रात में पत्नी से लिपटकर सोना, रात भर उसे अपने आलिंगन में समेटे रखना और सुबह उसकी मुस्कान देखकर उठना, क्या कहने! पत्नी खुश, तो मैं खुश, और मैं खुश तो पूरा परिवार खुश।
माँ की उम्र भी हो गई थी, तो यह भी सोचता कि उनकी इच्छा पूरी करने के लिए शादी कर लूँ। लोग भी मेरी बात मानते, लेकिन मन ही मन मैं भी चाहता था कि मेरी शादी हो जाए।
मेरी शादी दिव्या से फिक्स हुई। मैंने दिव्या से कहा, "हम आगे जाकर बहुत अच्छी जिंदगी जीने वाले हैं, क्योंकि मेरे घर में कोई नहीं है, बस तुम्हें मेरे माँ-बाप का ध्यान रखना होगा।" दिव्या ने तुरंत कहा, "आपके माँ-बाप भी मेरे माँ-बाप हो जाएंगे शादी के बाद।"
दिव्या की बातों ने मुझे और ज्यादा प्रेम में डाल दिया। कभी परिवार संभालने की बातें, कभी शरारत भरी रोमांटिक बातें सुनकर मैं बहुत खुश था। मानो एक परफेक्ट जिंदगी मिल गई हो। शादी के बाद हम दोनों घूमने गए। सब कुछ बहुत अच्छा था। हम दोनों को ऐसा लगता था कि बस एक-दूसरे से लिपटे रहें। जिनकी शादी हुई है, वे समझ सकते हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूँ।
घूमने के बाद जब घर आए, तो ज्यादातर समय ऑफिस के काम में गुजरता था। छुट्टी के दिन जब मम्मी-पापा बाहर जाते थे, तो दिव्या मैडम मूड में रहती थीं। कब, क्या, कैसे हो जाता था, पता नहीं चलता था।
मुझे लगने लगा कि एक ऐसी पत्नी मिली है, जो घर की जरूरतों को समझती है, साथ ही मेरी शारीरिक जरूरतों का भी ख्याल रखती है। संबंध बनाने के लिए खुद ही पहल करती है, और यदि मैं पहल कर दूं, तो मना नहीं करती बल्कि पूरा साथ देती है।
शादी के दो महीने बाद, दिव्या ने कहा, "अजी, मुझे साड़ी में दिक्कत होती है, क्या मैं घर पर सूट पहन सकती हूँ?" मैंने तुरंत कहा, "हां, क्यों नहीं पहन सकती हो, चलो अभी दिलाता हूँ।" हम दोनों बाजार से घर लौटे। मम्मी ने उसके हाथ में सूट देखा, पर कुछ नहीं बोलीं।
अगली सुबह जब दिव्या सूट पहनकर नहाकर निकली, तो मम्मी ने कहा, "तुमने सूट क्यों पहन लिया? हमारे यहां शादी के छह महीने तक नई बहू को सिर्फ साड़ी पहननी होती है। रोज कोई न कोई मिलने आता है, सबके सामने सूट पहनकर जाओगी तो अच्छा नहीं लगेगा।"
दिव्या ने मम्मी को सॉरी बोला और कहा, "मैंने तो इनसे पूछकर लिया था।" मम्मी तुरंत बोलीं, "ये कौन होते हैं यह सब डिसाइड करने वाले? अभी मैं हूं, तो मैं करूंगी। जब मैं मर जाऊं, तो जैसे मन वैसे रहना।"
यह सुनकर मुझे पहली बार अपनी औकात का पता चला। दिव्या मासूमियत से मेरी तरफ देख रही थी, शायद यह जताना चाहती थी कि उसकी वजह से उसे डांट पड़ गई। पत्नी प्रेम में मैंने मम्मी से कह दिया, "अरे मम्मी, उसकी गलती नहीं है, मुझसे पूछी थी वो।" मम्मी तुरंत बोलीं, "दो महीने हुए नहीं और आगए पत्नी का पक्ष लेने। इस घर में मालिक मैं हूँ या तुम हो?"
अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था। हम दोनों एक-दूसरे को देखे और अंदर चले गए।
इस बात से दिव्या डर गई थी और अब वह हर काम मम्मी से पूछकर करने लगी। लेकिन मम्मी के लिए यह भी एक आफत थी। अब उनका कहना था कि तुम 28 साल की हो, तुम्हें खुद बुद्धि होनी चाहिए कि क्या करना है और क्या नहीं। हर चीज के लिए मेरे पास मत आया करो।
अब दिव्या भी चिढ़ गई, लेकिन मम्मी ने कुछ नहीं कहा। जब मैं ऑफिस से आया, तो मम्मी ने कहा, "तुम्हारी पत्नी को बुद्धि नाम की चीज नहीं है।" मैंने मम्मी को समझाया, "जाने दो, सीख जाएगी, थोड़ा समय दो।" इस पर मम्मी ने मुझसे मुंह फूला लिया और उदास रोते हुए कहा, "तुम बदल गए हो।" और पीछे से मेरे पिताजी देखते हुए हंस रहे थे, मानो ऐसा जता रहे हों कि उन्होंने पहले ही भविष्य देख लिया था।
कमरे में गया, तो वहां दिव्या का मुंह खुला हुआ था। कमरे में घुसते ही उसने मुझसे कहा, "मैं कितनी भी कोशिश कर लूं, मम्मी कभी खुश नहीं होती। हर चीज की एक सीमा होती है और यह सारी बातें सीमा से भी ऊपर हैं।" मैंने उसे पकड़ा और कहा, "घबराओ मत, थोड़ा समय लगेगा मम्मी को संभालने में। क्योंकि तुम्हारे अलावा उनका कोई और नहीं है। वह तुम्हें अपना मानती हैं इसलिए तुमसे ऐसी बातें करती हैं। चलो, चल के नीचे खाना खाते हैं, बहुत तेज भूख लगी है।"
ऐसा बोलकर हम नीचे आए। मैं मन ही मन सोचता रहा, "दिव्या को तो मैं धीरे से किसी भी तरह से मना लूंगा, एक रात की बात है, एक बार लिपट के सोया सब कुछ सुबह ठीक हो जाएगा। मम्मी के लिए कुछ सोचना पड़ेगा।"
नीचे खाना खाने के बाद हम अपने कमरे में गए। दिव्या अभी भी थोड़ी नाराज लग रही थी। मैंने उसे पूछा, "क्यों मन की बात का इतना बुरा मानती हो?" उसने तुरंत कहा, "मेरी कोई गलती भी नहीं होती और हर चीज के लिए मुझे दोषी ठहरा दिया जाता है। मैं कुछ अच्छा भी करने जाती हूं, तो उसमें भी मेरी बुराई निकल जाती है।"
मैंने उसे ज़ोर से गले लगाया और कहा, "ऐसा कुछ नहीं है, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।" लेकिन उसने मुझे अपने से दूर कर दिया और कहा, "मेरा मन नहीं है।"
अब जो मुझे लगता था कि एक रात लिपट के सोने से अगली सुबह सब कुछ ठीक हो जाएगा, वह बातें झूठी लगने लगीं। धीरे-धीरे हर छोटी-छोटी चीज पर घर में लड़ाई-झगड़ा होने लगे। मम्मी को दिव्या की कुछ चीजें पसंद नहीं आती थीं और दिव्या को मम्मी की बहुत सारी चीजें।
दिव्या का कहना था कि घर उसका भी है और हर छोटी चीज के लिए परमिशन लेना उसे ठीक नहीं लगता। उधर मम्मी का कहना था कि इस गृहस्थी को मैंने बसाया है और तुम्हें हैंडओवर किया है, इसलिए अभी भी इसकी मालकिन मैं ही हूं। तुम्हें जो भी करना है, मुझसे पूछकर करो।
दोनों अपनी जगह सही थीं। एक तरफ दिव्या थी, जिसके साथ मुझे पूरी जिंदगी बितानी थी, और दूसरी तरफ मेरी मम्मी थीं, जिन्होंने इस गृहस्थी को संभाला था, मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया था।
लेकिन इन दोनों की लड़ाई का असर सीधा-सीधा मुझ पर पड़ रहा था और मैं पिसता जा रहा था। धीरे-धीरे बातें बहुत बढ़ने लगीं और घर में रोज लड़ाई-झगड़े की नौबत आ गई। अब मुझे भी लगने लगा था कि जो मेरे दोस्त कहते थे कि शादी करने से खुशी नहीं मिलती, बल्कि लाइफ में टेंशन आती है, वह सही थे।
इसी तरह एक दिन अत्यधिक बात बढ़ने पर, मैंने रात को दोनों के कमरे में जाकर कहा, "देखो, आप दोनों के झगड़े की वजह से मेरा करियर खराब हो रहा है और मैं ठीक से रह नहीं पा रहा हूं। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता और ना ही दिव्या को। इसलिए थोड़ा नरम हो जाओ, जो चीज जैसे चल रही है, चलने दो।" इस बार मैं थोड़ा कठोर था।
फिर मैंने दिव्या से भी यही बात कही, "मां की उम्र हो चुकी है, यदि तुम यह सोच रही हो कि मां अपने आप को बदल सकती हैं, तो यह मुमकिन नहीं है। बदलना तुम्हें ही होगा, जिसमें मैं तुम्हारा पूरा साथ दूंगा। मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता क्योंकि तुम मेरा भविष्य हो, और ना ही अपनी मां को छोड़ सकता हूं क्योंकि उन्होंने मुझे पाल-पोसकर इस लायक बनाया है। तो कोई बीच का रास्ता निकालो और घर में शांति से रहो।"
यह बात होने के कुछ दिन बाद तक चीजें ठीक थीं, लेकिन धीरे-धीरे फिर से झगड़ा शुरू हो गया। अब जब भी मैं ऑफिस से घर आता, तो घर में घुसते ही मम्मी दिव्या की बुराई करतीं और अपने कमरे में जाते ही दिव्या मम्मी की बुराई करती। मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं किस जंजाल में फंस गया हूं।
दिव्या का पक्ष लेता तो मम्मी नाराज हो जातीं, और मम्मी का पक्ष लेता तो दिव्या बुरा मान जाती। यह दोनों वही औरतें थीं जिनसे इस दुनिया में मैं सबसे ज्यादा प्रेम करता था। एक समय ऐसा आया कि मुझे घर पर आने का मन नहीं करता था। काम हो गया, तो मुझे लगता था कि जितना ज्यादा समय घर से बाहर रहूं, उतना अच्छा है। क्योंकि दो बार समझाने के बाद भी मेरी मम्मी और मेरी पत्नी के बीच विवाद नहीं सुलझ रहा था।
इसी दौरान मैं अपने पापा के साथ उनके पेंशन के काम के लिए ऑफिस गया। पापा मुझसे पूछते हैं कि इतना परेशान क्यों रहते हो? मैंने उन्हें सारी बात बताई। पापा ने कहा, "यह तो दुनिया की रीति है। हर मर्द को इससे गुजरना पड़ता है। जब मेरी शादी हुई थी, तो मैंने भी यह सब झेला है। तुम्हारे पिताजी ने भी झेला है और तुम्हारे नाना ने भी। अब तुम्हारी बारी है। लेकिन मैं तुम्हें एक तरीका बताता हूं, जिससे चीजें काफी हद तक सुधर सकती हैं।"
पापा ने मुझे एक तरीका बताया। मैं घर आया, चीजें ठीक चलती रहीं, लेकिन कुछ समय बाद फिर झगड़ा होना शुरू हो गया। इस बार मैंने दोनों को आमने-सामने बैठाकर कहा, "लास्ट समय मैंने आप लोगों से बात की थी, पर उसका कोई मतलब नहीं निकला। यदि आज के बाद फिर कभी घर में झगड़ा हुआ, तो मैं यह घर छोड़कर चला जाऊंगा। मैं कहीं बाहर रहूंगा और हर महीने की सैलरी आधी मम्मी को और आधी दिव्या को दे दिया करूंगा।"
इस बात का दोनों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। हफ्ता बीत गया और घर में फिर झगड़ा हुआ। इस बार एक्शन लेने का समय था। मैंने झगड़ा होते हुए देखा, पर कुछ नहीं कहा। ऑफिस गया और देर रात तक वहीं रुका रहा। जब दिव्या ने फोन किया, तो मैंने कहा, "मुझे नहीं पता मैं कहां हूं।" कुछ देर बाद मम्मी का फोन आया, उन्होंने भी यही पूछा कि इतनी देर क्यों हो रही है। मैंने मम्मी से भी वही कहा, "मुझे नहीं पता मैं कहां हूं।"
इस दौरान मैं अपने एक अविवाहित दोस्त के घर पर रुका हुआ था, जिसके बारे में घर में किसी को नहीं पता था। सिर्फ पापा को पता था। जब दिव्या या मम्मी का फोन आता, तो मैं उनसे नॉर्मल बात करता और कहता, "कई बार समझाया है कि घर में लड़ाई-झगड़ा मत करो, इससे घर की शांति भंग होती है। इस वजह से अब मैं घर छोड़कर बाहर आ गया हूं और हमेशा के लिए बाहर हूं।"
यह सुनकर मम्मी और दिव्या दोनों घबरा गईं। दोनों फोन करके बार-बार कहतीं कि दोबारा उनसे यह गलती कभी नहीं होगी, जल्दी से घर आ जाओ। मम्मी ने तो यह तक कह दिया कि, "तू क्या चाहता है, मैं बिना पोते का मुंह देखे मर जाऊं।" और दिव्या कहतीं, "आपकी मम्मी आपके लिए बहुत परेशान हैं। मेरे लिए नहीं, तो कम से कम उनके लिए वापस आ जाइए।"
मुझे यह देखकर खुशी हो रही थी कि दोनों मेरे चक्कर में एक-दूसरे के बारे में सोच रही थीं। फर्क सिर्फ इतना था कि दिव्या खुलकर कह रही थी, पर मम्मी इशारों में।
एक हफ्ते बाद मैं घर लौटा और सबसे पहले पापा से मिला। पापा ने बताया कि एक हफ्ते से घर में काफी शांति है और उम्मीद है आगे भी ऐसा झगड़ा नहीं होगा। यकीन मानिए, उस दिन के बाद से ऐसा झगड़ा दोबारा कभी नहीं हुआ। मम्मी और दिव्या अब अच्छे से रहती हैं।
आज दिव्या और मुझे शादी को पांच साल हो चुके हैं और हमारा एक बेटा भी है। लेकिन आज हमारे घर में गृहकलह नाम की चीज नहीं है और इसका पूरा श्रेय मैं अपने पापा को देना चाहता हूं। क्योंकि उस दिन जब हम पेंशन का काम करने कचहरी गए थे, तो उन्होंने ही मुझे यह आईडिया दिया था कि एक हफ्ते के लिए घर से बाहर भाग जाओ और कह दो कि अब तुम दोबारा लौटकर कभी नहीं आओगे।
मुझे पता है, मेरा यह कदम कुछ लोगों को हास्यास्पद और बेकार लग सकता है, पर यकीन मानिए, इस चीज ने मेरी जिंदगी बदल दी। अगर मैं आज यह कदम नहीं उठाता, तो शायद हर घर की तरह मेरे घर में भी रोज लड़ाई-झगड़ा हो रहा होता।
भारत में शादी सिर्फ लड़के और लड़की की नहीं होती, बल्कि उनके परिवारों की भी होती है। शादी के बाद सिर्फ पत्नी के साथ जी भर के प्यार करने से खुशी नहीं मिलती। असली खुशी तब मिलती है जब आपका पूरा परिवार खुश हो। परिवार को खुश रखने की जिम्मेदारी सिर्फ लड़की की नहीं होती, बल्कि पूरे परिवार की होती है। इसमें आप, मैं, आपके मम्मी-पापा और पत्नी सभी शामिल होते हैं।
मेरी यह कहानी आप लोगों को कैसी लगी, मुझे कमेंट करके जरूर बताइएगा।
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