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वेदांत के आदि गुरु श्री आद्य शंकराचार्य का जन्म लगभग 11 शताब्दी पूर्व त्रावणकोर के एक मलयाली ब्राह्मण के घर हुआ था. वे बहुत छोटे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. बचपन में ही उन्होंने वेदों और वेदांगों का पूरा अध्ययन कर लिया. उनके मन में सन्यस्त होने की बड़ी ललक थी और किसी गुरु की खोज में उन्होंने अपनी माता से घर त्यागने कीआज्ञा माँगी परन्तु माँ ने उन्हें हमेशा मना कर दिया.
उनके बारे में एक कथा यह भी कहती है कि नदी में एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया और उन्होंने अपनी माता को अपनी मृत्यु के साक्षात् दर्शन कराकर संन्यास के लिए अनुमति देनेपर विवश कर दिया परन्तु अधिकांश विद्वान इसे कहानी मात्र ही मानते हैं. वास्तविकता में एक दिन जब उन्होंने पुनः अपनी माता से संन्यास के लिए अनुमति माँगी तो माँ ने दुखी होकर उनसे कहा – “तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो. तुम्हारे संन्यास ले लेने के बाद मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?”
बालक शंकर ने माँ को वचन दिया कि वे जहाँ भी होंगे, माँ का अंतिम संस्कार करने अवश्य आयेंगे.
मलयाली ब्राम्हणों ने शंकर के इस निर्णय का घोर विरोध किया. उनके अनुसार एक ब्रह्मचारी को संन्यास लेने का और संन्यासी को अंतिम संस्कार करने का कोई अधिकार नहीं था. लेकिन शंकर ने उनकी एक न सुनी. सभी उनसे रुष्ट हो गए और उन्हेंजाति से बहिष्कृत कर दिया गया.
जब शंकर की माँ की मृत्यु हुई तो ब्राह्मण समाज का कोई भी व्यक्ति उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए आगे नहीं आया. शंकराचार्य न तो झुके और न ही उन्होंने अपना धीरज खोया. उन्होंने निर्जीव शरीर के कई टुकड़े कर दिए और स्वयं उन्हें एक-एक करके ले गए और अंतिम संस्कार किया.
उनके बारे में एक कथा यह भी कहती है कि नदी में एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया और उन्होंने अपनी माता को अपनी मृत्यु के साक्षात् दर्शन कराकर संन्यास के लिए अनुमति देनेपर विवश कर दिया परन्तु अधिकांश विद्वान इसे कहानी मात्र ही मानते हैं. वास्तविकता में एक दिन जब उन्होंने पुनः अपनी माता से संन्यास के लिए अनुमति माँगी तो माँ ने दुखी होकर उनसे कहा – “तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो. तुम्हारे संन्यास ले लेने के बाद मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?”
बालक शंकर ने माँ को वचन दिया कि वे जहाँ भी होंगे, माँ का अंतिम संस्कार करने अवश्य आयेंगे.
मलयाली ब्राम्हणों ने शंकर के इस निर्णय का घोर विरोध किया. उनके अनुसार एक ब्रह्मचारी को संन्यास लेने का और संन्यासी को अंतिम संस्कार करने का कोई अधिकार नहीं था. लेकिन शंकर ने उनकी एक न सुनी. सभी उनसे रुष्ट हो गए और उन्हेंजाति से बहिष्कृत कर दिया गया.
जब शंकर की माँ की मृत्यु हुई तो ब्राह्मण समाज का कोई भी व्यक्ति उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए आगे नहीं आया. शंकराचार्य न तो झुके और न ही उन्होंने अपना धीरज खोया. उन्होंने निर्जीव शरीर के कई टुकड़े कर दिए और स्वयं उन्हें एक-एक करके ले गए और अंतिम संस्कार किया.
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