स्वामी रामतीर्थ (जन्म: २२ अक्टूबर १८७३[2] - मृत्यु: २७ अक्टूबर १९०६) वेदान्त दर्शन की साक्षात् मूर्ति थे। दीपावली के दिन जन्म, दीपावली को ही सन्यास तथा दीपावली वाले दिन ही जलसमाधि लेकर जो इतिहास उन्होंने रचा वह तो उल्लेखनीय है।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् १८७३ की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली को इन्होंने अध्ययन में रोड़ा नहीं बनने दिया। फलस्वरूप पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे।
परिवार में आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा पाना कठिन था। किन्तु शिक्षा के प्रति तीव्र रुचि ने अभावों में भी माध्यमिक पूर्ण कर बालक के मन को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। परिवारजनों का आग्रह था कि वे नौकरी करें तथा घर में सहयोग करें। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया।
इन सब परिस्थितियों से मार्ग निकालकर तीर्थराम शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चले गये। यहाँ उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित की। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये । बी० ए० में प्रथम आने पर इनको ९० रुपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। गणित इनका अत्यन्त प्रिय विषय था। उसकी तल्लीनता में ये दिन रात भूख प्यास सब भूल जाते थे। गणित विषय में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर[5] हो गये।
शिक्षा
'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात सें धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने मे अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।
संन्यास
रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भाँति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकातंवास के लिए चले गए और संन्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था।
राष्ट्र धर्म के पक्षधर
स्वामीजी हिन्दी के समर्थक थे और देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे। वे कहा करते थे कि राष्ट्र के धर्म को निजी धर्म से ऊँचा स्थान दो। देश के भूखे नारायणों की और मेहनत करने वाले विष्णु की पूजा करो। स्वामीजी ने जापान और अमेरिका की यात्रा की और सर्वत्र लोग उनके विचारों की ओर आकृष्ट हुए। वे स्वामी विवेकानंद के समकालीन थे और दोनों में संपर्क भी था। स्वामी जी ने व्यक्ति की निजी मुक्ति से शुरू होकर पूरी मानव जाति की पूर्ण मुक्ति की वकालत की। जिस आनंद के साथ वह वेदांत की पांरपरिक शिक्षा का प्रचार करते थे, उसी में उनका अनोखापन था। अक्सर वह धार्मिक प्रश्नों का जवाब दीर्घ हंसी के साथ देते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ वह पशिचमी विज्ञान एवं प्रौधोगिकी को भारत की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान का साधन भी मानते थे। उन्होंने जन शिक्षा के हर रूप का भरपूर समर्थन किया।
मृत्यु
1906 ई. में दीपावली के दिन, जब वे केवल 33 वर्ष के थे, टिहरी के पास भागीरथी में स्नान करते समय भंवर में फंस जाने के कारण उनका शरीर पवित्र नदी में समा गया। उनकी मृत्यु एक दुर्घटना थी या किसी षड़यंत्र के कारण ऐसा हुआ, यह उनके अनुयायियों के बीच आज भी रहस्य बना हुआ है।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् १८७३ की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली को इन्होंने अध्ययन में रोड़ा नहीं बनने दिया। फलस्वरूप पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे।
परिवार में आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा पाना कठिन था। किन्तु शिक्षा के प्रति तीव्र रुचि ने अभावों में भी माध्यमिक पूर्ण कर बालक के मन को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। परिवारजनों का आग्रह था कि वे नौकरी करें तथा घर में सहयोग करें। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया।
इन सब परिस्थितियों से मार्ग निकालकर तीर्थराम शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चले गये। यहाँ उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित की। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये । बी० ए० में प्रथम आने पर इनको ९० रुपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। गणित इनका अत्यन्त प्रिय विषय था। उसकी तल्लीनता में ये दिन रात भूख प्यास सब भूल जाते थे। गणित विषय में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर[5] हो गये।
शिक्षा
'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात सें धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने मे अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।
संन्यास
रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भाँति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकातंवास के लिए चले गए और संन्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था।
राष्ट्र धर्म के पक्षधर
स्वामीजी हिन्दी के समर्थक थे और देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे। वे कहा करते थे कि राष्ट्र के धर्म को निजी धर्म से ऊँचा स्थान दो। देश के भूखे नारायणों की और मेहनत करने वाले विष्णु की पूजा करो। स्वामीजी ने जापान और अमेरिका की यात्रा की और सर्वत्र लोग उनके विचारों की ओर आकृष्ट हुए। वे स्वामी विवेकानंद के समकालीन थे और दोनों में संपर्क भी था। स्वामी जी ने व्यक्ति की निजी मुक्ति से शुरू होकर पूरी मानव जाति की पूर्ण मुक्ति की वकालत की। जिस आनंद के साथ वह वेदांत की पांरपरिक शिक्षा का प्रचार करते थे, उसी में उनका अनोखापन था। अक्सर वह धार्मिक प्रश्नों का जवाब दीर्घ हंसी के साथ देते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ वह पशिचमी विज्ञान एवं प्रौधोगिकी को भारत की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान का साधन भी मानते थे। उन्होंने जन शिक्षा के हर रूप का भरपूर समर्थन किया।
मृत्यु
1906 ई. में दीपावली के दिन, जब वे केवल 33 वर्ष के थे, टिहरी के पास भागीरथी में स्नान करते समय भंवर में फंस जाने के कारण उनका शरीर पवित्र नदी में समा गया। उनकी मृत्यु एक दुर्घटना थी या किसी षड़यंत्र के कारण ऐसा हुआ, यह उनके अनुयायियों के बीच आज भी रहस्य बना हुआ है।
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