एक बार स्वामी रामतीर्थ

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एक बार स्वामी रामतीर्थ कॉलेज से घर आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक व्यक्ति को सेब बेचते हुए पाया।
लाल-लाल सेब देखकर उनका मन चंचल हो उठा और वह
सेब वाले के पास पहुंचे और उससे सेबों का दाम पूछने
लगे।
तभी उन्होंने सोचा, 'यह जीभ क्यों पीछे पड़ी है?' वह
दाम पूछकर आगे बढ़ गए। कुछ आगे बढ़कर उन्होंने सोचा कि जब दाम पूछ ही लिए तो उन्हें खरीदने में
क्या हर्ज है। इसी उहापोह में कभी वे आगे बढ़ते और
कभी पीछे जाते। सेब वाला उन्हें देख रहा था।
वह बोला, 'साहब, सेब लेने हैं तो ले लीजिए, इस तरह
बार-बार क्यों आगे पीछे जा रहे हैं?' आखिरकार
उन्होंने कुछ सेब खरीद लिए और घर चल पड़े। घर पहुंचने पर उन्होंने सेबों को एक ओर रखा। लेकिन उनकी नजर
लगातार उन पर पड़ी हुई थी। उन्होंने चाकू लेकर सेब
काटा। सेब काटते ही उनका मन उसे खाने के लिए
लालायित होने लगा, लेकिन वह स्वयं से बोले,
'किसी भी हाल में चंचल मन को इस सेब को खाने से
रोकना है। आखिर मैं भी देखता हूं कि जीभ का स्वाद जीतता है या मेरा मन नियंत्रित होकर
मुझे जिताता है। सेब को [ जारी है ] उन्होंने अपनी नजरों के सामने रखा और स्वयं पर
नियंत्रण रखकर उसे खाने से रोकने लगे। काफी समय
बीत गया। धीरे-धीरे कटा हुआ सेब पीला पड़कर
काला होने लगा लेकिन स्वामी जी ने उसे हाथ तक
नहीं लगाया। फिर वह प्रसन्न होकर स्वयं से बोले,
'आखिर मैंने अपने चंचल मन को नियंत्रित कर ही लिया।' फिर वह दूसरे काम में लग गए।
एक बार स्वामी रामतीर्थ कॉलेज से घर आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक व्यक्ति को सेब बेचते हुए पाया।
लाल-लाल सेब देखकर उनका मन चंचल हो उठा और वह
सेब वाले के पास पहुंचे और उससे सेबों का दाम पूछने
लगे।
तभी उन्होंने सोचा, 'यह जीभ क्यों पीछे पड़ी है?' वह
दाम पूछकर आगे बढ़ गए। कुछ आगे बढ़कर उन्होंने सोचा कि जब दाम पूछ ही लिए तो उन्हें खरीदने में
क्या हर्ज है। इसी उहापोह में कभी वे आगे बढ़ते और
कभी पीछे जाते। सेब वाला उन्हें देख रहा था।
वह बोला, 'साहब, सेब लेने हैं तो ले लीजिए, इस तरह
बार-बार क्यों आगे पीछे जा रहे हैं?' आखिरकार
उन्होंने कुछ सेब खरीद लिए और घर चल पड़े। घर पहुंचने पर उन्होंने सेबों को एक ओर रखा। लेकिन उनकी नजर
लगातार उन पर पड़ी हुई थी। उन्होंने चाकू लेकर सेब
काटा। सेब काटते ही उनका मन उसे खाने के लिए
लालायित होने लगा, लेकिन वह स्वयं से बोले,
'किसी भी हाल में चंचल मन को इस सेब को खाने से
रोकना है। आखिर मैं भी देखता हूं कि जीभ का स्वाद जीतता है या मेरा मन नियंत्रित होकर
मुझे जिताता है। सेब को [ जारी है ] उन्होंने अपनी नजरों के सामने रखा और स्वयं पर
नियंत्रण रखकर उसे खाने से रोकने लगे। काफी समय
बीत गया। धीरे-धीरे कटा हुआ सेब पीला पड़कर
काला होने लगा लेकिन स्वामी जी ने उसे हाथ तक
नहीं लगाया। फिर वह प्रसन्न होकर स्वयं से बोले,
'आखिर मैंने अपने चंचल मन को नियंत्रित कर ही लिया।' फिर वह दूसरे काम में लग गए।
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Daksh prajapati

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Daksh prajapati ne shivji ko apmanit karane ke liye bruhaspati namak yadhnya arambh kiya us yadnya me shivji aur apani beti sati ko chhodkar sabko bulaya. bulava na hote huye bhi sati ke agrah par shivji us yadnya me gaye par vaha daksh prajapati ne unka apman kiya. sati se shivji ka apman sahan nahi huva aur vusane sharir ka tyag kar diya. shivaji ki krodh se daksh to mara gaya lekin sati ke sharir ko kandhopar lekar idhar udhar ghumane lage . bhagvan vishnu se yaha dash dekhi nahi gayi aur unhone apane sudarshan chkkra se sati ke sharir ke tukade tukade kar diye . jaha jaha sati ka angh gira vaha vaha shakti peeth nirman huva.
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दशनामी अखाड़े

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दशनामी साधु समाज के ७ प्रमुख अखाडो का जो विवरण आगे दिया गया है... वह श्री यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित पुस्तक "नागे संनासियों का इतिहास" पर आधारित है... इनमे से प्रत्यक अखाड़े का अपना स्वतंत्र संघठन है... जिसमे डंका, भगवा निशान, भाला, छडी, हाथी, घोड़े, पालकी आदि होते है | इन अखाडों की सम्पति का प्रबंध श्री पंच द्वारा निर्वाचित आठ थानापति महंतो तथा आठ प्रबंधक सचिवों के जिम्मे रहती है | इनकी संख्या घट बढ़ सकती है | इनके अखाडों का पृथक पृथक विवरण निम्नअनुसार है-

१. श्री पंच दशनाम जूना अखाडा... दशनामी साधु समाज के इस अखाड़े की स्थापना कार्तिक शुक्ल दशमी मंगलवार विक्रम संवत १२०२ को उत्तराखंड प्रदेश में कर्ण प्रयाग में हुई | स्थापना के समय इसे भैरव अखाड़े के नाम से नामंकित किया गया था | बहुत पहले स्थापित होने के कारण ही संभवत: इसे जूना अखाड़े के नाम से प्रसिद्ध मिली | इस अखाड़े में शैव नागा दशनामी साधूओ की जमात तो रहती ही है परंतु इसकी विशेषता भी है की इसके निचे अवधूतानियो का संघटन भी रहता है इसका मुख्य केंद्र बड़ा हनुमान घाट ,काशी (वाराणसी, बनारस) है | इस अखाड़े के इष्ट देव श्री गुरु दत्तात्रय भगवान है जो त्रिदेव के एक अवतार माने जाते है |

2. श्री पन्च्याती अखाडा महनिर्माणी... दशनामी साधुओ के श्री पन्च्याती महानिर्वाणी अखाड़े की स्थापना माह अघहन शुक्ल दशमी गुरुवार को गढ़कुंडा (झारखण्ड) स्थित श्री बैजनाथ धाम में हुई | इस अखाड़े का मुख्य केंद्र दारा गंज प्रयाग (इलाहाबाद ) में है | इस अखाड़े के इष्ट देव राजा सागर के पुत्रो को भस्म करने वाले श्री कपिल मुनि है | सूर्य प्रकाश एवं भैरव प्रकाश इस अखाड़े की ध्वजाए है... जिन्हें अखाडों के साधु संतो द्वारा देव स्वरुप माना जाता है | इस अखाड़े में बड़े बड़े सिद्ध महापुरुष हुए | दशनामी अखाडों में इस अखाड़े का प्रथम स्थान है |

३. तपो निधि श्री निरंजनी अखाडा पन्च्याती... दशनामी साधुओ के तपोनिधि श्री निरंजनी अखाडा पन्च्याती अखाडा की स्थापना कृष्ण पक्ष षष्टि सोमवार विक्रम सम्वत ९६० को कच्छ (गुजरात) के भांडवी नामक स्थान पर हुई | इस अखाड़े का मुख्य केंद्र मायापूरी हरिद्वार है | इस अखाड़े के इष्ट देव भगवान कार्तिकेय है |

४. पंचायति अटल अखाडा... इस अखाड़े की स्थापना माह मार्गशीर्ष शुक्ल ४ रविवार विक्रम संवत ७०३ को गोंडवाना में हुई | इस अखाडे के इष्टदेव श्री गणेश जी है |

५. तपोनिधि श्री पंचायती आनंद अखाडा... दशनामी तपोनिधि श्री पंचायती आनंद अखाड़े की स्थापना माह शुक्ल चतुर्थी रविवार विक्रम संवत ९१२ कोबरार प्रदेश में हुई | इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान श्री सूर्यनारायण है... तथा इस अखाड़े का प्रमुख केंद्र कपिल धारा काशी (बनारस ) है |

६. श्री पंचदशनाम आह्वान अखाडा... इस अखाड़े की स्थापना माह ज्येष्ट कृष्णपक्ष नवमी शुक्रवार का विक्रम संवत ६०३ में हुई | इस अखाड़े के इष्टदेव सिद्धगणपति भगवान है | इसका मुख्य केंन्द्र दशाशवमेघ घाट काशी (बनारस) है|

७. श्री पंचअग्नि अखाडा... श्री पंच-अग्नि अखाड़े की स्थापना और उसके विकास की एक अपनी गतिशील परम्परा है |

* श्री उदासीन अखाडा... काम , क्रोध पर जीवन में विजय प्राप्त करने वाले माह्नुभाव निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख , आराम और ज्ञान धारण करते हुऐ पूर्ण , एकी भाव से ब्रह्म में लीन रहते है |

उल्लेखनीय यह है है की दशनामी साधु समाज के अखाडों की व्यवस्था में सख्त अनुशासन कायम रखने की दृष्टि से इलाहाबाद कुम्भ तथा अर्धकुम्भ एवं हरिद्वार कुम्भ’ में इन अखाडों में श्री महंतो का नया चुनाव होता है|
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दशनाम दश उपाधि

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तीर्थ-
त्रिवेणी संड्डमें तीर्थ तत्वमरयादि लक्षणौ। स्नायातत्दार्थ आवेन तीर्थ नामा च उच्यते।
"तत्वमसि" इस महाकाव्य रूपी त्रिवेणी के तीर्थ में जो तत्वान्वेषण भाव से स्नान करते हैं उन्हें तीर्थ कहते है।

आश्रम-
आश्रम ग्रहणे प्रौढ आशा पाश विवर्जिताः। यातायात विनिर्मुक्त एतदाश्रम लक्षणम।।
जाल से मुक्ति और आवागमन से मुक्ति और उक्त गुणों से युक्त सन्यासी को आश्रम कहते है

वन-आरण्य
सुरम्ये निर्झरदेश वने वासं करोति यः। आशा याशा विर्निमुक्तो वन नामा उच्यते।।
आशा रहित हो रमणीय झरना वाले वन प्रांत में वास करने वाले सन्यासी वन कहलाते है।

गिरि-
वासो गिरिश्वरे नित्ये गीताभ्यासे हितत्परः। शम्भीराचल बुदिध्श्रा नामा च उच्यते ।।
जो पर्वतो में रह कर बराबर गीता का पाठ करते हैं और गंभीर अटल बुद्धि वाले होते हैं वे गिरि हैं।

पर्वत-
बसेत पर्वत मूलेषू प्रौढो योध्यानधारणात। सारात सारं विजानाति पर्वतः परि कीर्तितः।।
जो पर्वतों में रहते हैं और ध्यान धारणादि में प्रौढ हैं और जीवन सार से परिचित है पर्वत कहे जाते है।

सागर-
वसेत सागर गंभीरो वन रत्न परिग्रहः। मध्र्यादाश्र न लंबे सागरः परि कीर्तितः।।
समुद्रक्त गंभीर, वन्यफूलमूलादि जीवी व मर्यादावान सन्यासी सागर कहे जाते है।

सरस्वती-
स्वरज्ञान वशोनित्यर स्वरवादी कवीश्ररः। संसार सागरे सराभिज्ञो यो हि सरस्वती।
स्वर ज्ञान वाले कविस्वर व संसार को असार मानने वाला सन्यासी सरस्वती कहा जाता है।

भारती-
विद्याभारेण सम्पूर्ण सर्वभारं परित्यजेत। दुख भारं न जानाति भारती पर कीर्तितः।।
विद्या से युक्त हो सभी सारो को छोड जो दुःख के बोझ को भी नहीं समझत वह भारती हैं।

पुरी-
ज्ञानत तत्वेण सम्पूर्णः पूर्णतत्व पदेस्थितः। पद ब्रह्मरता नित्य पुरी नामा स उच्यते।।
ज्ञान तत्व से युक्त पूर्ण तत्वज्ञ व शब्द ब्रह्ममें लीन में रहने वाला पुरी है।
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श्रुति का पाठ तथा अभ्यास

हमारी सात मन्या तथा चार मठ हैं (मन्या शब्द को संस्कृत में आम्नाय कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- श्रुति का पाठ तथा अभ्यास) । सातों मन्याओं में एक-एक वेद (मठों के अनुसार) तथा ४ महावाक्यों के प्रचार का विधान है ।

गोवर्धन मठ में ऋग्वेद तथा 'प्रज्ञानं ब्रह्म', शारदा मठ में सामवेद तथा 'तत् त्वम् असि', श्रृंगेरी मठ में यजुर्वेद तथा 'अहं ब्रह्मास्मि', एवं ज्योतिर्मठ में अथर्ववेद और 'अयमात्मा ब्रह्म' के प्रचार का नियम है ।

प्रथम मन्या-

पश्चिम की मन्या का मठ 'शारदा मठ' है । क्षेत्र द्वारिका है तथा देवी भद्र काली हैं । तीर्थ गंगा और गोमती नदी है । इस मन्या के सन्यासी तीर्थ और आश्रम नाम से जाने जाते हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी देवता हैं । शिवजी को ही सिद्धेश्वर (सुदेचर) देवता कहा जाता है । इस सम्प्रदाय का नाम कीटवार सम्प्रदाय है । प्राणियों पर सर्वदा जिसकी कृपा दृष्टि की भावना से कीट आदि जीव-जन्तु भी रुक जाते हैं, वह 'कीटवार' कहा जाता है ।

दूसरी मन्या-

दूसरी मन्या पूर्व दिशा की है । इसका मठ गोवर्धन है । इस मन्या के सन्यासी वन और आरण्य नाम से जाने जाते हैं । क्षेत्र पुरुषोत्तम है । देवता जगन्नाथ और बलभद्र जी हैं । देवी विमला (लक्ष्मी जी) हैं । आचार्य पद्माचार्य जी हैं । रोहिणी (नदी) तथा महोदधि (समुद्र) ही हमारे तीर्थ हैं । इस सम्प्रदाय का नाम भोगवार है । यतियों का वह सम्प्रदाय, जिसने प्राणियों के विषय भोगों का परित्याग कर दिया है, 'भोगवार सम्प्रदाय' कहा जाता है ।

तीसरी मन्या-

उत्तर दिशा की इस मन्या का मठ जोशी मठ है । क्षेत्र बद्रीनाथ आश्रम है । देवता नर-नारायण हैं । इस मन्या के सन्यासी गिरी, पर्वत तथा सागर नाम से जाने जाते हैं । इसके आचार्य ताटकाचार्य जी हैं तथा देवी पुन्नगिरी (पुण्य गिरि) है । अलकनन्दा नदी तीर्थ है, जो मुक्ति का क्षेत्र मानी जाती है । इस सम्प्रदाय का नाम आनन्दवार है । योगियों का वह सम्प्रदाय, जिसने प्राणियों के भोगों तथा विलासों का परित्याग कर दिया है, 'आनन्दवार सम्प्रदाय' कहलाता है ।

चौथी मन्या-

दक्षिण दिशा की इस मन्या का मठ श्रृंगेरी मठ है । इस मन्या के सन्यासी पुरी, भारती और सरस्वती नाम से जाने जाते हैं । इसका क्षेत्र रामेश्वर है । इसके आचार्य श्रृंगी ऋषि (पृथ्वीधराचार्य) हैं । शंकर जी तथा आदि वाराह इसके देवता हैं । देवी कामाक्षी हैं । तुंगभद्रा नदी तीर्थ है । इस सम्प्रदाय का नाम भूरिवार है । यतियों का वह सम्प्रदाय, जिसने शरीर धारी प्राणियों के बाह्य सौन्दर्य के मोह का परित्याग कर दिया है, भूरिवार कहा जाता है ।

आदि शंकराचार्य के सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले सन्यासियों का एक ऐसा भी वर्ग था, जो दस नामों, चारों मठों तथा इनकी चार मन्याओं के लौकिक बन्धन को स्वीकार नहीं करता था, किन्तु परम्परा की मर्यादा के निर्वाह के लिए उन्होंने भी अपनी पद्धति बना ली । यद्यपि उन्होंने अपने किसी लौकिक मठ का निर्माण नहीं किया, फिर भी नाम निर्देश करना पड़ा । उनकी तीन मन्यायें भी बनी, जो उर्ध्वा, आत्मा और निष्कला नाम से कही जाती हैं । इनकी गणना पूर्व की चार मन्याओं के पश्चात् होती है । इनकी पद्धति इस प्रकार है -

पाँचवी मन्या-

इस मन्या का नाम उर्ध्वा है । इसका मठ सुमेरू (पर्वत) है । इस सम्प्रदाय का नाम काशी है । ज्ञान-क्षेत्र कैलाश है । देवता निरंजन है । देवी माया है तथा आचार्य ईश्वर है । मानसरोवर तीर्थ है ।

छठी मन्या-

इस मन्या की महिमा अगम और अगाध है । सम्पूर्ण दसनाम सन्यास मत की यह इष्ट (पूज्य) है । इस छठी मन्या का नाम आत्मा है तथा इसका मठ मूल परआतम है । इस सम्प्रदाय का नाम सत् सन्तुष्ट सम्प्रदाय है । नाभि कमल (मणि पूरक चक्र) ही क्षेत्र है तथा देवता परमहंस है । देवी मानसी माया है । सबमें व्यापक रहने वाले चैतन्य स्वरूप ही आचार्य हैं और इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना (गंगा, यमुना व सरस्वती) का संगम ही त्रिकुटी (त्रिवेणी) है, जो हमारा तीर्थ है । क्षेत्र मानसरोवर है ।

सातवीं मन्या-

ब्रह्मा के मानसी पुत्र शिखा हैं । सूत्र और शाखा भी वे ही हैं । विश्व रूप सच्चिदानन्द देवता हैं । सदगुरु आचार्य हैं तथा सत्य शास्त्रों का श्रवण ही तीर्थ है ।

प्रारम्भिक चार मठों के चारों ब्रह्मचारी आनन्द, स्वरूप, चैतन्य तथा प्रकाश नाम से जाने गये । सातों मन्याओं और सातों मठों के सन्यासियों का आध्यात्मिक स्तर चार प्रकार का होता है-

कुटीचर-

शिखा-सूत्र का त्याग किये बिना भगवे वस्त्र धारण कर घर पर ही विरक्त की तरह रहने वाले को कुटीचर कहते हैं । ये केवल अपने कुल-कुटुम्ब में ही भिक्षा मांग सकते हैं ।

बहुदक (बोध)-

ये बस्ती में नहीं रह सकते तथा शिखा-सूत्र से रहित होते हैं । इन्हें सात घरों से भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने का विधान है । ये योग-साधना करते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाते हैं ।

हंस-

परिपूर्ण शुद्ध जीव को हंस कहते हैं । जिन विरक्त महात्माओं के हृदय से लौकिक वासनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं, वे हंस कहलाते हैं । ये भी शिखा-सूत्र धारण नहीं करते हैं ।

परमहंस-

आध्यात्मिक उपलब्धि की यह सर्वोच्च अवस्था मानी गई है । ये सर्वदा लौकिक बन्धनों से परे रहकर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते हैं । राग-द्वेष की भावना इन्हें छूती भी नहीं है
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मनुस्मृति में लिखा है

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भिक्षाम सत्कृत्य योदघा द्विष्णुरुपाया भिक्षपे ।
कृत्स्ना वा पृथ्वी दघत्स्या तुल्यं न तत्फ लम ।।
अर्थात जो आदरपूर्वक गोरकधारी (विष्णुरूप) सन्यासी को भिक्षा मात्र दान दे तो उसको संपूर्ण पृथ्वी दान से भी बड़कर पुण्य प्राप्त होता है

गोरकधारी को प्रणाम करने के विषय में कहा गया है ।
ये नमन्ति यति इराद दृष्ट्वा काषाय वाससाम ।
राजसूय फ ला वप्तिस्तेषा भवति पुत्रका: ||
अर्थात जो गैरिक वस्त्रधारी यति (गोस्वामी) को देखकर दूर से ही प्रणाम करता है उसको राजपूत करने का फल प्राप्त होता है ।

"स्कन्द पुराण" मे लिखा है -
गृहे यस्य समायाति महाभागवातो यति: |
वतय: पुज्यमानस्तु सर्वे देवा: सुपूजिता: ||
अर्थात जिसका बड़ा भाग्य होता है उसके घर पर गैरिक वस्त्रधारी यति पहुचते है क्योंकि यति के पूजा करने से ही सब देवता का पूजा हो जाती है ।


गैरिक वस्त्र के धार्मिक महत्व को जान सन 1907 मे समाजवादियो का एक अधिवेशन सम्पन्न हुआ था । उस सभा मे विश्व के समाजवादियो में हिन्दू महासभा में वेदकाल से पूजित गेरुआ झंडा फहराया । उपस्थित सभी राष्ट्रों ने इसका अभिवादन कर इस झड़ने को अन्तराष्ट्रीय सम्मान दिया था । लोकवेद तथा शास्त्र से लब्ध प्रतिष्ठित गैरिक वस्त्र सन्यासी की पहचान है ।
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शिव क्यों खाते हैं भांग-धतूरा

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भगवान शिव के बारे में एक बात प्रसिद्ध है कि वे भांग और धतूरे जैसी नशीली चीजों का सेवन करते हैं। शराब को छोड़कर उन्हें शेष सारी ऐसी वस्तुएं प्रिय हैं। क्या वाकई शिव हमेशा भांग या अन्य किसी नशे में रहते हैं? क्यों उन्हें इस तरह की वस्तुएं प्रिय हैं? क्यों सन्यासियों में गांजा-चिलम आदि का इतना प्रचलन है?

दरअसल भगवान शिव सन्यासी हैं और उनकी जीवन शैली बहुत अलग है। वे पहाड़ों पर रह कर समाधि लगाते हैं और वहीं पर ही निवास करते हैं। जैसे अभी भी कई सन्यासी पहाड़ों पर ही रहते हैं। पहाड़ों में होने वाली बर्फबारी से वहां का वातावरण अधिकांश समय बहुत ठंडा होता है। गांजा, धतूरा, भांग जैसी चीजें नशे के साथ ही शरीर को गरमी भी प्रदान करती हैं। जो वहां सन्यासियों को जीवन गुजारने में मददगार होती है। अगर थोड़ी मात्रा में ली जाए तो यह औषधि का काम भी करती है, इससे अनिद्रा, भूख आदि कम लगना जैसी समस्याएं भी मिटाई जा सकती हैं लेकिन अधिक मात्रा में लेने या नियमित सेवन करने पर यह शरीर को, खासतौर पर आंतों को काफी प्रभावित करती हैं।

इसकी गर्म तासीर और औषधिय गुणों के कारण ही इसे शिव से जोड़ा गया है। भांग-धतूरे और गांजा जैसी चीजों को शिव से जोडऩे का एक और दार्शनिक कारण भी है। ये चीजें त्याज्य श्रेणी में आती हैं, शिव का यह संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते हैं। जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं।
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जानें शैव संप्रदाय

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*शैव संप्रदाय के उप संप्रदाय : शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय है। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं- शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक। शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं। बारह रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए। इनकी पत्नी का नाम है पार्वती जिन्हें दुर्गा भी कहा जाता है। शिव का निवास कैलाश परर्वत पर माना गया है।

*शिव के अवतार : शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है जो निम्नलिखित हैं- 1.महाकाल, 2.तारा, 3.भुवनेश, 4. षोडश, 5.भैरव, 6.छिन्नमस्तक गिरिजा, 7.धूम्रवान, 8.बगलामुखी, 9.मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं।

शिव के अन्य ग्यारह अवतार : 1.कपाली, 2.पिंगल, 3.भीम, 4.विरुपाक्ष, 4. विलोहित, 6.शास्ता, 7.अजपाद, 8.आपिर्बुध्य, 9.शम्भु, 10.चण्ड तथा 11.भव का उल्लेख मिलता है।

इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है, जिन्हें अंशावतार माना जाता है।

*शैव ग्रंथ : वेद का श्‍वेताश्वतरा उपनिषद (Svetashvatara Upanishad), शिव पुराण (Shiva Purana), आगम ग्रंथ (The Agamas), और तिरुमुराई (Tiru-murai- poems)।

*शैव तीर्थ : बारह ज्योतिर्लिंगों में खास काशी (kashi), बनारस (Benares), केदारनाथ (Kedarnath), सोमनाथ (Somnath), रामेश्वरम (Rameshvaram), चिदम्बरम (Chidambaram), अमरनाथ (Amarnath) और कैलाश मानसरोवर (kailash mansarovar।

*शैव संस्कार : 1.शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। 2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं। 3. इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। 4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। 5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। 6.यह निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। 7. शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। 8.शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। 9.शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहाँ सिर्फ शिवलिंग होता है। 10.यह भमूति तीलक आड़ा लगाते हैं।
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दस शिष्य दस नाम - आचार्य शंकर के चार शिष्य थे और इन चारों शिष्यों ने वेदकालीन गृहस्थ गोस्वामियों में से 10 शिष्य बनायें Ten disciples, ten names - Acharya Shankar had four disciples and these four disciples made 10 disciples out of the Grihastha Goswamis of the Vedic period.

आचार्य शंकर के चार शिष्य थे और इन चारों शिष्यों ने वेदकालीन गृहस्थ गोस्वामियों में से 10 शिष्य बनायें और इन्हीं दस शिष्यों ने धर्म प्रचार के लिए बावर कुटियों मणियों की स्थापना की जो नीचे लिखें महापुरूषों के नाम से प्रसिद्ध है। शिष्य नारायणगिरि, पूर्णपर्वत, राम सागर, नित्यानंद हस्तमलक भारती, परमानन्द सरस्वती, विशिष्ठ वन, शम्भू आरण्य, गौतम तीर्थ , अनन्त आश्रम।

बावन मढिया
नारायणगिरि की 27 मढि (मेघनाथी पंथी)
(1)रामदत्ती (2)दुर्गानाथी (3)ऋद्धनाथी (4)ब्रम्हानाथी (5)बडे ब्रम्हानाथी (6)घटाम्बर नाथी (7)बलभद्रानाथी (8)छौ ज्ञाननाथी (9)बडे ज्ञाननाथी (10)अधोरनाथी (11)सहजानाथी (12)भावनानाथी (13)जगजीवन नाथी (14)अपारनाथी (15)यति (16)परमानन्दी (17)चोद बोदला (18)सहजनाथी (19)सुसुगनाथी (20)सागरनाथी (21)पारसनाथी (22)भावनाथी (23)सागर बोदली (24)नगेन्द्रमाथी (25)विश्वम्भर नाथी (26)रूद्र नाथी (27)रतनाथी।

पुरियों की 16 मढि:-
(1)वेकुण्ठपुरी (2)केशोपुरी (3)मथुरापुरी (4)पुरणपुरी (5)हनुमन्तपुरी (6)जड भरतपुरी (7)नीलकण्ठपुरी (8)ज्ञाननाथपुरी (9)गंगदरियापुरी (10)भगवानपुरी (11)मुनिमधपुरी (12)बांध अयाध्यापुरी (13)अर्जुन पुरी (14)केवलपुरी (15)तिलकपुरी (16)सहजपुरी।

हस्तमलक भारती की 4 मढी:-
(1)नरसिंह भारती (2)मनमुकुन्द भारती (3)विश्वम्भर भारती (4)बहुनाम भारती।

विशिष्ठ वन की 4 मढी:-
(1)श्यामसुन्दर (2)बलभद्र (3)रामचन्द्र (4)शंखधारी वन।

तिब्बत के लाभा की 1 मढी:-
कुटिवेदगिरि तिब्बत लाभा की गणना भी विद्वान बावन कुटियों में करते है।
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वर्ग विभाजन

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सतयुग के अंतिम चरण में सृष्टि में वर्ग विभाजन का कार्य हुआ विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, नाभि से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पत्ति मानी गई मुखमण्डल की भाॅति सर्वोच्चभाग ब्राह्मण में दो भेद हुआ एक मुखरन्ध्र। जिन्हें मुखज ब्राह्मण कहा- जिनका कार्य षटकर्म करना था। दूसरा वर्ग शिरोरन्ध्रा कहलाया जिसे शिरज कहा गया। जिनका उपनाम दीक्षा सन्यासी पडा। दीक्षा सन्यासी योगाश्रम एवं मठ में रहकर शिष्यों को यम, नियम, आसान, प्राणायम, प्रत्याहार, ध्यान व समाधि नामक अष्टांग योग की शिक्षा देते थे।
युग के भेद से उक्त दीक्षा सन्यासियों के आचार्यों का विभाजन हुआ-
1. सतयुग में इन दीक्षा सन्यासियों के आचार्य थे- ब्रह्मा, विष्णु, महेश
2. त्रेतायुग में इनके आचार्य थे- वशिष्ट, शक्ति, पाराशर।
3. द्वापर युग में इनके आचार्य थे- व्यास, शुकदेव।
4. कलयुग के आचार्य है-गौड, गोविन्द, शंड्ढराचार्य।

शंकराचार्य के चार शिष्य हुए :-

स्वरूपाचार्य, पùचार्य, त्रोटकाचार्य, पृथ्वीधराचार्य।
1. स्वरूपाचार्य, पùचार्य, त्रोटकाचार्य, पृथ्वीधराचार्य।
2. पùचार्य के शिष्य- वन, अरण्य कहलाए।
3. त्रोटकाचार्य के शिष्य- गिरि, पर्वत, सागर कहलाए।
4. पृथ्वीधराचार्य के शिष्य- सरस्वती, भारती और पुरी कहलाए।
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