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पुराणों में वेदव्यास की शिष्य परम्परा भी दी गयी है। वेदव्यास ने वेद की विविध शाखाओं को व्यवस्थित किया जिनके कारण श्रौत विधियों में अथर्वण मन्त्रों को स्थान मिला और अथर्वण शाखा का सुमन्तु वेदव्यास का प्रथम शिष्य बना।
वेदव्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि ‘शब्द’ या ‘श्रुति’ को उन्होंने एक प्रामाणिक रूप दिया। पिछले तीन हजार वर्षों से उनके द्वारा की गयी यह वेद-व्यवस्था आज तक अटूट चली आ रही है।
स्कन्द पुराण में जाबालि ऋषि की पुत्री व्यास की पत्नी वाटिका का उनके पुत्र शुकदेव के साथ हुआ संवाद दिया गया है। वाटिका इस संवाद में शुकदेव को गृहस्थाश्रमी बनने के लिए समझाती है।
यों तो शुकदेव को बाल संन्यासी माना जाता है किंतु हरिवंश तथा देवी भागवत सहित कई अन्य पुराणों में उन्हें विवाहित व सन्तानवान बताया गया है। देवी भागवत के अनुसार उनकी पत्नी का नाम पीवारी था और इनसे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त हुए थे।
शुकदेव ने पिता से प्रेरणा प्राप्त कर जो संन्यासियों की व्वस्था और प्रणाली प्रारंभ की थी वह करीब 30 शताब्दियों से आज तक सनातन धर्म की आधारशिला बनी हुई है। आदि शंकराचार्य ने इस प्रणाली का पुनर्निर्माण किया और इसे दशनामी संप्रदाय की संज्ञा प्रदान की।
वेदव्यास की प्रेरण सा स्थापित संन्यासियों की इस प्रथा ने सनातन धर्म को जीवित रखने में और भारत व अन्य देशों में इसकी आध्यात्मिक सुवास फैलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द तथा विवेकानन्द जैसे जिन संन्यासियों ने सनातन धर्म की ज्योति जाग्रत रखी है, वे इसी परम्परा के हैं।
वेदव्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि ‘शब्द’ या ‘श्रुति’ को उन्होंने एक प्रामाणिक रूप दिया। पिछले तीन हजार वर्षों से उनके द्वारा की गयी यह वेद-व्यवस्था आज तक अटूट चली आ रही है।
स्कन्द पुराण में जाबालि ऋषि की पुत्री व्यास की पत्नी वाटिका का उनके पुत्र शुकदेव के साथ हुआ संवाद दिया गया है। वाटिका इस संवाद में शुकदेव को गृहस्थाश्रमी बनने के लिए समझाती है।
यों तो शुकदेव को बाल संन्यासी माना जाता है किंतु हरिवंश तथा देवी भागवत सहित कई अन्य पुराणों में उन्हें विवाहित व सन्तानवान बताया गया है। देवी भागवत के अनुसार उनकी पत्नी का नाम पीवारी था और इनसे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त हुए थे।
शुकदेव ने पिता से प्रेरणा प्राप्त कर जो संन्यासियों की व्वस्था और प्रणाली प्रारंभ की थी वह करीब 30 शताब्दियों से आज तक सनातन धर्म की आधारशिला बनी हुई है। आदि शंकराचार्य ने इस प्रणाली का पुनर्निर्माण किया और इसे दशनामी संप्रदाय की संज्ञा प्रदान की।
वेदव्यास की प्रेरण सा स्थापित संन्यासियों की इस प्रथा ने सनातन धर्म को जीवित रखने में और भारत व अन्य देशों में इसकी आध्यात्मिक सुवास फैलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द तथा विवेकानन्द जैसे जिन संन्यासियों ने सनातन धर्म की ज्योति जाग्रत रखी है, वे इसी परम्परा के हैं।
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