शंकराचार्य का जन्म

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वेदांत के आदि गुरु श्री आद्य शंकराचार्य का जन्म लगभग 11 शताब्दी पूर्व त्रावणकोर के एक मलयाली ब्राह्मण के घर हुआ था. वे बहुत छोटे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. बचपन में ही उन्होंने वेदों और वेदांगों का पूरा अध्ययन कर लिया. उनके मन में सन्यस्त होने की बड़ी ललक थी और किसी गुरु की खोज में उन्होंने अपनी माता से घर त्यागने कीआज्ञा माँगी परन्तु माँ ने उन्हें हमेशा मना कर दिया.

उनके बारे में एक कथा यह भी कहती है कि नदी में एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया और उन्होंने अपनी माता को अपनी मृत्यु के साक्षात् दर्शन कराकर संन्यास के लिए अनुमति देनेपर विवश कर दिया परन्तु अधिकांश विद्वान इसे कहानी मात्र ही मानते हैं. वास्तविकता में एक दिन जब उन्होंने पुनः अपनी माता से संन्यास के लिए अनुमति माँगी तो माँ ने दुखी होकर उनसे कहा – “तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो. तुम्हारे संन्यास ले लेने के बाद मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?”

बालक शंकर ने माँ को वचन दिया कि वे जहाँ भी होंगे, माँ का अंतिम संस्कार करने अवश्य आयेंगे.

मलयाली ब्राम्हणों ने शंकर के इस निर्णय का घोर विरोध किया. उनके अनुसार एक ब्रह्मचारी को संन्यास लेने का और संन्यासी को अंतिम संस्कार करने का कोई अधिकार नहीं था. लेकिन शंकर ने उनकी एक न सुनी. सभी उनसे रुष्ट हो गए और उन्हेंजाति से बहिष्कृत कर दिया गया.

जब शंकर की माँ की मृत्यु हुई तो ब्राह्मण समाज का कोई भी व्यक्ति उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए आगे नहीं आया. शंकराचार्य न तो झुके और न ही उन्होंने अपना धीरज खोया. उन्होंने निर्जीव शरीर के कई टुकड़े कर दिए और स्वयं उन्हें एक-एक करके ले गए और अंतिम संस्कार किया.
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स्वामी रामतीर्थ Swami Ramtirtha

स्वामी रामतीर्थ (जन्म: २२ अक्टूबर १८७३[2] - मृत्यु: २७ अक्टूबर १९०६) वेदान्त दर्शन की साक्षात् मूर्ति थे। दीपावली के दिन जन्म, दीपावली को ही सन्यास तथा दीपावली वाले दिन ही जलसमाधि लेकर जो इतिहास उन्होंने रचा वह तो उल्लेखनीय है।

स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् १८७३ की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली को इन्होंने अध्ययन में रोड़ा नहीं बनने दिया। फलस्वरूप पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे।
परिवार में आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा पाना कठिन था। किन्तु शिक्षा के प्रति तीव्र रुचि ने अभावों में भी माध्यमिक पूर्ण कर बालक के मन को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। परिवारजनों का आग्रह था कि वे नौकरी करें तथा घर में सहयोग करें। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया।
इन सब परिस्थितियों से मार्ग निकालकर तीर्थराम शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चले गये। यहाँ उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित की। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये । बी० ए० में प्रथम आने पर इनको ९० रुपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। गणित इनका अत्यन्त प्रिय विषय था। उसकी तल्लीनता में ये दिन रात भूख प्यास सब भूल जाते थे। गणित विषय में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर[5] हो गये।

शिक्षा

'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात सें धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने मे अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।

संन्यास
रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भाँति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकातंवास के लिए चले गए और संन्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था।

राष्ट्र धर्म के पक्षधर

स्वामीजी हिन्दी के समर्थक थे और देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे। वे कहा करते थे कि राष्ट्र के धर्म को निजी धर्म से ऊँचा स्थान दो। देश के भूखे नारायणों की और मेहनत करने वाले विष्णु की पूजा करो। स्वामीजी ने जापान और अमेरिका की यात्रा की और सर्वत्र लोग उनके विचारों की ओर आकृष्ट हुए। वे स्वामी विवेकानंद के समकालीन थे और दोनों में संपर्क भी था। स्वामी जी ने व्यक्ति की निजी मुक्ति से शुरू होकर पूरी मानव जाति की पूर्ण मुक्ति की वकालत की। जिस आनंद के साथ वह वेदांत की पांरपरिक शिक्षा का प्रचार करते थे, उसी में उनका अनोखापन था। अक्सर वह धार्मिक प्रश्नों का जवाब दीर्घ हंसी के साथ देते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ वह पशिचमी विज्ञान एवं प्रौधोगिकी को भारत की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान का साधन भी मानते थे। उन्होंने जन शिक्षा के हर रूप का भरपूर समर्थन किया।

मृत्यु

1906 ई. में दीपावली के दिन, जब वे केवल 33 वर्ष के थे, टिहरी के पास भागीरथी में स्नान करते समय भंवर में फंस जाने के कारण उनका शरीर पवित्र नदी में समा गया। उनकी मृत्यु एक दुर्घटना थी या किसी षड़यंत्र के कारण ऐसा हुआ, यह उनके अनुयायियों के बीच आज भी रहस्य बना हुआ है।
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दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें ! Branches of Dashnami Shaiva sect!


दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें !

शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है। लेकिन इनमें एक व्यवस्था रही है कि जो गृहस्थ बनना चाहे वह परिवार बसा सकता है लेकिन इनको इस एक नियम का कठोरता से पालन करना होता था कि ये गृहस्थियों की बस्तियों में प्रवेश नहीं करेंगे।
जो मूल ब्राह्मण जाति जिसे आदि-ब्राह्मण या आदि गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था, स्वभावतः ही उनका आचरण तो यह था कि वे तो एकान्त में स्थापित अपनी कुटिया से या गुरूकुल से बाहर जाते ही नहीं थे और ना ही उनमें संयुक्त परिवार होते थे। सात वर्ष और अधिकतम बारह वर्ष की सन्तान ही उनके साथ रह पाती थी । तत्पश्चात् उनके बालक भी गुरूकुल के अन्य छात्रों की तरह ही रहते थे। वे बालकों के अलावा अन्य किसी भी वर्ग से सीधा सम्पर्क नहीं रखते थे फिर भी पूरा समाज उनके बताये मार्ग पर चलता था। जब भी साम्प्रदायिक समुदायों में वैमनस्य फैलता और नई मान्यताओं के साथ नई समाज व्यवस्था करनी होती थी तभी इनकी भूमिका शुरू होती थी बाक़ी ये ब्रह्म में रमण करने वाली ब्राह्मणी स्थिति को प्राप्त हुए रहते थे।
ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविक आचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।
दूसरे ब्राह्मण जिन्हें द्विज या साम्प्रदायिक ब्राह्मण कहा जाता था उनके लिए यह छूट थी कि ये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर सकते थे लेकिन इनका आसन अलग होता था। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जातियों के घरों में ही प्रवेश करते थे। इनके जाने के बाद गृहणी इनके आसन को घर के बाहर ले जाकर झाड़ती और फिर समेट कर रख देती थी। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जाति के घरों में ही जन्मे होते थे और यदि इनकी सन्तानों का आचरण असंयमित होता या वे अविद्वान होते तो उन्हें अपनी शिष्य जाति की लड़की से विवाह करके पुनः अपनी मूल जाति में आना होता था और पुनः निर्माण अथवा उत्पादन में लग जाते। ऐसा इसलिये था जिससे अयोग्य शिक्षक वर्ग की संख्या असीमित नहीं हो ताकि निर्माता एवं उत्पादक वर्ग पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़े।
वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे लेकिन सन्तानों की संख्या अधिक होने पर उस नई पीढ़ी को किसी न किसी निर्माण एवं उत्पादन से जुड़ी जाति में विलीन होना पड़ता था। ये वैष्णव गांव में प्रवेश कर सकते थे लेकिन किसी के घर में प्रवेश करना इनके लिए वर्जित था। इनको सिर्फ़ मन्दिर तथा गौचर भूमि तक जाने की छूट थी।
शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था। वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते।
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।
जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।
संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे तथा
नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।
उदासीन और वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या[साईको-थेरेपी] से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते।
आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे सन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे लेकिन इनका काम नवयुवा सन्यासियों को पढ़ाने[साक्षर करने] का था और उच्श्रृंखल नवयुवाओं को दण्ड देने का अधिकार सिर्फ इनके पास ही था। चुंकि सन्यास परम्परा गुरू चेला परम्परा होती है अर्थात् गुरू अपने सेवक[चेले] को प्रेक्टिकल जानकारी देता है अतः वह उसे दण्डित भी कर सकता है। अतः यह व्यवस्था बनाई गई कि दण्ड देने का अधिकार सिर्फ दण्डी स्वामी को ही होता था जो गुरूकुल चलाते थे। ये दण्डी, स्वामी-पुरी शाखा के अन्तर्गत ही रखे गये थे क्योंकि पुरी ही पुर अर्थात् परकोटे के अन्दर जा सकते थे।
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
1 पुरी - जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे।
2 तीर्थ - तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
3 आश्रम - आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
4 सरस्वती - जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
5 भारती = जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
6 वन = जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
7 अरण्य = जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
8 पर्वत = पहाड़, गिर, मेरू इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
9 गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
10 सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
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उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे

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1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । सिंधिया महाराज दौलत राव किसी चुगलने चुगली की और महंत लच्छी गिरि महाराज पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रुपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर ख़ून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच महाराज को जब असल बात और महन्त के महानता का बाद मे पता तो चला लेकिन बहोत देर हो चुकि थि महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।
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शिष्य परम्परा

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पुराणों में वेदव्यास की शिष्य परम्परा भी दी गयी है। वेदव्यास ने वेद की विविध शाखाओं को व्यवस्थित किया जिनके कारण श्रौत विधियों में अथर्वण मन्त्रों को स्थान मिला और अथर्वण शाखा का सुमन्तु वेदव्यास का प्रथम शिष्य बना।
वेदव्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि ‘शब्द’ या ‘श्रुति’ को उन्होंने एक प्रामाणिक रूप दिया। पिछले तीन हजार वर्षों से उनके द्वारा की गयी यह वेद-व्यवस्था आज तक अटूट चली आ रही है।
स्कन्द पुराण में जाबालि ऋषि की पुत्री व्यास की पत्नी वाटिका का उनके पुत्र शुकदेव के साथ हुआ संवाद दिया गया है। वाटिका इस संवाद में शुकदेव को गृहस्थाश्रमी बनने के लिए समझाती है।

यों तो शुकदेव को बाल संन्यासी माना जाता है किंतु हरिवंश तथा देवी भागवत सहित कई अन्य पुराणों में उन्हें विवाहित व सन्तानवान बताया गया है। देवी भागवत के अनुसार उनकी पत्नी का नाम पीवारी था और इनसे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त हुए थे।

शुकदेव ने पिता से प्रेरणा प्राप्त कर जो संन्यासियों की व्वस्था और प्रणाली प्रारंभ की थी वह करीब 30 शताब्दियों से आज तक सनातन धर्म की आधारशिला बनी हुई है। आदि शंकराचार्य ने इस प्रणाली का पुनर्निर्माण किया और इसे दशनामी संप्रदाय की संज्ञा प्रदान की।
वेदव्यास की प्रेरण सा स्थापित संन्यासियों की इस प्रथा ने सनातन धर्म को जीवित रखने में और भारत व अन्य देशों में इसकी आध्यात्मिक सुवास फैलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द तथा विवेकानन्द जैसे जिन संन्यासियों ने सनातन धर्म की ज्योति जाग्रत रखी है, वे इसी परम्परा के हैं।
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असंख्य शिवलिंग एवं शिवालय

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भारतवर्ष में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सभी जगह असंख्य शिवलिंग एवं शिवालय हैं। शायद ही ऐसा कोई शहर या गांव हो, जहां शिवलिंग किसी ना किसी रूप मे विराजमान न हों। शिवलिंग पूजन का विधान प्राचीनकाल से ही रहा है। इसके प्रमाण हड़प्पा सभ्यता से भी मिलते हैं। रोम और यूनान मे भी क्रमशः 'प्रियेपस' और 'फल्लूस' नाम से लिंग पूजा होती थी।

चीन और जापान के प्राचीन साहित्य में भी लिंगपूजा के साक्ष्य मिलते हैं। यहूदियों के देवता 'बेलफेगो' की पूजा भी लिंग रूप में होती थी। वैदिक साहित्य में भी शिव की उपासना का सर्वाधिक वर्णन लिंगरूप में ही हुआ है। अधिकतर लिंग मूर्तियां मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाती हैं, तथा लिंग के निचले हिस्से को पीठ रूप में स्थित रखा जाता है, जो कि योनि का रूप माना जाता है। वास्तव में शिवलिंग सृष्टि की उतपत्ति का मूल कारण पुरूष और प्रकृति का प्रतीक है। शिवलिंग पूजन का रहस्य समझने के लिए शिवलिंगों के विविध रूपों को जानना परमावश्यक है।

बाणलिंग : यह शिवलिंग नर्मदा नदी के गर्भ से प्राकृतिक रूप में मिलते हैं, जिन्हें नर्मदेश्वर भी कहा जाता है।

मानुषलिंग : यह शिवलिंग मनुष्य द्वारा स्वयं तैयार किए जाते हैं तथा इनका निचला भाग चैकोर होता है।

मुखलिंग : ऐसे शिवलिंगों मे पूजा के भाग पर मुखों की आकृतियां बनी होती हैं, जिनकी संख्या पांच तक हो सकती है।

गंगाधर मूर्ति : इनमें शिव की जटाओं में गंगा का निवास प्रदर्शित किया जाता है।

अर्द्धनारीश्वर मूर्ति : इनमें पुरूष एवं प्रकृति का मिश्रित रूप दर्शाया जाता है। इसका बायां भाग नारी तथा दायां भाग पुरूष का होता है।

कल्याण सुंदर मूर्ति : इसमें शिव-पार्वती के विवाह का दृश्य प्रकट होता है।

हरिहर मूर्ति : इनमें श्रीविष्णु एवं शिव का मिश्रित रूप होता है। बायां भाग श्रीविष्णु (हरि) का तथा दायां भाग शिवजी (हर) का होता

है।

महेश मूर्ति : ये मूर्तियां दो प्रकार की होती हैं। तीन सिरों वाली अथवा पांच सिरों वाली।

धर्म मूर्ति : इनमें चार मुख एवं हाथ होते हैं।

भिक्षाटन मूर्ति : इनमें शिव के बाएं हाथ में कंकाल एवं ध्वज तथा दाएं हाथ में भिक्षापात्र (खप्पर) होता है।

एकपद मूर्ति : इनमें शिवजी एक पांव पर खड़े होते हैं।

शिव और पार्वती संपूर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। शिवलिंग की पूजा उसके आधार पीठ के बिना नहीं की जाती है। शिवलिंग में लिंग को शिव तथा आधार पीठ को पार्वती का रूप माना जाता है। शिवलिंग के आधार पीठ (जलधारी) का झुकाव हमेशा उत्तर दिशा की ओर होता है। अतः शिवलिंग का एक रहस्य दिशाबोध भी है। जलाधारी को पांव का रूप माना जाता है, इसलिए इसमें शयन की स्थिति का ज्ञान होता है। वैदिक संस्कृति में सोते समय सिर दक्षिण दिशा की ओर तथा पांव उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए। प्रातः काल शिवलिंग की पूजा करते समय श्रद्धालु को इस प्रकार खड़े होना चाहिए कि जलाधारी उसके बाएं हाथ पर हो। यह शिव के उगते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं तथा प्रदोषकाल (सायंकाल) में पूजन करते समय जलाधारी का झुकाव दाएं हाथ की ओर होना चाहिए, यह शिव के डूबते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं।

अधिकतर मंदिरों में पूर्वमुखी अथवा पश्चिममुखी लिंग के दर्शन होते हैं। दक्षिणमुखी लिंग महाकाल का प्रतीक होता है। इसी प्रकार पांचमुखी शिवलिंग को पशुपतिनाथ कहा जाता है। शिवलिंग की पूजा भक्त की आवश्यकता के अनुसार किसी दिशा में बैठ कर की जा सकती है। शिव के पांच मुखों के नाम इस प्रकार हैं -

पूर्वामुख शिव : सोजात शिव। यह सृष्टि के निर्माता होते है।

पश्चिमीमुख शिव : अघोर शिव। यह सृष्टि के संहारकर्ता हैं।

उत्तरमुखी शिव : कामदेव शिव। यह सृष्टि के पालनकर्ता हैं।

दक्षिणमुखी शिव : तत्पुरूष शिव यह मुक्तिदाता होते हैं।

उर्ध्वमुखी शिव : ईशानदेव शिव। यह कृपाकर्ता हैं। प्राचीनकाल से ही प्रकृति की पूजा भिन्न-भिन्न रूपों में की जाती रही है, जिसके प्रमाण हमें सिंधु एवं वैदिक संस्कृति से प्राप्त होते हैं। कालिदास के शब्दों में शिवत्व के आठ भेद बताए गए हैं - जल, अग्नि, वायु, ध्वनि, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी एवं पर्वत। इन्हीं आठों का सम्मिश्रण प्रत्येक शिवलिंग में विराजमान रहता है। अतः एक शिवलिंग उपासना से प्रकृति के सभी रूपों का पूजन स्वतः ही हो जाता है।
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गृहस्थ दशनामी

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हम गृहस्थ दशनामी है यह कोइ साधारन बात नहि है । एक कथा आपको सुनाते है। लाहिडी महाश्य गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों । स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व रोटी का भी त्याग करना पड़ा, जी गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके गुरू महायोगी सर्वेश्वशनन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया । आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए । दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तप, इतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें दुख अधिक है व लाभ कम ।
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(ॐ ) शब्द को परमात्मा का पर्याय माना गया

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पांच अवयव- ‘अ’ से अकार, ‘उ’ से उकार एवं ‘म’ से मकार, ‘नाद’ और ‘बिंदु’ इन पांचों को मिलाकर ‘ओम’ एकाक्षरी मंत्र बनता है।

श्रीमद्भागवत गीता में ओम (ॐ ) शब्द को परमात्मा का पर्याय माना गया है। अनेक ऋषियों, मुनियों और संतों ने माना है कि ओम शब्द का निरंतर वाणी और मन से उच्चारण करने पर हृदय में पवित्र विचार आते हैं। बुद्धि और मन शुद्ध होकर सकारात्मक कार्यों के लिये प्रवृत्त होता हैं। ओम शब्द के वाणी से उच्चारण करने पर शरीर के सारे अंगों पर ऐसा प्रभाव होता है कि अंतर्मन में अद्भुत प्रकाश दीप प्रज्जवलित हो उठता है। उनके विचार तथा व्यवहार में यह प्रकाश विसर्जित दूसरे लोगों को भी प्रसन्नता देता हैं जिन लोगों को संस्कृत के श्लोक मन ही मन दोहराने में परेशानी होती है वह चाहें तो केवल ओम शब्द का जाप करें।
अथर्ववेद में कहा गया है कि

त्रयः सुपर्णास्त्रिवृता यदायत्रेकाक्षस्मभि-संभूय शका शका।
प्रत्यौहन्मृत्युमृतेन सत्कमन्तर्दधान्त दुरितानी विश्वा।।
हिन्दी में भावार्थ-जब समर्थ तीन सुवर्ण तिहरे होकर एक अक्षर में सब प्रकार मिल रहे हैं। वे अमृत के साथ सब अनिष्टों को मिटाकर मृत्यु को दूर करते हैं।
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धर्मध्वजा का इतिहास

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सनातम धर्म की रक्षा के लिए ’’धर्मध्वजा‘‘ की कमान अखाडों ने इलाहाबाद के कुम्भ में राजा हर्षवर्धन के समय में संभाली थी। राजा हर्षवर्धन ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अपनी फौज में धर्मध्वजा स्थापित की थी। जब हर्षवर्धन कीफौज कमजोर पडने लगी तथा उन्होने ’धर्मध्वजा‘ को संभाल पाने में असमर्थता जताई तब सन्यासियं ने कुम्भ पर्व ’’इलाहाबाद संगम प्रयाग‘‘में भार उठाया और तब से लगातार हिन्दू धर्म की रक्षा का दायित्व उठा रखा है। उसी समय से नागा संन्यासी अखाडों की परम्परा में धर्मध्वजा फहराने का प्रचलन शुरू हो गया। सर्वप्रथम नागा संन्यासिय द्वारा ध्वज फहराया गया। बाद में इस धर्मध्वजा को फहराने की परम्परा को बैरागी, उदासीन व निर्मल अखाडो ने भी अपनाया । दशनाम संन्यासी परम्परा के अखाडे व अन्य संप्रदायों के अखाडे द्वारा फहरायी जाने धर्मध्वजा की लम्बाई ५२ हाथ इसीलिये होती ह क्योंकि दशनामी, [हिं०दश+नाम] संन्यासियों के 52 मठी का प्रतीक है। राजा हर्षवर्धन ने उन्हें ५२ हाथ लंबी धर्मध्वजा प्रदान की थी,। जिस प्रकार सेना का अपना ध्वज होता है। उसी प्रकार अखाडो की भी अपनी ’ध्वजा‘ होती है। जिसे ’’धर्मध्वजा‘‘ कहा जाता है जिसके नचे अखाडो के साधु एक जुट होकर ’धर्म‘ की रक्षा के लिये डटे रहते हैं। धर्म ध्वजा की स्थापना के साथ ही अखाडों की कुम्भ मेलें में धार्मिक रीतिरिवाज की शुरूआत हो जाती है। धर्मध्वजा की स्थापना के बाद अखाडों की पेशवाई शुरू होती है। जो नगर का बडे जुलूस के रूप भ्रमण करते हुए अपनी-अपनी छावनियों में प्रवेश कर जाती है। पेशवाई में बैंडबाजे, घोडे हाथी, ऊॅट, ढोल नगाडे, तुरही, नागफनी, शंख, घंटे घडियाल, झांकियॅा सम्मिलित होती है। हाथी के ऊपर बडे-बडे सोने चांदी के सिंहासन होते है। जिनमें अखाडो के श्रीमहंत, महंत, आचार्य महामंडलेश्वर, महामण्डलेश्वर विराजमान होते ह। इस तरह पेशवाई में शामिल महंत ’महाराज‘ हो जाते है। यानि ’राजाओं के राजा ’महाराजा‘। पेशवाईयों की धाक देखते ही बनती है। नागा साधु भस्म लगाकर और अन्य साधु श्रृंगार करके पेशवाई में भाग लेते है। अखाडों की पेशवाई का कुम्भ नगरी हरिद्वार के लोग हर ग्यारह साल बाद कुम्भ महापर्व पडने पर बेसब्री से इन्तजार करते है। और पेशवाई का पुष्प बरसाकर जोरदार स्वागत करते है।
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परम पद को पा लेता है

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यत्र काले त्वनावृत्तिम् आवृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥
वह कौन सा समय है जब देह छोड़ कर योगी फिर से जन्म नहीँ लेते, और वह कौन सा समय है जब मृत्यु होने पर फिर जन्म लेना होता है – भरत श्रेष्ठ, अब मैँ तुझे यह बताता हूँ.

अग्निर् ज्योतिर् अहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः मास – ऐसे मेँ जाएँ तो ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म को पाते हैँ.

धूमो रात्रिस् तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर् योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
धूम क्षेत्र, रात, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन के छः महीने – ऐसे मेँ जाने पर योगी चंद्रलोक के प्रकाश को पा कर फिर लौट आता है.

शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्य् अनावृत्तिम् अन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥
इस संसार के ये दो शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गए हैँ. एक से जाने पर वापसी नहीँ होती. दूसरे से जाने पर लौट कर आना होता है.

नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग-युक्तो भवार्जुन ॥२७॥
पार्थ, इन दोनोँ मार्गोँ को जानने वाला योगी भ्रमित नहीँ होता. इस लिए, अर्जुन, तू हर काल मेँ योगी बन.

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्य-फलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदं विदित्वा योगी परं स्थानम् उपैति चाद्यम् ॥२८॥
वेद, यज्ञ, तपस्या और दान – ये सब पुण्य कर्म हैँ. इन्हेँ करने से अच्छा फल मिलता है. लेकिन जो योगी मेरे द्वारा बताई गई सब बातेँ जानता है, वह इन के फलोँ को त्याग कर आगे निकल जाता है और परम पद को पा लेता है.

जय दशनाम !
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