दशनामियों के दो अंग होते है

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दशनामियों के दो अंग होते है शस्त्रधारी व अस्त्रधारी,शस्त्रधारी शस्त्रों आदि का अध्यन करके अपना अध्यातिमिक विकास करते है व अस्त्रधारी अस्त्रादि में कुशलता प्राप्त करते है ।
इन नागा सन्यासियों का धार्मिक ही नही राजनैतिक महत्व भी है इनकी स्थापना जिन उद्देश्य को लेकर हई थी उनमें इन्होने अपने पराक्रम साहस का अभूतपूर्व परिचय दिया,उत्तर मुगलकालीन भारत में इन नागे सन्यासियों ने अपने सैनिक कार्य में ख्याति पाई ही साथ ही उन्होने उस समय के वाणिज्य व्यवसाय में भी अच्छा हाथ बंटाया व्यापारिक केन्द्रों में अपने मठ स्थापित किये, नागा संन्यासियों ने राजनैतिक एंव व्यवसायिक दोनो ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किये ।
सनातन धर्म की रक्षा के लिए ही नागा सन्यासियों का जन्म हुआ यह सब आप पढ चुके है अत्याचारी व हिन्दु का दमन करने वाले मुस्लिम शासको के साथ इन्होने कठिन से कठिन लडाइयां लडी ...............

कुछ प्रमुख युद्व इस प्रकार है काशी के ज्ञानवापी का युद्व -
1664 ई0 में औरंगजेब ने काशी ज्ञानवापी एंव विश्वनाथ के मन्दिर पर आक्रमण करके अपने सेनापति मिर्जा अली तुंरग खां एंव अब्दुल अली को विशाल सेना के साथ काशी भेजा, इस आक्रमण के भय से काशी में सर्वत्र हाहाकार मच गया जो रक्षा कर सकते थे वह भी आक्रमण्कारियों के साथ मिल गये ऎसे में नागा सन्यासियों ने अपने शस्त्रों के भयानक प्रराहों से उनको पूर्णतया पराजित कर वहां से भगा दिया इस युद्व में नागा सन्यासियों ने विश्वनाथ की गद्दी की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रख औरगजेब की सेना पर विजय प्राप्त की खुद को योद्वा प्रमाणित कर महान यश को प्राप्त किया ।

औरंगज़ेब के आतातायी सेनापतियो ने हरिद्वार तीर्थ की पवित्रता को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया तो पंचायती अखाडा के महानिवार्णी के नागा सन्यासियों ने अपने नेताओं के साथ हरिद्वार पहुँच कर आक्रमणकारियों से युद्व करने के लिए शंखनाद किया और अपना झंडा तथा निशान स्थापित करके मुगलसेना का संहार करना आरम्भ कर दिया इसमें मराठा सेना ने भी उनका साथ दिया इस तरह नागाओ

ने हरिद्वार की रक्षा की ।
पुष्कर राजतीर्थ की रक्षा -पुष्कर के दोना पवित्र तीर्थो पर मुसलमान गुजरों की खानाबदोश लुटेरी जाति ने अधिकार करके उसकी पवित्रता को नष्ट करने का प्रयत्न किया लेकिन उसी समय दशनाम नागा सन्यासियों के एक दल ने आक्रमण करके उन गुजरों को पराजित करके वहां से भगा दिया व पुष्कर नगर ब्राहृमणों को सौप दिया ।
जिस समय मुगलों के शाही तक्ष्त पर अहमदशाह बैठा था उसन अवध के नवाब सफदर जंग को अपना वजीर बनाया था ।इस नियुक्ति के कारण ही बंगश अफगान उसके विरोधी हो गये वह जनता पर निरंतर अत्याचार करके भंयकर आपत्ति का सृजन कर रहे थे ऎसी परिस्थितियों में अखाडे के नागा सन्यासियों के द्वारा ही नगर एवं जनता की रक्षा हई ।श्री राजेन्द्रगिरी उस समय नागा सन्यासयों की विशाल सेना के के अधिनायक थे उन्होने बंगश अफगानो को देखकर ही दुर्ग-रक्षक की याचना पर उसको भी अफगानों के भय से मुक्त किया ।राजेन्द्र गिरी, उमराव गिरी, अनूपगिरी ,एतबारपुरी ,नीलकण्ठ गिरी आदि के नेतृत्व में सनातन धर्म की रक्षा प्रकट होती रही ।जिन राजाओ को इनकी सहायता मिलती थी बदले में उन राजाआ द्वारा इन्हे वार्षिक अनुदान का लाभ भी मिलता था।इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही देशी राज्यों को इन नागा सन्यासियों न सहायता दी थी नागा सन्यासियों ने ही राजपुत सेना के दोष दुर करने सहायता की थी इसके साथ ही इनकी सेना को स्थिरता भी प्रदान की थी इनके इन योगदानों को कतिपय भुलाया नही जा सकता ।
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swami rupeshwaranand

मै ऐसा देश देखना चाहता हुं , यह शरीररुपी वस्त्र त्यागने के पुर्व --
1- जिसे देश में घर घर गौ माता प्रेम के साथ दिखाई दे
2- जिस देश क झंडा हर घर पर भगवा फ़हराता हुआ दिखाई दे
3- जिस देश में गंगा,यमुना आदि नदियों का पावन जल निर्मल झर झर बहता हुआ दिखाई दे
4- जिस देश में प्रात: सुर्य को अर्घ्य देते हुए लोग दिखाई दे
5- जिस देश में सायं को सभी मंदिरों में आरती के समय भीड दिखाई दे
6- जिस देश में लोग और छोटे छोटे संस्कृत बोलते हुए जगह जगह दिखाई दे। अंग्रेजी का कही नाम न हो ।
7- जिसे देश में लोग सुन्दर साफ़ सुथरे स्वदेशी वेषभुषा वस्त्र पहने लोग कार्य करते हुए दिखाई दे
8- जिस देश का किसान बैलों से खेती करते हुए दिखाई दे
9- जिस देश का युवा अखाडे में कसरत करता हुआ दिखाई दे (क्रिकेट नही )
10- जिसे देश में एक भी म्लेच्छ दिखाई न दे ( म्लेच्छ माने मुल्ले )
11- जिस देश का नेता शास्त्री जी की तरह सादगी से जीवन जीता हुआ और लोगों के बीच पैदल भ्रमण करता हुआ दिखाई दे
12- जिस देश में साधू संत गंगा किनारे छोटी छोटी कुटिया डालकर भजन करते हुए दिखाई दे
13- जब सायं को गांव के ग्रामीण वृध्द पीपल के नीचे बैठे हुए रामचरित मानस पढते हुए दिखाई दे
14- जिस देश की नारीयों के चेहरे पर श्रृंगार के सौंदर्य की जगह शील, लज्जा और शालीनता का भाव दिखाई दे और जो स्वदेशी वेषभुषा में हो ………।

शायद मै आप लोगों को भुतकाल में ले गया ????? लेकिन

यह कुछ मेरे मन में भावनाएं है कि, मुझे मेरा देश ऐसा दिखाई दे । परन्तु लगता है मेरा यह भाव एक सपना बनकर ही रह जायेगा ।..................swami rupeshwaranand
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गोस्वामी का मतलब

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गोस्वामी का मतलब:
गो का एक अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इस तरह गोस्वामी का मतलब हुआ जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो। शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में गोसॉंईं शब्द की व्याख्या इसी अर्थ में की जाती है।

शैव गोस्वामी शंकराचार्य के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाते हैं। ये मठवासी भी होते हैं और घरबारी भी। इसी तरह वैष्णवों में भी होता है। ये लोग मठों –अखाड़ों में रहते हैं और पर्वों पर तीर्थ स्थलों पर एकत्रित होते हैं। वल्लभकुल, निम्बार्क और मध्व सम्प्रदायों के आचार्य भी यह पदवी लगाते है। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के शासनकाल में शैव गोसाइयों ने शस्त्र धारण कर लिए थे। ये लोग मराठों की फौज में भी भर्ती हुए थे।
वैराग्य धारण करने के बाद साधु हो जाने के बावजूद जो लोग पुनः ग्रहस्थाश्रम में लौट आते हैं उनके वंशजों को भी गोसॉंईं या गुसॉंईं कहा जाता है।

भारतीय समाज में गो अर्थात गाय की महत्ता जगजाहिर है। खास बात ये कि तीज-त्योहारों, व्रत-पूजन और धार्मिक अनुष्ठानों के चलते हमारे जन-जीवन में गोवंश के प्रति आदरभाव उजागर होता ही है मगर भाषा भी एक जरिया है जिससे वैदिक काल से आजतक गो अर्थात गाय के महत्व की जानकारी मिलती है। हिन्दी में एक शब्द है गुसैयॉं, जिसका मतलब है ईश्वर या भगवान। इसी तरह गुसॉंईं और गोसॉंईं शब्द भी हैं ।

ये सभी शब्द बने हैं संस्कृत के गोस्वामिन् से जिसका अर्थ हुआ गऊओं का मालिक अथवा गायें रखनेवाला। वैदिक काल में गाय पालना प्रतिष्ठा व पुण्य का काम समझा जाता था। जिसके पास जितनी गायें, उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा। यह इस बात का भी प्रतीक था कि व्यक्ति सम्पन्न है। कालांतर में गोस्वामिन् शब्द गोस्वामी और बाद में गोसॉंईं के रूप में समाज के धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए प्रचलित हो गया। इसी आधार पर साधु-संतों के मठों और आश्रमों का भी आकलन होने लगा। साधु-संतों के नाम के आगे गोसॉंईं लगाना आम बात हो गई। मराठी में गोस्वामी हो जाता है गोसावी।
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महाकुंभ शाही स्नान में संघर्ष का इतिहास

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शाही स्नान के वक्त तमाम अखा़ड़ों एवं साधुओं के संप्रदायों के बीच मामूली कहासुनी भी खूनी संघर्ष के रूप में तब्दील हो जाती है। इसका पुराना इतिहास है। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसे हादसों का पूरा एक इतिहास रहा है। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं।

वर्ष 1760 में शैव सन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुम्भ में शैव संयासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। 1927 में बैरीकेडिंग टूटने से काफी बड़ी दुर्घटना हो गई थी। वर्ष 1986 में भी दुर्घटना के कारण कई लोग हताहत हो गए। 1998 में हर की पौड़ी में अखाड़ों के बीच संघर्ष हुआ था। 2004 के अर्धकुंभ मेले में एक महिला से पुलिस द्वारा की गई छेडछाड़ ने जनता, खासकर व्यापारियों को सड़क पर संघर्ष के लिए मजबूर कर दिया। जिसमें एक युवक की मौत हो गई।
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श्री दूधेश्वरनाथ महादेव

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श्री दूधेश्वरनाथ महादेव का अद्भुत दिव्य प्राचीनतम सिद्धपीठ गाजियाबाद (गाजियाबाद उत्तर प्रदेश) मे है। यहा पर अति प्राचीन श्री दूधेश्वर महादेव का बड़ा ही अद्भुत दिव्य मन्दिर है जो कि दर्शनीय है और जिसके दर्शन पूजन करने से सुख शान्ति का अनुभव होता है।

लगभग साढ़े पाच सौ वर्ष पहले की बात होगी कि कोड़ नामक ग्राम मे बड़े ही महान्‌ उच्चकोटि के पहुचे हुए जूना अखाड़ा के एक जटिल दशनमी सन्यासी सिद्ध महात्मा रहा करते थे। उन्हे स्वप्न मे भगवान श्री शकर जी महाराज ने कृपा करके दर्शन दिया और उन्हे इस स्थान पर आने का आदेश दिया। भगवान्‌ का आदेश पाकर अपने शिष्यो सहित गरीब गिरि जी यहा आ गये। वह यहा रहकर भगवान्‌ श्री शकर जी की पूजा, आराधना, तपस्या करने लगे।

कुछ दिनो के पश्चात्‌ पूज्य प्रात: स्मरणीय गोब्राह्मण प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज अपने लश्कर के साथ अकस्मात्‌ इधर आ निकले। आपने यहा पर भगवान्‌ श्री दूधेश्वर जी महाराज,विश्वेश्रवा के कैलास की प्रसिद्धि और प्रशसा सुनी। आप तो एक कट्‌टर सनातनधर्मी परमआस्तिक ठहरे। आपका सारा जीवन ही देव-मन्दिरो की रक्षा के लिए समर्पित था। भला, ऐसा सुअवसरहाथ से कैसे जाने देते ?

आप बड़ी श्रद्धा-भक्ति से अपने साथ के अपने अन्य मराठे सैनिको सहित इस स्थान पर पधारे और श्री दूधेश्वर महादेव का दर्शन किया, पूजन किया और यहा पररहने वाले सत-महात्माओ का सत्सग किया। आप भला ऐसे दिव्य स्थान को इस प्रकार की जीर्ण-शीर्ण अवस्था मे कैसे देख सकते थे ? उन्होने पूज्य सत महात्माओ की आज्ञानुसार, सनातनधर्म और शास्त्रानुसार पूर्ण विधि-विधान से पूज्य वेदपाठी ब्राह्मणो द्वारा श्री शिव मन्दिर की स्थापना कराई। शिवाजी महाराज के द्वारा सविधि-शास्त्रानुसार मन्दिर की स्थापना से मन्दिर की औरभी महत्ता बढ़ गई।
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शंकराचार्य का जन्म

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वेदांत के आदि गुरु श्री आद्य शंकराचार्य का जन्म लगभग 11 शताब्दी पूर्व त्रावणकोर के एक मलयाली ब्राह्मण के घर हुआ था. वे बहुत छोटे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. बचपन में ही उन्होंने वेदों और वेदांगों का पूरा अध्ययन कर लिया. उनके मन में सन्यस्त होने की बड़ी ललक थी और किसी गुरु की खोज में उन्होंने अपनी माता से घर त्यागने कीआज्ञा माँगी परन्तु माँ ने उन्हें हमेशा मना कर दिया.

उनके बारे में एक कथा यह भी कहती है कि नदी में एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया और उन्होंने अपनी माता को अपनी मृत्यु के साक्षात् दर्शन कराकर संन्यास के लिए अनुमति देनेपर विवश कर दिया परन्तु अधिकांश विद्वान इसे कहानी मात्र ही मानते हैं. वास्तविकता में एक दिन जब उन्होंने पुनः अपनी माता से संन्यास के लिए अनुमति माँगी तो माँ ने दुखी होकर उनसे कहा – “तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो. तुम्हारे संन्यास ले लेने के बाद मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?”

बालक शंकर ने माँ को वचन दिया कि वे जहाँ भी होंगे, माँ का अंतिम संस्कार करने अवश्य आयेंगे.

मलयाली ब्राम्हणों ने शंकर के इस निर्णय का घोर विरोध किया. उनके अनुसार एक ब्रह्मचारी को संन्यास लेने का और संन्यासी को अंतिम संस्कार करने का कोई अधिकार नहीं था. लेकिन शंकर ने उनकी एक न सुनी. सभी उनसे रुष्ट हो गए और उन्हेंजाति से बहिष्कृत कर दिया गया.

जब शंकर की माँ की मृत्यु हुई तो ब्राह्मण समाज का कोई भी व्यक्ति उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए आगे नहीं आया. शंकराचार्य न तो झुके और न ही उन्होंने अपना धीरज खोया. उन्होंने निर्जीव शरीर के कई टुकड़े कर दिए और स्वयं उन्हें एक-एक करके ले गए और अंतिम संस्कार किया.
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स्वामी रामतीर्थ Swami Ramtirtha

स्वामी रामतीर्थ (जन्म: २२ अक्टूबर १८७३[2] - मृत्यु: २७ अक्टूबर १९०६) वेदान्त दर्शन की साक्षात् मूर्ति थे। दीपावली के दिन जन्म, दीपावली को ही सन्यास तथा दीपावली वाले दिन ही जलसमाधि लेकर जो इतिहास उन्होंने रचा वह तो उल्लेखनीय है।

स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् १८७३ की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली को इन्होंने अध्ययन में रोड़ा नहीं बनने दिया। फलस्वरूप पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे।
परिवार में आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा पाना कठिन था। किन्तु शिक्षा के प्रति तीव्र रुचि ने अभावों में भी माध्यमिक पूर्ण कर बालक के मन को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। परिवारजनों का आग्रह था कि वे नौकरी करें तथा घर में सहयोग करें। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया।
इन सब परिस्थितियों से मार्ग निकालकर तीर्थराम शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चले गये। यहाँ उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित की। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये । बी० ए० में प्रथम आने पर इनको ९० रुपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। गणित इनका अत्यन्त प्रिय विषय था। उसकी तल्लीनता में ये दिन रात भूख प्यास सब भूल जाते थे। गणित विषय में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर[5] हो गये।

शिक्षा

'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात सें धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने मे अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।

संन्यास
रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भाँति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकातंवास के लिए चले गए और संन्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था।

राष्ट्र धर्म के पक्षधर

स्वामीजी हिन्दी के समर्थक थे और देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे। वे कहा करते थे कि राष्ट्र के धर्म को निजी धर्म से ऊँचा स्थान दो। देश के भूखे नारायणों की और मेहनत करने वाले विष्णु की पूजा करो। स्वामीजी ने जापान और अमेरिका की यात्रा की और सर्वत्र लोग उनके विचारों की ओर आकृष्ट हुए। वे स्वामी विवेकानंद के समकालीन थे और दोनों में संपर्क भी था। स्वामी जी ने व्यक्ति की निजी मुक्ति से शुरू होकर पूरी मानव जाति की पूर्ण मुक्ति की वकालत की। जिस आनंद के साथ वह वेदांत की पांरपरिक शिक्षा का प्रचार करते थे, उसी में उनका अनोखापन था। अक्सर वह धार्मिक प्रश्नों का जवाब दीर्घ हंसी के साथ देते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ वह पशिचमी विज्ञान एवं प्रौधोगिकी को भारत की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान का साधन भी मानते थे। उन्होंने जन शिक्षा के हर रूप का भरपूर समर्थन किया।

मृत्यु

1906 ई. में दीपावली के दिन, जब वे केवल 33 वर्ष के थे, टिहरी के पास भागीरथी में स्नान करते समय भंवर में फंस जाने के कारण उनका शरीर पवित्र नदी में समा गया। उनकी मृत्यु एक दुर्घटना थी या किसी षड़यंत्र के कारण ऐसा हुआ, यह उनके अनुयायियों के बीच आज भी रहस्य बना हुआ है।
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दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें ! Branches of Dashnami Shaiva sect!


दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें !

शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है। लेकिन इनमें एक व्यवस्था रही है कि जो गृहस्थ बनना चाहे वह परिवार बसा सकता है लेकिन इनको इस एक नियम का कठोरता से पालन करना होता था कि ये गृहस्थियों की बस्तियों में प्रवेश नहीं करेंगे।
जो मूल ब्राह्मण जाति जिसे आदि-ब्राह्मण या आदि गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था, स्वभावतः ही उनका आचरण तो यह था कि वे तो एकान्त में स्थापित अपनी कुटिया से या गुरूकुल से बाहर जाते ही नहीं थे और ना ही उनमें संयुक्त परिवार होते थे। सात वर्ष और अधिकतम बारह वर्ष की सन्तान ही उनके साथ रह पाती थी । तत्पश्चात् उनके बालक भी गुरूकुल के अन्य छात्रों की तरह ही रहते थे। वे बालकों के अलावा अन्य किसी भी वर्ग से सीधा सम्पर्क नहीं रखते थे फिर भी पूरा समाज उनके बताये मार्ग पर चलता था। जब भी साम्प्रदायिक समुदायों में वैमनस्य फैलता और नई मान्यताओं के साथ नई समाज व्यवस्था करनी होती थी तभी इनकी भूमिका शुरू होती थी बाक़ी ये ब्रह्म में रमण करने वाली ब्राह्मणी स्थिति को प्राप्त हुए रहते थे।
ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविक आचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।
दूसरे ब्राह्मण जिन्हें द्विज या साम्प्रदायिक ब्राह्मण कहा जाता था उनके लिए यह छूट थी कि ये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर सकते थे लेकिन इनका आसन अलग होता था। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जातियों के घरों में ही प्रवेश करते थे। इनके जाने के बाद गृहणी इनके आसन को घर के बाहर ले जाकर झाड़ती और फिर समेट कर रख देती थी। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जाति के घरों में ही जन्मे होते थे और यदि इनकी सन्तानों का आचरण असंयमित होता या वे अविद्वान होते तो उन्हें अपनी शिष्य जाति की लड़की से विवाह करके पुनः अपनी मूल जाति में आना होता था और पुनः निर्माण अथवा उत्पादन में लग जाते। ऐसा इसलिये था जिससे अयोग्य शिक्षक वर्ग की संख्या असीमित नहीं हो ताकि निर्माता एवं उत्पादक वर्ग पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़े।
वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे लेकिन सन्तानों की संख्या अधिक होने पर उस नई पीढ़ी को किसी न किसी निर्माण एवं उत्पादन से जुड़ी जाति में विलीन होना पड़ता था। ये वैष्णव गांव में प्रवेश कर सकते थे लेकिन किसी के घर में प्रवेश करना इनके लिए वर्जित था। इनको सिर्फ़ मन्दिर तथा गौचर भूमि तक जाने की छूट थी।
शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था। वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते।
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।
जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।
संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे तथा
नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।
उदासीन और वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या[साईको-थेरेपी] से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते।
आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे सन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे लेकिन इनका काम नवयुवा सन्यासियों को पढ़ाने[साक्षर करने] का था और उच्श्रृंखल नवयुवाओं को दण्ड देने का अधिकार सिर्फ इनके पास ही था। चुंकि सन्यास परम्परा गुरू चेला परम्परा होती है अर्थात् गुरू अपने सेवक[चेले] को प्रेक्टिकल जानकारी देता है अतः वह उसे दण्डित भी कर सकता है। अतः यह व्यवस्था बनाई गई कि दण्ड देने का अधिकार सिर्फ दण्डी स्वामी को ही होता था जो गुरूकुल चलाते थे। ये दण्डी, स्वामी-पुरी शाखा के अन्तर्गत ही रखे गये थे क्योंकि पुरी ही पुर अर्थात् परकोटे के अन्दर जा सकते थे।
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
1 पुरी - जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे।
2 तीर्थ - तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
3 आश्रम - आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
4 सरस्वती - जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
5 भारती = जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
6 वन = जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
7 अरण्य = जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
8 पर्वत = पहाड़, गिर, मेरू इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
9 गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
10 सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
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उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे

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1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । सिंधिया महाराज दौलत राव किसी चुगलने चुगली की और महंत लच्छी गिरि महाराज पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रुपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर ख़ून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच महाराज को जब असल बात और महन्त के महानता का बाद मे पता तो चला लेकिन बहोत देर हो चुकि थि महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।
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शिष्य परम्परा

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पुराणों में वेदव्यास की शिष्य परम्परा भी दी गयी है। वेदव्यास ने वेद की विविध शाखाओं को व्यवस्थित किया जिनके कारण श्रौत विधियों में अथर्वण मन्त्रों को स्थान मिला और अथर्वण शाखा का सुमन्तु वेदव्यास का प्रथम शिष्य बना।
वेदव्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि ‘शब्द’ या ‘श्रुति’ को उन्होंने एक प्रामाणिक रूप दिया। पिछले तीन हजार वर्षों से उनके द्वारा की गयी यह वेद-व्यवस्था आज तक अटूट चली आ रही है।
स्कन्द पुराण में जाबालि ऋषि की पुत्री व्यास की पत्नी वाटिका का उनके पुत्र शुकदेव के साथ हुआ संवाद दिया गया है। वाटिका इस संवाद में शुकदेव को गृहस्थाश्रमी बनने के लिए समझाती है।

यों तो शुकदेव को बाल संन्यासी माना जाता है किंतु हरिवंश तथा देवी भागवत सहित कई अन्य पुराणों में उन्हें विवाहित व सन्तानवान बताया गया है। देवी भागवत के अनुसार उनकी पत्नी का नाम पीवारी था और इनसे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त हुए थे।

शुकदेव ने पिता से प्रेरणा प्राप्त कर जो संन्यासियों की व्वस्था और प्रणाली प्रारंभ की थी वह करीब 30 शताब्दियों से आज तक सनातन धर्म की आधारशिला बनी हुई है। आदि शंकराचार्य ने इस प्रणाली का पुनर्निर्माण किया और इसे दशनामी संप्रदाय की संज्ञा प्रदान की।
वेदव्यास की प्रेरण सा स्थापित संन्यासियों की इस प्रथा ने सनातन धर्म को जीवित रखने में और भारत व अन्य देशों में इसकी आध्यात्मिक सुवास फैलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द तथा विवेकानन्द जैसे जिन संन्यासियों ने सनातन धर्म की ज्योति जाग्रत रखी है, वे इसी परम्परा के हैं।
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रिश्तों की अहमियत

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