चालीस पार के मोहन ने आखिरकार अपने ऑफिस की सहकर्मी, सुधा से शादी कर ली। सुधा, एक अनाथ लड़की थी, जिसने अपने चाचा-चाची के घर पर पनाह पाई थी। वहीं दूसरी ओर, मोहन का परिवार भी कुछ खास बड़ा नहीं था। पिता का देहांत मोहन के बचपन में ही हो गया था, और परिवार में अब सिर्फ मोहन और उसकी बीमार माँ, सुषमा जी ही थे।
शादी के बाद, सुधा ने घर के कामों को बड़ी ही सहजता और कुशलता से संभाल लिया। वह अपने सासूमां का बहुत ख्याल रखती, उनके दवाओं से लेकर भोजन तक, सब कुछ समय पर करती थी। सुषमा जी भी अपनी नई बहू से बेहद खुश थीं। दोनों का रिश्ता भी समय के साथ मधुर होता चला गया। लेकिन शादी के एक साल बाद, सुषमा जी ने एक बात नोटिस की – सुधा अब उनके पास बैठकर खाना नहीं खाती थी।
पहले, दोनों सास-बहू एक साथ खाना खाती थीं, बातें करती थीं, और रसोई के काम में भी एक-दूसरे की मदद करती थीं। लेकिन अब, सुषमा जी की तबियत खराब रहने लगी थी, जिस कारण वे रसोई के कामों में हाथ नहीं बंटा पाती थीं। सुधा अकेले ही सब कुछ संभाल रही थी, लेकिन एक बात सुषमा जी के मन को कचोट रही थी – उनकी बहू अब उनसे दूर क्यों बैठकर खाती है?
एक शाम, सुधा ने सुषमा जी को चाय और बिस्किट लाकर दी। खुद भी चाय का कप लेकर वह कुछ दूरी पर बैठ गई और एक लाल रंग के डब्बे से कुछ खाने लगी। सुषमा जी ने दूर से ही देखा और सोचा, "पता नहीं, यह बहू मुझे बिस्किट देकर खुद क्या खा रही है।"
सुषमा जी के दिमाग में तरह-तरह के ख्याल आने लगे। "जरूर कुछ अच्छा ही खा रही होगी, तभी तो मुझसे दूर बैठती है," उन्होंने खुद से कहा। उन्होंने मन में सोचा, "शायद अब मेरी बहू को मुझसे दूरी अच्छी लगने लगी है।"
रात को सुषमा जी को नींद नहीं आई। उनका मन बार-बार उस लाल डब्बे की तरफ खिंचता रहा। "आखिर क्या हो सकता है उस डब्बे में?" वे सोचने लगीं। मन ने कहा, "जाकर देखना चाहिए।" आखिरकार, उनकी बेचैनी इतनी बढ़ गई कि वे धीरे-धीरे रसोई में गईं। कांपते हाथों से उन्होंने उस लाल डब्बे को उतारने की कोशिश की, लेकिन डब्बा उनके हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और जोर से आवाज आई।
धड़ाम!
सुधा और मोहन आवाज सुनकर दौड़े-दौड़े रसोई में पहुंचे। "क्या हुआ, माँजी? कुछ चाहिए था क्या?" सुधा ने पूछा।
सुषमा जी ने सकपकाते हुए जवाब दिया, "वो... दवाई से मुंह कड़वा हो गया था, इसलिए शक्कर का डब्बा ढूंढ रही थी।"
सुधा ने जल्दी से सफाई करते हुए कहा, "माँजी, मुझे बोल दिया होता, मैं निकाल देती। खैर, कल से मैं आपके कमरे में ही मिश्री रख दिया करूंगी।"
जब सुषमा जी ने ध्यान से उन बिखरे टुकड़ों को देखा, तो पाया कि वे बस मीठे-नमकीन बिस्किट के टूटे हुए टुकड़े थे। सुधा ने उन टुकड़ों को जल्दी-जल्दी समेट लिया, लेकिन सुषमा जी के मन में एक गहरी चोट लगी। वे सोचने लगीं, "कितनी गलतफहमी पाल रखी थी मैंने। मेरी बहू तो मुझे साबुत बिस्किट देती है और खुद टूटे हुए टुकड़े खाती है।"
दूसरे दिन, शाम को सुधा ने सुषमा जी को चाय और बिस्किट लाकर दिए। इस बार, सुषमा जी ने अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाईं और कहा, "बहू, मेरे दांतो से बिस्किट जल्दी नहीं टूटते, तो तुम मुझे वो टुकड़े दे दिया करो।"
सुधा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "नहीं, माँजी। वो तो जब भी कोई नया पैकेट खोलती हूँ, कुछ टुकड़े निकल ही जाते हैं। बस उन्हें अलग डिब्बे में रख देती हूँ। आप देखती हैं, घर में कोई भी आ सकता है, ऐसे में मैं खुद अंदर की तरफ बैठकर खा लेती हूँ, ताकि कोई देखे नहीं।"
सुधा की बातें सुनकर सुषमा जी के आँखों में आँसू आ गए। उन्हें अपनी सोच पर शर्मिंदगी महसूस हुई। उन्होंने अपने भीतर की छोटी सोच को अपने आँसूओं के साथ बहने दिया और महसूस किया कि वे दुनिया की सबसे भाग्यशाली सास हैं, जिन्हें सुधा जैसी बहू मिली है।
इस कहानी ने यह सिखाया कि रिश्तों में छोटी-छोटी गलतफहमियों का बड़ा असर हो सकता है, लेकिन सच्चे प्यार और समझदारी से हर गलतफहमी को दूर किया जा सकता है। अब, सुषमा जी और सुधा के बीच का रिश्ता और भी मजबूत हो गया था, जो कि केवल विश्वास और प्यार के धागों से बुना हुआ था।
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