योनि का रूप माना जाता है। वास्तव में शिवलिंग सृष्टि की उतपत्ति का मूल कारण पुरूष और प्रकृति का प्रतीक है। शिवलिंग पूजन का रहस्य समझने के लिए शिवलिंगों के विविध रूपों को जानना परमावश्यक है।
बाणलिंग : यह शिवलिंग नर्मदा नदी के गर्भ से प्राकृतिक रूप में मिलते हैं, जिन्हें नर्मदेश्वर भी कहा जाता है।
मानुषलिंग : यह शिवलिंग मनुष्य द्वारा स्वयं तैयार किए जाते हैं तथा इनका निचला भाग चैकोर होता है।
मुखलिंग : ऐसे शिवलिंगों मे पूजा के भाग पर मुखों की आकृतियां बनी होती हैं, जिनकी संख्या पांच तक हो सकती है।
गंगाधर मूर्ति : इनमें शिव की जटाओं में गंगा का निवास प्रदर्शित किया जाता है।
अर्द्धनारीश्वर मूर्ति : इनमें पुरूष एवं प्रकृति का मिश्रित रूप दर्शाया जाता है। इसका बायां भाग नारी तथा दायां भाग पुरूष का होता है।
कल्याण सुंदर मूर्ति : इसमें शिव-पार्वती के विवाह का दृश्य प्रकट होता है।
हरिहर मूर्ति : इनमें श्रीविष्णु एवं शिव का मिश्रित रूप होता है। बायां भाग श्रीविष्णु (हरि) का तथा दायां भाग शिवजी (हर) का होता
है।
महेश मूर्ति : ये मूर्तियां दो प्रकार की होती हैं। तीन सिरों वाली अथवा पांच सिरों वाली।
धर्म मूर्ति : इनमें चार मुख एवं हाथ होते हैं।
भिक्षाटन मूर्ति : इनमें शिव के बाएं हाथ में कंकाल एवं ध्वज तथा दाएं हाथ में भिक्षापात्र (खप्पर) होता है।
एकपद मूर्ति : इनमें शिवजी एक पांव पर खड़े होते हैं।
शिव और पार्वती संपूर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। शिवलिंग की पूजा उसके आधार पीठ के बिना नहीं की जाती है। शिवलिंग में लिंग को शिव तथा आधार पीठ को पार्वती का रूप माना जाता है। शिवलिंग के आधार पीठ (जलधारी) का झुकाव हमेशा उत्तर दिशा की ओर होता है। अतः शिवलिंग का एक रहस्य दिशाबोध भी है। जलाधारी को पांव का रूप माना जाता है, इसलिए इसमें शयन की स्थिति का ज्ञान होता है। वैदिक संस्कृति में सोते समय सिर दक्षिण दिशा की ओर तथा पांव उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए। प्रातः काल शिवलिंग की पूजा करते समय श्रद्धालु को इस प्रकार खड़े होना चाहिए कि जलाधारी उसके बाएं हाथ पर हो। यह शिव के उगते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं तथा प्रदोषकाल (सायंकाल) में पूजन करते समय जलाधारी का झुकाव दाएं हाथ की ओर होना चाहिए, यह शिव के डूबते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं।
अधिकतर मंदिरों में पूर्वमुखी अथवा पश्चिममुखी लिंग के दर्शन होते हैं। दक्षिणमुखी लिंग महाकाल का प्रतीक होता है। इसी प्रकार पांचमुखी शिवलिंग को पशुपतिनाथ कहा जाता है। शिवलिंग की पूजा भक्त की आवश्यकता के अनुसार किसी दिशा में बैठ कर की जा सकती है। शिव के पांच मुखों के नाम इस प्रकार हैं -
पूर्वामुख शिव : सोजात शिव। यह सृष्टि के निर्माता होते है।
पश्चिमीमुख शिव : अघोर शिव। यह सृष्टि के संहारकर्ता हैं।
उत्तरमुखी शिव : कामदेव शिव। यह सृष्टि के पालनकर्ता हैं।
दक्षिणमुखी शिव : तत्पुरूष शिव यह मुक्तिदाता होते हैं।
उर्ध्वमुखी शिव : ईशानदेव शिव। यह कृपाकर्ता हैं। प्राचीनकाल से ही प्रकृति की पूजा भिन्न-भिन्न रूपों में की जाती रही है, जिसके प्रमाण हमें सिंधु एवं वैदिक संस्कृति से प्राप्त होते हैं। कालिदास के शब्दों में शिवत्व के आठ भेद बताए गए हैं - जल, अग्नि, वायु, ध्वनि, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी एवं पर्वत। इन्हीं आठों का सम्मिश्रण प्रत्येक शिवलिंग में विराजमान रहता है। अतः एक शिवलिंग उपासना से प्रकृति के सभी रूपों का पूजन स्वतः ही हो जाता है।