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1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । सिंधिया महाराज दौलत राव किसी चुगलने चुगली की और महंत लच्छी गिरि महाराज पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रुपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर ख़ून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच महाराज को जब असल बात और महन्त के महानता का बाद मे पता तो चला लेकिन बहोत देर हो चुकि थि महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।
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