कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे ? How long will we continue to follow these old and dirty rituals?

 रघुवीर, एक साधारण किसान, जिसने अपनी पूरी जिंदगी ईमानदारी और मेहनत से जी है, आज उसकी बेटी की शादी की बात चलते ही उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी परीक्षा शुरू हो गई। उसकी बेटी, सुजाता, उसकी आँखों का तारा थी। लेकिन जब से सुजाता का रिश्ता तय हुआ, रघुवीर के मन में खुशी की जगह चिंता ने ले ली।

कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे ? How long will we continue to follow these old and dirty rituals?

शुरुआत होती है रिश्ते की बातचीत से। जब रिश्ता पक्का हुआ, तो समाज के रस्म-रिवाजों का बोझ धीरे-धीरे उसके कंधों पर भारी पड़ने लगा। पहले 10 लाख रुपये का दहेज मांगा गया। फिर 5 लाख रुपये का खाना, घड़ी, अंगूठी, और मंडे के खाने की मांग की गई। जैसे-जैसे शादी का दिन नजदीक आया, रघुवीर को समझ आने लगा कि यह शादी नहीं, बल्कि एक बोझ बनती जा रही है।

हर रस्म में, हर कदम पर, एक नई मांग खड़ी हो जाती। सुसराल वालों के लिए कपड़े, बारात का खाना, और जाते समय बारात के लिए खाना भेजना—इन सबके बीच रघुवीर की स्थिति और कमजोर होती चली गई। उसकी बेटी सुजाता हर दिन अपने पिता के चेहरे पर चिंता की लकीरों को गहराता देखती। वह समझ रही थी कि उसके पिता उसके लिए कितना कुछ सहन कर रहे हैं।

शादी की तैयारियों के बीच, रिश्तेदारों का आना-जाना भी शुरू हो गया। कभी नंद आ रही थी, कभी जेठानी, तो कभी चाची सास और मुमानी सास। टोली बना-बना कर लोग आते, और रघुवीर की पत्नी, निर्मला, चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए सबका स्वागत करती। उन्हें आला से आला खाना खिलाया जाता, और जाते समय 500-500 रुपये दिए जाते। लेकिन हर बार निर्मला की मुस्कान के पीछे छिपे दर्द को केवल रघुवीर ही समझ पाता था।

मंगनी और बियाह की रस्में पूरी हो रही थीं, लेकिन रघुवीर की चिंता बढ़ती जा रही थी। बारात के लोगों की संख्या तय की जा रही थी—500 या 800। यह सोच-सोच कर रघुवीर का दिल बैठा जा रहा था। बाप का एक-एक बाल कर्ज में डूबता जा रहा था। और जब वह थका-मांदा शाम को घर लौटता, तो उसकी बेटी सुजाता उसके पास आकर उसका सर दबाने बैठ जाती। उसकी आँखों में अपने पिता के लिए आंसू थे, क्योंकि वह जानती थी कि उसके कारण उसके पिता कर्ज में डूब रहे थे।

शादी का दिन आ ही गया। सुजाता की विदाई का समय आया तो रघुवीर की आँखों में आंसू थे। वह जानता था कि उसने अपनी बेटी को समाज की इस विकृत परंपरा के चलते एक भारी बोझ के साथ विदा किया है।

सुजाता ने विदाई के वक्त अपने पिता के कान में कहा, "पिताजी, आपने मेरे लिए जो कुछ भी किया, वह मैं कभी नहीं भूलूंगी। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि इस समाज ने आपको इतना मजबूर कर दिया कि आप अपनी बेटी को इज्जत से विदा करने के बजाय कर्ज के बोझ तले दब गए।"

रघुवीर ने सुजाता को गले लगाते हुए कहा, "बेटी, तुम हमेशा खुश रहो। मैं इस समाज के गंदे रस्म-रिवाजों को बदलने के लिए हर संभव कोशिश करूंगा, ताकि कोई और पिता अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज में न डूबे।"

यह कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे? कब तक बाप अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज में डूबता रहेगा? क्या हमें बदलाव की जरूरत नहीं है?

यह समय है कि हम जागें और इन बुरे प्रथाओं का विरोध करें, ताकि हर बाप अपनी बेटी को इज्जत से, खुशी से विदा कर सके, बिना किसी कर्ज के बोझ के।

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कहाँ गए हमारे संस्कार ? Where have our values ​​gone?

 कहाँ गए हमारे संस्कार ?

कहाँ गए हमारे संस्कार ? Where have our values ​​gone?


1. गाने और मनोरंजन की बदलती परिभाषा:

पहले के समय में, जब गानों का चयन सोच-समझकर किया जाता था, कुछ पुरुष रात के अंधेरे में छिपकर उन गीतों को सुनते थे, जिनमें अश्लीलता का अंश होता था। ये गाने आमतौर पर कोठों पर सुने जाते थे और समाज से छिपाए जाते थे। लेकिन आज, वह समय नहीं रहा। आज के दौर में, वही गाने जिन्हें 'आइटम सॉन्ग्स' का नाम दिया गया है, खुलेआम हमारे घरों में बजते हैं, और बहन-बेटियों के साथ मिलकर इन्हें सुना जाता है। यही नहीं, समारोहों में इन्हीं गानों पर उत्तेजक नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं, जो कभी शर्मनाक समझे जाते थे, अब वह सामाजिक समारोहों का हिस्सा बन गए हैं।

2. आइटम सॉन्ग्स और अभिनेत्री का बदलता मापदंड:

पहले के दौर में, जो अभिनेत्रियाँ आइटम सॉन्ग्स करती थीं, उन्हें बी-ग्रेड की अभिनेत्री माना जाता था। समाज में उनकी जगह सीमित होती थी। लेकिन आज, वही अभिनेत्रियाँ जो कभी बी-ग्रेड में गिनी जाती थीं, अब ए-ग्रेड में शामिल होती हैं। ये अभिनेत्रियाँ आज अपनी अश्लील हरकतों को पर्दे पर प्रस्तुत करके अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं और पुरस्कार तक जीतती हैं। यह परिवर्तन सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज के सोचने के तरीके में भी देखा जा सकता है।

3. रतिचित्रित फिल्मों और अभिनेत्रियों का उदय:

पहले, रतिचित्रित फिल्मों की अभिनेत्रियों को समाज में घृणा की नजर से देखा जाता था। उनकी प्रतिष्ठा का स्तर बहुत निम्न माना जाता था। लेकिन आज, भारत के जाने-माने निर्देशक इन अभिनेत्रियों को अपनी फिल्मों में ब्रेक देते हैं। इस वजह से, भारतीय अभिनेत्रियों और किशोरियों के लिए फिल्मों में प्रवेश का एक नया मार्ग खुल गया है। यह परिवर्तन इतना व्यापक हो चुका है कि अब उन्हें टीवी शो, सीरियल, और अन्य मनोरंजन माध्यमों में भी स्थान दिया जा रहा है। ऐसे बदलाव से समाज में एक नई दिशा उत्पन्न हो रही है, जिसमें यह कहना मुश्किल हो गया है कि क्या सही है और क्या गलत।

4. शराब, गाली और जुआ:

पहले, शराब पीना, गाली देना और जुआ खेलना जैसी आदतों को समाज में बहुत नीच और अपमानजनक कृत्य माना जाता था। लोग इन आदतों से दूर रहते थे और इन्हें समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलती थी। लेकिन आज, समाज का यह दृष्टिकोण पूरी तरह बदल चुका है। अब समारोहों में सरेआम शराब परोसी जाती है, और इसे आधुनिकता का प्रतीक समझा जाता है। महिलाओं का भी इसमें शामिल होना, अब समाज में आम बात हो गई है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि हमारी नैतिकता और संस्कृति कहाँ जा रही है?

5. माँ की शिक्षा और समाज का प्रभाव:

पहले की माँओं का प्रयास होता था कि उनकी बेटियाँ कभी सार्वजनिक रूप से असहज न महसूस करें। वे अपनी बेटियों को सिखाती थीं कि कैसे अपने आप को ढककर रखा जाए, कैसे आचरण किया जाए। लेकिन आज, वे ही माँएं अपनी बच्चियों को 'ब्यूटी कॉन्टेस्ट' और 'मॉडलिंग' जैसे क्षेत्र में धकेल रही हैं, जहाँ स्विमिंग सूट राउंड जैसी प्रतियोगिताएं होती हैं। इस दौर में, माँओं का यह सोच बदल चुका है कि उनकी बेटियों को सामाजिक मंच पर कैसे प्रस्तुत होना चाहिए। और दुख की बात यह है कि यह बदलाव समाज में गर्व के साथ स्वीकार किया जा रहा है।

6. वेशभूषा और लज्जा का सवाल:

पहले, जब किसी युवती की चुनरी वक्षस्थल से हट जाती थी, तो वह तुरंत असहज महसूस करती थी और उसे ढकने का प्रयास करती थी। यह लज्जा का प्रतीक था। लेकिन आज, सलवार के साथ चुनरी का गायब होना, और शर्ट, टॉप, जीन्स जैसे परिधानों का प्रचलन बढ़ गया है। इस बदलाव ने न सिर्फ हमारे परिधान को, बल्कि हमारे आचरण, स्वभाव और व्यक्तित्व पर भी गहरा प्रभाव डाला है। यह धीमा जहर मार्केट ने समाज के हर हिस्से में फैला दिया है, और हम इसे आधुनिकता का नाम देकर अपनाते जा रहे हैं।

अंत में:

'मॉडर्नाइजेशन' ने सिर्फ 75 वर्षों में हमारी लाखों साल पुरानी संस्कृति को निगल लिया है, और भारत को 'इंडिया' में बदल दिया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय परिवार ही भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है, तो हमें अपने परिवारों में इसे संरक्षित करना होगा। परिवार के भीतर ही हमें अपने बच्चों को सही संस्कार देना होगा, ताकि हम अपनी संस्कृति को बनाए रख सकें और इसे अगले पीढ़ी तक पहुंचा सकें।

ध्यान रखिए: संस्कार हमारी पहचान हैं। अगर हमने इन्हें खो दिया, तो हम खुद को भी खो देंगे।

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शब्द नफरत या मोहब्बत का बीज बो सकते हैं, इसलिए, सोच-समझकर बोलें Words can sow the seeds of hatred or love, therefore, speak thoughtfully.

 एक दिन रिया और उसकी सहेली नीलम एक कैफे में बैठी थीं, दोनों अपनी-अपनी ज़िंदगी की बातें कर रही थीं। बातचीत के दौरान नीलम ने रिया से पूछा, "तुम्हारे घर में तो हाल ही में खुशखबरी आई थी, बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया?"

शब्द नफरत या मोहब्बत का बीज बो सकते हैं, इसलिए, सोच-समझकर बोलें Words can sow the seeds of hatred or love, therefore, speak thoughtfully.

रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "कुछ भी नहीं, नीलम।"

नीलम का चेहरा थोड़ा हैरानी भरा हो गया। उसने सवाल करते हुए कहा, "क्या यह अच्छी बात है? क्या तुम्हारे पति की नजर में तुम्हारी कोई कीमत नहीं?"

लफ्ज़ों का यह ज़हरीला बम गिरा कर नीलम ने रिया को उसकी सोच और फिक्र में उलझा दिया और फिर कैफे से उठकर चली गई। रिया उस वक्त तो कुछ नहीं बोली, लेकिन नीलम के इन शब्दों ने उसके दिल में एक बवंडर सा खड़ा कर दिया।

शाम को जब रिया का पति, अमित, घर लौटा, उसने देखा कि रिया का चेहरा लटका हुआ था। उसने तुरंत पूछा, "क्या हुआ, रिया? सब ठीक तो है?"

लेकिन रिया ने बात टाल दी और कहा, "कुछ नहीं, बस यूं ही।"

हालांकि, रिया के अंदर नीलम के शब्द गूंज रहे थे। धीरे-धीरे इस असंतोष ने रिया और अमित के बीच दूरी पैदा कर दी। हर छोटी-छोटी बात पर दोनों में झगड़ा होने लगा। एक दिन, जब झगड़ा अपनी चरम सीमा पर पहुंचा, तो दोनों ने एक-दूसरे को कड़वी बातें कह दीं। हालात इस कदर बिगड़ गए कि आखिरकार दोनों का तलाक हो गया।

इस पूरी घटना की शुरुआत उस फिजूल के सवाल से हुई थी, जो नीलम ने बिना सोचे-समझे रिया से पूछा था।

दूसरी ओर, रवि और उसके जिगरी दोस्त सुनील की कहानी है। रवि ने एक दिन सुनील से पूछा, "तुम कहाँ काम करते हो?"

सुनील ने जवाब दिया, "मैं फ्लोरा स्टोर में काम करता हूँ।"

रवि ने हैरानी से कहा, "फ्लोरा स्टोर में? वहां तो तनख्वाह बहुत कम होती होगी। कितनी तनख्वाह मिलती है?"

सुनील ने कहा, "अठारह हजार रुपये मिलते हैं।"

रवि ने फिर तंज कसते हुए कहा, "अरे बस! इतने में तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है, यार?"

सुनील ने गहरी सांस खींचते हुए जवाब दिया, "क्या बताऊँ, रवि।"

रवि की ये बातें सुनील के दिल में घर कर गईं। कुछ दिनों बाद, सुनील अपने काम से बेरूखा हो गया। उसने अपने बॉस से तनख्वाह बढ़ाने की मांग कर दी। लेकिन जब उसकी मांग नहीं मानी गई, तो उसने नौकरी छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। अब उसके पास न तो नौकरी थी और न हीं कोई साधन जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। पहले वह किसी तरह गुजारा कर रहा था, लेकिन अब उसके पास कुछ भी नहीं था। रवि के बिना सोचे-समझे सवाल ने सुनील की जिंदगी में मुश्किलें बढ़ा दीं।

अब हम आते हैं एक और कहानी पर। रामशरण, एक बुजुर्ग व्यक्ति, जो अकेले रहते थे। उनका बेटा, अजय, जो शहर में नौकरी करता था, कभी-कभी उनसे मिलने आता था। रामशरण अपने बेटे के व्यस्त जीवन को समझते थे और कभी शिकायत नहीं करते थे।

लेकिन एक दिन, उनका एक पुराना दोस्त, मोहन, उनसे मिलने आया और कहा, "तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही?"

रामशरण ने जवाब दिया, "अरे नहीं, मोहन। अजय बहुत व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है। उसके बीवी-बच्चे भी हैं, उसे वक्त कम मिलता है।"

मोहन ने फिर से तंज करते हुए कहा, "वाह! यह क्या बात हुई? तुमने उसे पाला-पोषा, उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, और अब उसे बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता! यह तो ना मिलने का बहाना है।"

इस बातचीत के बाद, रामशरण के दिल में अजय के प्रति एक शंका पैदा हो गई। जब भी अजय मिलने आता, रामशरण यही सोचते रहते कि उनके बेटे के पास सबके लिए वक्त है, सिवाय उनके।

धीरे-धीरे, इस शंका ने रामशरण और अजय के रिश्ते में एक खटास पैदा कर दी। अजय ने महसूस किया कि उसके पिता अब उससे उतने प्यार से बात नहीं करते, जितना पहले करते थे। वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो उसके पिता अब उससे नाराज रहने लगे हैं।

ये सभी घटनाएं हमें यह सिखाती हैं कि शब्दों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

हम अक्सर सोचते हैं कि हमारे सवाल मासूम हैं और हम बस हालचाल जानने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बिना सोचे-समझे बोले गए ये शब्द किसी की ज़िंदगी में नफरत और शंका का बीज बो सकते हैं।

जैसे-

तुमने यह क्यों नहीं खरीदा?

तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है?

तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे बिता सकते हो?

तुम उसे कैसे मान सकते हो?

इन सवालों का असर हो सकता है, भले ही वे हमें मामूली लगते हों।

आज के समय में हमारे समाज और घरों में जो तनाव बढ़ता जा रहा है, उसकी जड़ में अक्सर ऐसे ही सवाल और बातें होती हैं, जिन्हें हम बिना सोचे-समझे बोल देते हैं।

हमें यह समझना चाहिए कि शब्दों की शक्ति बहुत होती है।

इसलिए, हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम दूसरों के जीवन में सकारात्मकता फैलाएं, न कि नकारात्मकता।

लोगों के घरों में जाकर उनकी समस्याओं पर नमक छिड़कने के बजाय, हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम उनकी समस्याओं का समाधान बनें।

याद रखें, जब भी हम किसी के घर जाएं, तो उनकी खुशियों का हिस्सा बनें, न कि उनकी समस्याओं का कारण।

जुबान से निकले शब्द नफरत या मोहब्बत का बीज बो सकते हैं। इसलिए, सोच-समझकर बोलें।

कभी-कभी, अंधे बनकर किसी के घर जाएं और वहां से गूंगे बनकर निकलें।

यह विचार जीवन को सुखद और संबंधों को मजबूत बना सकता है।

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असली दौलत गहनों और कपड़ों में नहीं, बल्कि उन रिश्तों में होती है Real wealth is not in jewelry and clothes, but in relationships

 माँ की मृत्यु के बाद घर की फिजा में एक अजीब सी खामोशी पसर गई थी। चारु का मन भारी था, और उसकी आँखों में आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। तेरहवीं की रस्म पूरी हो चुकी थी, और घर में अब केवल माँ की यादें ही बची थीं। चारु ने अपने भाई, अर्जुन, से विदा लेने का मन बनाया। उसके होंठ कांप रहे थे और आँखों से बहते आँसू उसकी बेचैनी को बयान कर रहे थे।

असली दौलत गहनों और कपड़ों में नहीं, बल्कि उन रिश्तों में होती है Real wealth is not in jewelry and clothes, but in relationships

"भैया, सब काम खत्म हो गए, माँ चली गई... अब मैं चलती हूँ," चारु ने नम आवाज में कहा, मानो खुद को समझा रही हो।

अर्जुन, जो खुद भी अपने आंसुओं को छुपाने की कोशिश कर रहा था, ने चारु की ओर देखा। उसने कुछ सोचते हुए कहा, "रुक चारु, अभी एक काम बाकी है... ये ले, माँ की अलमारी की चाभी। तुझे जो सामान चाहिए, तू ले जा।" कहते हुए उसने चाभी चारु के हाथों में थमा दी।

चारु ने एक नजर चाभी पर डाली और फिर भाभी, सुमन, की ओर देखते हुए बोली, "नहीं भाभी, ये आपका हक है। आप ही खोलिए।" चारु ने चाभी सुमन के हाथों में रख दी।

सुमन ने अर्जुन की स्वीकृति पाकर अलमारी खोली। अलमारी के दरवाजे खोलते ही सामने माँ के कीमती गहने और सुंदर कपड़े दिखाई दिए। अर्जुन ने प्यार से कहा, "देख, ये माँ के गहने और कपड़े हैं। तुझे जो चाहिए, ले जा। माँ की चीज़ों पर सबसे ज्यादा हक़ बेटी का होता है।"

चारु ने एक पल के लिए गहनों और कपड़ों की ओर देखा, लेकिन उसके चेहरे पर एक अलग ही भावना उभर आई। वह धीमी आवाज में बोली, "भैया, मैंने तो हमेशा इन गहनों और कपड़ों से कहीं ज्यादा कीमती चीज़ यहाँ देखी है। मुझे वही चाहिए।"

अर्जुन ने हैरान होते हुए पूछा, "चारु, हमने माँ की अलमारी को हाथ भी नहीं लगाया। जो कुछ भी यहाँ है, तेरे सामने है। आखिर किस कीमती चीज़ की बात कर रही है तू?"

चारु ने एक गहरी सांस ली और सुमन की ओर देखते हुए कहा, "भैया, इन गहनों और कपड़ों पर तो भाभी का हक है, क्योंकि उन्होंने माँ की सेवा बहू बनकर नहीं, बल्कि बेटी बनकर की है। मुझे तो वो कीमती चीज़ चाहिए, जो हर बहन और बेटी चाहती है।"

सुमन ने चारु की बात सुनकर उसकी ओर प्यार भरी नजरों से देखा और बोली, "दीदी, मैं समझ गई कि आपको किस चीज़ की चाह है। आप चिंता मत कीजिए, माँ के बाद भी आपका यह मायका हमेशा सलामत रहेगा। लेकिन फिर भी, माँ की कोई निशानी समझकर कुछ तो ले लीजिए।"

चारु की आँखें आंसुओं से भर आईं और वह सुमन के गले लग गई। उसके दिल में सुमन के लिए अपार प्रेम और कृतज्ञता उमड़ आया। चारु ने सिसकते हुए कहा, "भाभी, जब मेरा मायका सलामत है, मेरे भाई और भाभी के रूप में, तो मुझे किसी निशानी की जरूरत नहीं। फिर भी, अगर आप कहती हैं, तो मैं यह हंसते-खेलते मेरे मायके की तस्वीर ले जाना चाहूंगी, जो मुझे हमेशा यह एहसास कराएगी कि भले ही माँ नहीं रही, लेकिन मेरा मायका है।"

चारु ने धीरे से परिवार की तस्वीर उठाई, जिसमें माँ, पिता, अर्जुन, सुमन, और खुद उसकी भी तस्वीर थी। यह तस्वीर उन हंसी-खुशी के पलों की याद दिलाती थी, जो अब केवल यादों में ही बसते थे। उसने एक आखिरी बार अपने भाई और भाभी को गले लगाया और नम आँखों से विदा ली।

जैसे ही वह घर के दरवाजे की ओर बढ़ी, उसके दिल में एक अजीब सा सुकून था। माँ की यादें और अपने भाई-भाभी का प्यार ही उसके लिए सबसे बड़ी विरासत थी। उस दिन चारु ने समझा कि असली दौलत गहनों और कपड़ों में नहीं, बल्कि उन रिश्तों में होती है, जो जीवनभर साथ रहते हैं, चाहे समय कितना भी बदल जाए।

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जो दिल से कमाई जाती हैं—इंसानियत, प्यार और सम्मान Those earned from the heart – humanity, love and respect

 किशनगढ़ के रईस सेठ, रामदास जी, अपनी ईमानदारी और उदारता के लिए पूरे इलाके में मशहूर थे। उनके घर में कई नौकर काम करते थे, जो उनके परिवार के सदस्य जैसे ही थे। उनमें से एक था शंकर, जो रामदास जी के परिवार और सभी नौकरों के लिए खाना बनाता था। शंकर का स्वभाव शांत और मेहनती था, और वह अपने काम में बहुत निपुण था।

एक दिन, जब रामदास जी अपने भोजन के लिए बैठे, तो उन्होंने देखा कि सब्जी में कुछ अजीब सा स्वाद है। उन्होंने सब्जी चखी तो समझ गए कि शंकर ने गलती से सब्जी में नमक की जगह चीनी डाल दी है। परंतु, उन्होंने बिना कुछ कहे बड़े चाव से पूरी सब्जी खा ली। शंकर, जो खाने के दौरान ही रसोई के कामों में व्यस्त था, इस गलती से अनजान था।

खाना खत्म होने के बाद, रामदास जी ने शंकर को अपने पास बुलाया और स्नेह भरे स्वर में पूछा, "शंकर, क्या तुम परेशान हो? तुम्हारे चेहरे पर थकावट झलक रही है। क्या बात है?"

शंकर ने अपने चेहरे पर चिंता की लकीरों को छिपाने की कोशिश की, लेकिन फिर बोला, "सेठ जी, मेरी पत्नी पिछले कई दिनों से बीमार है। रात भर उसकी देखभाल में ही बीत जाती है, इसलिए शायद काम में थोड़ी गलती हो गई।"

रामदास जी ने उसकी स्थिति समझते हुए उसे कुछ पैसे दिए और कहा, "शंकर, तुम अभी घर चले जाओ और अपनी पत्नी की देखभाल करो। जब तक वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती, तुम्हें काम पर आने की कोई जरूरत नहीं। और अगर पैसों की जरूरत पड़े, तो बिना संकोच के आकर मुझसे ले जाना।"

शंकर की आँखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आए। उसने सेठ जी के चरणों में झुककर धन्यवाद दिया और घर की ओर चल पड़ा।

शंकर के जाने के बाद, रामदास जी की पत्नी, सविता देवी, जो कि सेठानी के नाम से जानी जाती थीं, कुछ चिंतित होकर बोलीं, "आपने उसे अभी क्यों जाने दिया? बाकी लोग अभी तक भूखे हैं, सारा काम पड़ा है।"

रामदास जी मुस्कुराते हुए बोले, "सविता, शंकर की नीयत साफ और दिल बड़ा है। वह अपनी पत्नी की बीमारी के बावजूद एक दिन की छुट्टी भी नहीं ले रहा था, क्योंकि उसे हमारे परिवार की चिंता थी। आज उसने सब्जी में नमक की जगह चीनी डाल दी, और मैंने जानबूझकर उसके सामने कुछ नहीं कहा, ताकि उसे अपनी गलती का पता न चले।"

सविता देवी ने आश्चर्य से पूछा, "लेकिन यह तो बहुत छोटी सी गलती है। बाकी लोग जब यह सब्जी खाएंगे तो शंकर का मजाक उड़ाया जाएगा और उसे शर्मिंदगी महसूस होगी। इसलिए मैंने इसे जानवरों को खिला देने का सुझाव दिया और नई सब्जी बनवाने की बात कही।" 

जो दिल से कमाई जाती हैं—इंसानियत, प्यार और सम्मान Those earned from the heart – humanity, love and respect

सविता देवी ने सर हिलाते हुए कहा, "आप भी कमाल करते हैं, रामदास जी। हमारे पास संपत्ति है, सम्मान है, फिर भी आप नौकरों की इतनी चिंता क्यों करते हैं?"

रामदास जी ने अपनी पत्नी के चेहरे पर नजरें टिकाते हुए गहराई से कहा, "सविता, जो कुछ भी हमारे पास है, वह इन लोगों की मेहनत और ईमानदारी का फल है। पैसे और संपत्ति असली संपत्ति नहीं हैं, बल्कि यह रिश्ते और मानवता ही असली धन हैं। जो सम्मान और प्यार हमने इस जीवन में कमाया है, मैं उसे कभी नहीं खोना चाहता।"

सविता देवी ने अपने पति की बातों को ध्यान से सुना और मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया। उन्होंने समझा कि जीवन में सबसे मूल्यवान चीज़ें वे हैं, जो दिल से कमाई जाती हैं—इंसानियत, प्यार और सम्मान। रामदास जी का यह दृष्टिकोण ही उन्हें बाकी लोगों से अलग बनाता था और यही कारण था कि उनके घर के नौकर-चाकर भी उन्हें अपने परिवार के सदस्य जैसा ही मानते थे।

उस दिन सविता देवी ने अपनी आँखों से देखा कि असली धन दौलत नहीं, बल्कि वह प्यार और आदर है, जो जीवन के हर रिश्ते में झलकता है। यही वह संपत्ति थी, जिसे रामदास जी ने सालों से संजोकर रखा था, और वह इसे कभी खोना नहीं चाहते थे।

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समझदारी से हर गलतफहमी को दूर किया जा सकता है Every misunderstanding can be removed with understanding

 चालीस पार के मोहन ने आखिरकार अपने ऑफिस की सहकर्मी, सुधा से शादी कर ली। सुधा, एक अनाथ लड़की थी, जिसने अपने चाचा-चाची के घर पर पनाह पाई थी। वहीं दूसरी ओर, मोहन का परिवार भी कुछ खास बड़ा नहीं था। पिता का देहांत मोहन के बचपन में ही हो गया था, और परिवार में अब सिर्फ मोहन और उसकी बीमार माँ, सुषमा जी ही थे।

समझदारी से हर गलतफहमी को दूर किया जा सकता है Every misunderstanding can be removed with understanding

शादी के बाद, सुधा ने घर के कामों को बड़ी ही सहजता और कुशलता से संभाल लिया। वह अपने सासूमां का बहुत ख्याल रखती, उनके दवाओं से लेकर भोजन तक, सब कुछ समय पर करती थी। सुषमा जी भी अपनी नई बहू से बेहद खुश थीं। दोनों का रिश्ता भी समय के साथ मधुर होता चला गया। लेकिन शादी के एक साल बाद, सुषमा जी ने एक बात नोटिस की – सुधा अब उनके पास बैठकर खाना नहीं खाती थी।

पहले, दोनों सास-बहू एक साथ खाना खाती थीं, बातें करती थीं, और रसोई के काम में भी एक-दूसरे की मदद करती थीं। लेकिन अब, सुषमा जी की तबियत खराब रहने लगी थी, जिस कारण वे रसोई के कामों में हाथ नहीं बंटा पाती थीं। सुधा अकेले ही सब कुछ संभाल रही थी, लेकिन एक बात सुषमा जी के मन को कचोट रही थी – उनकी बहू अब उनसे दूर क्यों बैठकर खाती है?

एक शाम, सुधा ने सुषमा जी को चाय और बिस्किट लाकर दी। खुद भी चाय का कप लेकर वह कुछ दूरी पर बैठ गई और एक लाल रंग के डब्बे से कुछ खाने लगी। सुषमा जी ने दूर से ही देखा और सोचा, "पता नहीं, यह बहू मुझे बिस्किट देकर खुद क्या खा रही है।"

सुषमा जी के दिमाग में तरह-तरह के ख्याल आने लगे। "जरूर कुछ अच्छा ही खा रही होगी, तभी तो मुझसे दूर बैठती है," उन्होंने खुद से कहा। उन्होंने मन में सोचा, "शायद अब मेरी बहू को मुझसे दूरी अच्छी लगने लगी है।"

रात को सुषमा जी को नींद नहीं आई। उनका मन बार-बार उस लाल डब्बे की तरफ खिंचता रहा। "आखिर क्या हो सकता है उस डब्बे में?" वे सोचने लगीं। मन ने कहा, "जाकर देखना चाहिए।" आखिरकार, उनकी बेचैनी इतनी बढ़ गई कि वे धीरे-धीरे रसोई में गईं। कांपते हाथों से उन्होंने उस लाल डब्बे को उतारने की कोशिश की, लेकिन डब्बा उनके हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और जोर से आवाज आई।

धड़ाम!

सुधा और मोहन आवाज सुनकर दौड़े-दौड़े रसोई में पहुंचे। "क्या हुआ, माँजी? कुछ चाहिए था क्या?" सुधा ने पूछा।

सुषमा जी ने सकपकाते हुए जवाब दिया, "वो... दवाई से मुंह कड़वा हो गया था, इसलिए शक्कर का डब्बा ढूंढ रही थी।"

सुधा ने जल्दी से सफाई करते हुए कहा, "माँजी, मुझे बोल दिया होता, मैं निकाल देती। खैर, कल से मैं आपके कमरे में ही मिश्री रख दिया करूंगी।"

जब सुषमा जी ने ध्यान से उन बिखरे टुकड़ों को देखा, तो पाया कि वे बस मीठे-नमकीन बिस्किट के टूटे हुए टुकड़े थे। सुधा ने उन टुकड़ों को जल्दी-जल्दी समेट लिया, लेकिन सुषमा जी के मन में एक गहरी चोट लगी। वे सोचने लगीं, "कितनी गलतफहमी पाल रखी थी मैंने। मेरी बहू तो मुझे साबुत बिस्किट देती है और खुद टूटे हुए टुकड़े खाती है।"

दूसरे दिन, शाम को सुधा ने सुषमा जी को चाय और बिस्किट लाकर दिए। इस बार, सुषमा जी ने अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाईं और कहा, "बहू, मेरे दांतो से बिस्किट जल्दी नहीं टूटते, तो तुम मुझे वो टुकड़े दे दिया करो।"

सुधा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "नहीं, माँजी। वो तो जब भी कोई नया पैकेट खोलती हूँ, कुछ टुकड़े निकल ही जाते हैं। बस उन्हें अलग डिब्बे में रख देती हूँ। आप देखती हैं, घर में कोई भी आ सकता है, ऐसे में मैं खुद अंदर की तरफ बैठकर खा लेती हूँ, ताकि कोई देखे नहीं।"

सुधा की बातें सुनकर सुषमा जी के आँखों में आँसू आ गए। उन्हें अपनी सोच पर शर्मिंदगी महसूस हुई। उन्होंने अपने भीतर की छोटी सोच को अपने आँसूओं के साथ बहने दिया और महसूस किया कि वे दुनिया की सबसे भाग्यशाली सास हैं, जिन्हें सुधा जैसी बहू मिली है।

इस कहानी ने यह सिखाया कि रिश्तों में छोटी-छोटी गलतफहमियों का बड़ा असर हो सकता है, लेकिन सच्चे प्यार और समझदारी से हर गलतफहमी को दूर किया जा सकता है। अब, सुषमा जी और सुधा के बीच का रिश्ता और भी मजबूत हो गया था, जो कि केवल विश्वास और प्यार के धागों से बुना हुआ था।

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नानी की कहानी, दादी का प्यार, क्यों बुलाता है बचपन हर बार ? Grandmother's story, grandmother's love, why does childhood call every time?

 बचपन की बहुत सी धुंधली पड़ी यादों में आज भी नानी के घर की यादें बिल्कुल ऐसी ताज़ा हैं, जैसे कल ही की बात हो। गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां इसलिए अच्छी लगती थीं, क्योंकि उन छुट्टियों को हम नानी के घर जाकर बिताते थे। सारा दिन मौज-मस्ती करने पर भी कोई डांटता नहीं था, और शाम होते ही घर के सारे बच्चे नानी की चारपाई के पास बैठकर उनसे उनकी जवानी के किस्से और कहानियां सुना करते थे।

नानी की कहानी, दादी का प्यार, क्यों बुलाता है बचपन हर बार ? Grandmother's story, grandmother's love, why does childhood call every time?

नानी की कहानियां सुनना इतना दिलचस्प होता था कि कहानी खत्म होने तक घर के बड़े भी हमारे साथ बैठकर कहानी सुनते हुए दिखाई देते थे। मेरे बचपन की इन यादों ने आपको अपने बचपन की याद दिलाई या नहीं? मुझसे पूछो तो मैं तो यही कहूंगी कि हम सब के बचपन में नानी-दादी की कहानियां और उनके प्यार से जुड़ी यादें लगभग एक जैसी ही होती हैं। दादा-दादी और नाना-नानी के घर में खुशियां और सुकून हुआ करता था।


रोज़ दादाजी का हाथ पकड़ कर टहलने जाना और आते वक्त दादाजी से चाकलेट की ज़िद्द करना बचपन में सबको पसंद था। दादी की प्यार वाली डांट और अपनी गोद में बिठा कर खूब सारा दुलार करना, तो आपको भी याद आता होगा न? बचपन एक ऐसी चीज़ है, जिसे फिर से पाया तो नहीं जा सकता, पर उसकी यादों का हाथ पकड़ कर, वही बचपन वाला एहसास लिया जा सकता है। तो फिर चलिए मेरे साथ बचपन की गलियों की सैर पर।


दादा-दादी की कहानियां और बचपन (Dada-dadi ki kahaniyan aur bachpan)

एक वक्त था, जब बच्चे दादा-दादी की गोद में बैठ कर, दादी मां की कहानियां सुना करते थे, लेकिन अब दादी मां की कहानियों में छिपे अनोखे प्यार की जगह मोबाइल ने ले ली है। बच्चे अब दादा-दादी की कहानियां (Dada dadi ki kahaniyan) सुनने से ज़्यादा वक्त फोन के साथ बिताते हैं। कहते हैं, जिन घरों में बच्चे दादा-दादी या नाना-नानी के साथ रहते हैं, वहां बच्चों में संस्कार और आदर्श भाव खुद व खुद आ जाते हैं।


हमें अपने बच्चों को किसी वीडियो गेम या मोबाइल की गंदी आदत की बजाय नानी या दादी मां की कहानियां सुनने की आदत डालनी चाहिए। क्योंकि दादी मां की कहानियां बच्चों को बहुत कुछ सिखाती हैं। नानी मां या दादी मां की कहानियां नैतिकता और ज्ञान से भरी हुई होती, जिनसे बच्चे ज़िंदगी के बहुत से सबक सीख जाते हैं। घर के बुजुर्गों से बच्चे जो कुछ सीखते हैं, वो बच्चों की बचपन की जड़ों में खाद और पानी का काम करता है, जैसे पेड़ अच्छा खाद और पानी पाकर, खूब बढ़ते हैं, उसी तरह बच्चे भी दादी-नानी या दादा जी-नाना जी के प्यार और आशीर्वाद से अपने जीवन में सकारात्मक शुरुआत करते हैं।


दादी-नानी के बिन है अधूरा बचपन (Dadi-Nani ke bin hai adhoora bachpan)

मैं बहुत छोटी थी, जब मेरी दादी गुज़र गई। उनके साथ बिताई बचपन की यादों में मुझे अब सिर्फ उनकी शक्ल ही याद है। हम सब में ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं, जो अपने बचपन को नानी-दादी के प्यार के साथ बिता पाते हैं, क्योंकि हमारे बड़े होते-होते उनकी उम्र हो जाती है।


सच यह भी है कि वो लोग बहुत खुशनसीब हैं, जिनके घर के बुजुर्ग आज भी उनके साथ हैं। घर के बच्चे और घर के बुजुर्ग दोनों ज़िंदगी के दो कोनों जैसे होते हैं, एक में जीवन की शुरुआत हो रही होती है और एक जीवन के आखिरी पड़ाव पर होते हैं। ज़िंदगी के इन दो कोनों का रिश्ता अटूट होता है। दादी-नानी बच्चों को संस्कार देती हैं और उन्हें एक अच्छा इंसान बनना सिखाती हैं। सच में, उनके बिना बचपन अधूरा है, वो घर की मजबूत नींव होते हैं।


क्या आपको भी बचपन बुलाता है? (Kya aapko bhi bachpan bulata hai?)

जब किसी पार्क में बच्चों को एक बॉल के लिए झगड़ते देखते हो, या कंधे पर भारी बस्ता टांग कर, छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल की तरफ भागते देखते हो, तब तुम्हारे अन्दर का बच्चा भी फिर से भागने की ज़िद करने लगता है न? बचपन निकल गया, लेकिन मन से उसका एहसास कभी नहीं जाता। हम सब के अंदर बैठा, वो मासूम सा बच्चा आज भी बाहर आने की तलाश में रहता है।


हमारे अंदर का बचपना कभी बच्चों को खेलता देखकर, उनके साथ खेलने को कहता है, तो कभी बारिश के पानी में बहती कागज की नावों को देखकर, खुद भी एक कागज की नाव बनाकर उस पानी में बहा देना चाहता है। हमारे अंदर का बचपना कभी किसी की गोद में सिर रखकर, बचपन की तरह सो जाना चाहता है, तो कभी सड़कों पर बिना किसी की परवाह किए बस दौड़ लगा देना चाहता है।


उम्र बढ़ गई तो क्या हुआ? हमारे अंदर के बच्चे और बचपने को ज़िंदा रखने और उसकी ख्वाहिशें पूरी करने की ज़िम्मेदारी तो हमारी है। कभी-कभी मौका मिले तो उसी बचपने को फिर से जीओ। दादी मां की कहानियां फिर से याद कर लो, या संभव हो दादी-नानी की कहानियां, उनकी ही जुबानी फिर से सुन लो। बचपन की तरह फिर खेलने निकल जाओ या दादी-नानी की गोद में सिर रखकर सुकून से सो जाओ। उनकी सुनो, अपनी कहो, उनसे दिल खोल कर बात करो। अपने अंदर बचपन संभाल कर रखो, और बचपन बुलाए तो फिर उन यादों को जीने बेझिझक चले जाओ।


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राम मन्दिर का इतिहास 1528 से आज तक | Ram Mandir Itihas

 Ram Mandi :राम मन्दिर हिन्दुओं के आस्था का सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर उभर कर सामने आ रहा है। भारत ही नहीं पूरे विश्व में राम मन्दिर को लेकर चर्चा है। देश विदेश से पर्यटक भव्य राम मन्दिर को देखने के लिये इंतजार कर नहे हैं। जहां एक ओर राम मन्दिर का निर्माण जोर शोर से चल रहा है। वहीं राम भक्त बेसब्री से 22 जनवरी 2024 का इंतजार कर रहे हैं जिस दिन उनके प्रिय राम लला टेंट से निकल कर भव्य राम मन्दिर में विराज मान होंगे। यह भी याद रखने योग्य है कि इस प्रक्रिया को पूर्ण होने में 492 साल लग गए।

राम मन्दिर का इतिहास 1528 से आज तक | Ram Mandir Itihas

आईये जानते हैं राम मन्दिर का पूरा इतिहास 

यह कहानी शुरू होती है सन 1528 से जब मुगल बादशाह बाबर के सिपहसलार मीर बाकी ठीक उस जगह जहां हिन्दू संगठन दावा करते रहे कि प्राचीन राम मन्दिर है एक मस्जिद का निर्माण करवाया जिसके तीन गुंबद थे। हिंदू पक्ष ने इसी में से एक मुख्य गुबद के नीचे राम की मूर्ति होने का दावा किया था।

उस समय इस आवाज को दबा दिया गया। सन 1853 में मस्जिद के पास पहली बार दंगे हुए। इस विवाद को देखते हुए सन 1859 अंग्रेजी प्रशासन ने इसे विवादित घोषित कर दिया और उसके चारों ओर एक बाड़ लगा दी गई। जहां मुसलमान विवादित जगह के अंदर और हिन्दू बाहर चबूतरे पर पूजा करते थे।

23 दिसंबर 1949 के दिन उसी जगह में भागवान राम की मूर्तियां पाई गईं। एक ओर हिन्दू कह रहे थे कि भगवान राम प्रकट हुए हैं वहीं मुस्लिम समाज के लोग आरोप लगा रहे थे कि किसी ने रात में ये मूर्तियॉं वहां रख दी हैं।

यूपी सरकार ने वहां से मूर्तियॉं हटाने का आदेश दिया। लेकिन मूर्ति हटाने के परिणाम स्वरूप दंगे होने की आशंका से उस समय के जिला मजिस्ट्रेट के के नायर ने मूर्तियां हटाने से मना कर दिया। विवाद बढ़ता देख यूपी सरकार ने इसे विवादित ढांचा मान जिस जगह मूर्तियॉं रखी थीं वहां ताला लगा दिया।

इसके बाद वर्ष 1950 में फैजावाद सिविल कोर्ट में दो पीटिशन दी गईं जिनमें राम लला की पूजा करने और इन मूर्तियों को सुरक्षित रखने की इजाजत मांगी। इसकी सुनवाई के बीच सन 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने भी एक पीटिशन दायर की।

इसके बाद सन 1961 में मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक्फ बोर्ड ने उस जगह पर कब्जे और मूर्तियां हटाने के लिये एक पीटिशन दायर की।

राम मन्दिर का इतिहास 1528 से आज तक | Ram Mandir Itihas

कोर्ट में इसकी सुनवाई चलती रही। इसके बाद सन 1984 में राम मन्दिर बनाने के लिये विश्व हिन्दू परिषद ने एक कमेटी बनाई।

इधर कोर्ट ने सन 1986 में यू. सी. पाण्डे की एक पीटिशन पर जज के. एम. पांडे ने 1 फरवरी 1986 में विवादित स्थल का ताला खोल कर हिन्दुओं को पूजा करने की इजाजत दे दी।

इसके लगभग 6 साल बाद 6 दिसम्बर 1992 को वी.एच.पी, शिव सेना के साथ मिलकर लाखों कार्यकर्ताओं ने अयोध्यार में विवादित ढांचे को गिरा दिया। इस खबर के फैलते ही पूरे देश में दंगे फैल गये। इन दंगों में करीब 2000 लोग मारे गये।

इस घटना से दोंनो पक्षों में काफी अक्रोश देखने को मिला। इसी बीच सन 2002 में हिन्दू कार्यकर्ताओं को लेकर जा रही ट्रेन को गोधरा में आग के हवाले कर दिया गया। जिसमें 58 लोग जल कर मर गये। इस खबर ने आग में घी का काम किया और पूरे गुजरात में दंगे फैल गये। जिनमें 2000 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।

इलाहबाद हाई कोर्ट ने सन 2010 में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला दिया जिसमें एक हिस्सा रामलला विराजमान, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया।

सन 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी। कोर्ट में लगातार सुनवाई चलती रही। सन 2017 में कोर्ट ने बाहर समझौते के लिये दोंनो पक्षों से आग्रह किया। इसके साथ ही विवादित ढांचा गिराने के लिये वरिष्ठ नेताओं पर आपराधिक साजिश के आरोप लगा दिये।

सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2019 को एक पैनल का गठन कर मध्यस्थता के लिये 8 सप्ताह के अंदर कार्यवाही खत्म करने का निर्देश दिया।

लेकिन इसका भी कोई परिणाम न निकल सका। 2 अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता पैनल कोई भी समाधान नहीं निकाल सका। 

6 अगस्त 1019 से हर दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने लगी। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अगस्त 2019 को सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया।

आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवम्बर 2019 को हिंदूओं के पक्ष में फैसला सुनाया। जिसमें विवादित जमीन हिंदू पक्ष को मिली जो कि 2.77 एकड़ थी। इसके साथ ही मस्जिद बनाने के लिये अलग से 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया।

फैसला आने के बाद रामलला को 25 मार्च 2020 में टेंट से निकाल कर फाईबर के एक मन्दिर में रखा गया।5 अगस्त 2020 का वो ऐतिहासिक दिन आया जिस दिन प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने राम मन्दिर का भूमि पूजन किया। उनके साथ सीएम योगी आदित्यनाथ, मोहन भागवत और 175 अन्य साधू संत मौजूद थे।

राम मन्दिर में 5 गुंबद हैं। जो कि इस प्रकार हैं –

शिखर

गर्भ गृह

कुदु मंडप

नृत्य मंडप

रंग मंडप

राम मन्दिर की उंचाई 161फुट है।

मन्दिर 10 एकड़ में फैला हुआ है।

मन्दिर परिसर 57 एकड़ में फैला है।

मन्दिर की नीव में 2 लाख ईंटे लगी हैं जिन पर ‘श्री राम’ लिखा है।


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माँ की डांट best moral story for kids

 ढोलकपुर जंगल में रुस्तम शेर अपने दोनों बच्चों चीका और मीका को बहुत देर से समझाने में लगा था, अरे मेरे प्यारे बच्चों चीका और मीका माँ की बातों का बुरा नहीं मानते। माँ जो भी बोलती है तुम्हारे भले के लिए बोलती है। माँ की बातों को माना करो मेरे लाल चीका और मेरे पीले मीका॥

रुस्तम शेर के समझाने पर चीका पहले बोलता है, नहीं मुझे नहीं मानना। जब देखो तब माँ कुछ न कुछ बोला ही करती है। चीका अपने पापा रुस्तम शेर को बता ही रहा था कि तभी झट से मीका बोलता है, हाँ, हाँ पापा भाई बिल्कुल सही कह रहा है, माँ के पास हमें डांटने के अलावा और कोई काम ही नहीं है। खाना देर से खाओ तो डांट, टीवी ज्यादा देर देखो तो डांट, पढ़ाई न करो तो डांट, खिलौना तोड़ दो तो डांट॥ डांट डांट और सिर्फ डांट। अब हम गुस्सा है और किसी से भी बात नहीं करेंगे, न खेलेंगे और न ही पढ़ेंगे।

दोनों की बात सुन कर रुस्तम शेर बोलता है, ठीक है तुम्हें किसी से बात नहीं करनी तो मत करो, अच्छा ये बताओ तुम सब को गज्जू हाथी कैसा लगता है। तभी चीका बोलता है, कौन अपने गज्जू दादा। वो तो बहुत अच्छे हैं। बहुत समझदार भी। उनसे बात करना और उनके साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है। और हाँ वो पढ़ाते भी बहुत अच्छा हैं। झट से मीका बोलता है।

तभी रुस्तम शेर फिर बोलता है, अच्छा मोंटी बंदर कैसा लगता है। मोंटी बंदर वो तो बहुत शैतान है। जब देखो तब सबको परेशान करते रहते हैं। मैं एक दिन बैठकर जूस पी रहा था और वो चुपके से पीछे से आए और मेरा जूस ले लिया। हाँ-हाँ पापा मेरे साथ भी मोंटी बंदर ने ऐसा ही किया था। आप जो एक बार दूसरे जंगल गए थे न घूमने और वहाँ से मेरे लिए बढ़िया सा चश्मा लेकर आए थे। वो चश्मा भी मोंटी बंदर ने ले लिया था। बहुत खराब है मोंटी बंदर। दोनों एक साथ बोलते हैं।

तभी रुस्तम शेर मन ही मन मुसकुराता है और कहता है तुम्हारी माँ भी तुम्हें इसीलिए डांटती हैं ताकि बड़े होकर तुम दोनों गज्जू हाथी की तरह समझदार बनो, न कि मोंटी बंदर कि तरह।

रुस्तम शेर की ये बात दोनों चीका और मीका ध्यान से सुन ही रहे थे कि तभी रूपा शेरनी वहाँ आती है गरमागरम रसगुल्ला लेकर। दोनों बच्चे झट से उठते हैं और माँ के गले लगते हुए कहते है, माँ हमे माफ कर दो। हमे नहीं बनना मोंटी बंदर की तरह। आज से हम दोनों आपकी सारी बाते मानेंगे। फिर रूपा शेरनी दोनों बच्चों को खूब प्यार करती है और फिर सब मिल कर गरमा-गरम रसगुल्ला खाते हैं।

मोरल- अगर कभी भी आपके बड़े आपको समझाए कुछ बोले तो उनकी बातों को मानना चाहिए। क्योंकि बड़े हमेशा हमारी भलाई के लिए ही ऐसा करते है ताकि हम बन सकें पूरी दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे।  

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नारी शक्ति की सुरक्षा के लिये

 1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ?  जब आप लिफ़्ट में...