भारत में ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति’ - Gurukul education system in India

 

भारत में ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति’ - Gurukul education system in India

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली  रेजिडेंशियल (residential) शिक्षा प्रणाली का रूप थी, जहां छात्र टीचर या आचार्य के घर यानी गुरुकुल में रहते थे, जो शिक्षा का केंद्र हुआ करता था। इस शिक्षा प्रणाली का आधार अनुशासन और मेहनत थे। छात्रों से अपेक्षा की जाती थी कि वो अपने गुरुओं से सीखें और इस जानकारी को जीवन में इस्तेमाल भी करें। इसमें छात्र और टीचर का रिश्ता बहुत पवित्र होता था और अकसर इसमें किसी तरह का भुगतान नहीं किया जाता था। हालांकि छात्र टीचर को उनके सहयोग के लिए गुरुदक्षिणा जरूर दिया करते थे। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की शुरुआत वैदिक काल में हुई जब किसी भी तरह की शिक्षा प्रणाली नहीं हुआ करती थी। लेकिन स्किल बेस्ड (skill-based) शिक्षा के साथ वेद, पुराण आदि से सीखने का चलन जरूर था। ये अध्यात्मिक किताबें छात्रों को उनकी जानकारी बढ़ाने में मदद करती थीं।

भारत में ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति’ की बहुत लंबी परंपरा रही है । गुरुकुल में विद्यार्थी विद्याध्ययन करते थे । तपोस्थली में सभा, सम्मेलन और प्रवचन होते थे जबकि परिषद में विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी । गुरु के समीप्य में रहनेवाला विद्यार्थी उनके कुल के सदस्य के समान ही रहता था तथा गुरु भी उससे पुत्रवत स्नेह करते थे । गुरुकुल का विद्यार्थी ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हुए शिक्षा ग्रहण करता था । गुरु की सेवा उसका परम कर्तव्य होता था । उसकी निष्ठा के बदले में गुरु भी प्रत्येक शिष्य पर व्यक्तिगत ध्यान देते थे तथा पूरी लगन के साथ उसे विविध विद्याओं और कलाओं की शिक्षा प्रदान करते थे ।

प्राचीन मनीषियों ने गुरु के साथ विद्यार्थी के सानिध्य को समझा और गुरुकुल पद्धति पर बल दिया । गुरु के चरित्र तथा आचरण का विद्यार्थी के मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पड़ता था तथा वह उसका अनुकरण करता था । पारिवारिक वातावरण से दूर रहने के कारण उसमें आत्मनिर्भरता विकसित होती थी तथा वह संसार की गतिविधियों से अधिक अच्छा ज्ञान प्राप्त करता था । उससे आत्मानुशासन की प्रवृत्ति का भी विकास होता था । महाभारत में गुरुकुल शिक्षा को गृहशिक्षा से अधिक प्रशंसनीय बताया गया है ।

प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति की सफलता का मुख्य आधार गुरुकुल ही थे जो किसी न किसी महान तपधारी ऋषि की तपोभूमि तथा विद्यार्जन के स्थल थे । प्राचीन काल में गुरुकुल और समाज के मध्य पृथक्करण नहीं था जिसके कारण से तत्कालीन समाज में इस शिक्षा प्रणाली तथा गुरुजनों के प्रति अगाध श्रद्धा थी । गुरु का कार्यक्षेत्र केवल गुरुकुल तक ही सीमित नहीं था अपितु उनके तेजोमय ज्ञान का प्रसार राष्ट्र के सभी क्षेत्रों में था । उनकी विद्वता और उत्तम चरित्र तथा व्यापक मानव सहानुभूति की भावना के कारण उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली होती थी । गुरु के आचार-विचार में भेद नहीं होता था । गुरुकुल में प्रवेश पानेवाले शिक्षार्थी के अन्तर्मन में झाँककर गुरु उसकी योग्यता, आवश्यकता एवं कठिनाइयों को भलीभांति समझते थे । गुरुकुलों का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों में उत्तम मानस का निर्माण करना था । वे विद्यार्थियों में स्वतंत्र विचार अभिव्यक्ति तथा आत्मानुशासन को प्रेरित करते थे । वस्तुतः स्वयं गुरु ही विद्यार्थियों के आदर्श थे जिनसे प्रेरित होकर वे उनका अनुसरण करते थे और संयमी, गम्भीर तथा अनुशासनयुक्त जीवन का निर्माण करते थे । इस कारण से तत्कालीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली अत्यन्त प्रशंसनीय और आदरयुक्त थी ।

प्राचीन काल में धौम्य, च्यवन ऋषि, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे । बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगप्रसिद्ध थे, जहाँ विश्वभर से मुमुक्षु ज्ञान प्राप्त करने आते थे और जहाँ गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी । प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था । कोई धनुर्विद्या सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान देने में, कोई अस्त्र-शस्त्र सिखाने में तो कोई ज्योतिष और खगोल विज्ञान की शिक्षा देने में दक्ष था ।


वेद से प्रारम्भ होकर पुराणोतिहास पर्यन्त भारतीय तत्व चिन्तन चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) पर ही आश्रित दृष्टिगोचर होता है । भारत का समग्र प्राचीन चिन्तन क्रम मानवीय कर्तव्यों तथा उसकी आवश्यकताओं की आध्यात्मिक व्याख्या ही प्रतीत होता है । यह आध्यात्मिकता चार पुरुषार्थों और उसमें भी चरम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष को ही पाने के लिए उद्वत दिखाई देती है । भारतीय संस्कृति में कहा गया है – सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो हमें सब बन्धनों से मुक्त कर दे । वस्तुतः मोक्ष की प्राप्ति ही भारतीय जीवन पद्धति की सहज अवधारणा मानी जा सकती है । पौराणिक युग की शिक्षा में यह अवधारणा मानव मात्र के लिए है । किसी वर्ग विशेष के लिए आरक्षित अथवा प्रतिबन्धित नहीं दिखाई देती ।

गुरुकुल का अर्थ

गुरुकुल का अर्थ है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानी परिवार निवास करता है। प्राचीन काल में शिक्षक को ही गुरु या आचार्य मानते थे और वहां शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को उसका परिवार माना जाता था। गुरुकुल के छात्रों को लिए आठ साल का होना अनिवार्य था और पच्चीस वर्ष की आयु तक लोग यहां रहकर शिक्षा प्राप्त और ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।


अहम विशेषताएं (Salient Features)

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली अपनी खूबियों के चलते वर्षों से दुनिया को प्रेरित कर रही है। इस सेक्शन में इस शिक्षा प्रणाली की खासियतों और काम करने के तरीके  के बारे में भी बताया गया है। 


शिक्षा संस्कृति और धर्म से प्रभावित थी जो प्राचीन भारतीय समाज के अहम तत्व थे। 

प्रोफेशनल, सोशल, धार्मिक और अध्यात्मिक शिक्षा पर फोकस करते हुए इसमें समग्र (Holistic) शिक्षा पर जोर दिया जाता था। 

गुरुकुल में चुने जाने का आधार बच्चों का ऐटिट्यूड यानी रवैया और मॉरल स्ट्रैंथ यानी नैतिक मजबूती थे जो छात्रों के कंडक्ट या आचरण में नजर आते थे

कला, साहित्य, शास्त्र और दर्शन की जानकारी के साथ छात्रों को व्यावहारिक हुनर भी सिखाए जाते थे और उन्हें अलग-अलग कामों के लिए तैयार किया जाता था। 

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से छात्र का पूरी तरह से विकास होता था और जोर शिक्षण के साइकोलॉजिकल या मनोवैज्ञानिक तरीके पर होता था। 

गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य

Gurukul Education System कई उद्देश्य पर आधारित थी। यहाँ का मुख्य उद्देश्य ज्ञान विकसित करना और शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करना होता है। सामाजिक मानकों के बावजूद हर छात्र के साथ समान व्यवहार किया जाता है। इस शिक्षा प्रणाली से मिले निर्देश छात्रों को अपनी तरह की लाइफ बनाने में मदद करते थे। इस तरह से छात्र को जीवन के कठिन समय में भी खुद को दृढ़ता से खड़े रखने में मदद मिलती थी। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के कुछ खास उद्देश्य ये रहे- 

सम्पूर्ण विकास (Holistic Development)

व्यक्तित्व विकास (Personality growth)

आध्यात्मिक जाग्रति (Spiritual Awakening)

प्रकृति और समाज के प्रति जागरूकता (Awareness about nature and society)

पीढ़ी-दर पीढ़ी ज्ञान और कल्चर को आगे बढ़ाना (Passing on of knowledge and culture through generations)

जीवन में सेल्फ कंट्रोल और अनुशासन (Self-control and discipline in life)

अनमोल शिक्षा

यहां पर धर्मशास्त्र की पढ़ाई से लेकर अस्त्र की शिक्षा भी सिखाई जाती है। योग साधना और यज्ञ के लिए गुरुकुल को एक अभिन्न अंग माना जाता है। यहां पर हर विद्यार्थी हर प्रकार के कार्य को सीखता है और शिक्षा पूर्ण होने के बाद ही अपना काम रूचि और गुण के आधार पर चुनता था। उपनिषदों में लिखा गया है कि मातृ देवो भवः ! पितृ देवो भवः ! आचार्य देवो भवः ! अतिथि देवो भवः !


गुरु के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए कहा गया है कि गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:| अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।


प्राचीन भारत में गुरुकुल पद्धति क्या थी?

प्राचीन भारत में गुरुकुल पद्धति में पढ़ने वाले बच्चों को गुरु के यहां जाना होता था। यहां वो गुरू के यहां रह कर ही अपनी पढ़ाई करते थे। वहां जाने वाले बच्चों की आयु 8 से 10 साल होती थी। विद्यार्थी वहीं रह कर गुरु की आज्ञा का पालन करते थे और उनके दिए निर्देशों के अनुसार अपनी शिक्षा लेते थे। गुरुकुल में बच्चों को दिनचर्या के सभी कार्य करने होते थे।

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की अहमियत (Importance of the Gurukul Education System)

तकनीक के लगातार बदलते आयामों के साथ दुनिया ने फॉरमल एजुकेशन (formal educational) की तरफ थोड़ा और आगे बढ़ा है, जो गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से काफी अलग है। इस प्रणाली का भारतीय क्षेत्र पर एकाधिकार हुआ करता था। इस प्रणाली की अहमियत कई गुना ज्यादा थी। इससे मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम बहुत कुछ सीख सकता है। यहां गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की उन खासियतों की लिस्ट दी जा रही है जिनको बिलकुल भी इग्नोर नहीं किया जा सकता है-


प्राकृतिक वातावरण में अहम जानकारी जिसमें सहायक जानकारी दी जाती थी और इसका समाज पर कोई गलत प्रभाव भी नहीं पड़ता था। 

एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी (extra-curricular ) जैसे खेल, योग और चहलकदमी पर फोकस जिससे छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता था। 

लर्निंग स्किल (learning skills) जैसे क्राफ्ट, डांसिंग या सिंगिंग पर जोर और हर छात्र को उनके पैशन को पहचानने के लिए उत्साहित करना। साथ में उनके स्किल को और विकसित करना। 

छात्रों को अपने रोजमर्रा के काम खुद ही करने होते थे, जिसकी वजह से वह आत्मनिर्भर बनते थे। इस तरह से उन्हें जीवन निर्वाह के लिए जरूरी स्किल सीखने में मदद मिलती थी। 

पर्सनालिटी डेवलपमेंट, बौद्धिकता और आत्म विश्वास पर काम किया जाता था। छात्र अपने विकास के लिए सोचने की योग्यता भी विकसित कर लेते थे। 

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