कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे ? How long will we continue to follow these old and dirty rituals?

 रघुवीर, एक साधारण किसान, जिसने अपनी पूरी जिंदगी ईमानदारी और मेहनत से जी है, आज उसकी बेटी की शादी की बात चलते ही उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी परीक्षा शुरू हो गई। उसकी बेटी, सुजाता, उसकी आँखों का तारा थी। लेकिन जब से सुजाता का रिश्ता तय हुआ, रघुवीर के मन में खुशी की जगह चिंता ने ले ली।

कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे ? How long will we continue to follow these old and dirty rituals?

शुरुआत होती है रिश्ते की बातचीत से। जब रिश्ता पक्का हुआ, तो समाज के रस्म-रिवाजों का बोझ धीरे-धीरे उसके कंधों पर भारी पड़ने लगा। पहले 10 लाख रुपये का दहेज मांगा गया। फिर 5 लाख रुपये का खाना, घड़ी, अंगूठी, और मंडे के खाने की मांग की गई। जैसे-जैसे शादी का दिन नजदीक आया, रघुवीर को समझ आने लगा कि यह शादी नहीं, बल्कि एक बोझ बनती जा रही है।

हर रस्म में, हर कदम पर, एक नई मांग खड़ी हो जाती। सुसराल वालों के लिए कपड़े, बारात का खाना, और जाते समय बारात के लिए खाना भेजना—इन सबके बीच रघुवीर की स्थिति और कमजोर होती चली गई। उसकी बेटी सुजाता हर दिन अपने पिता के चेहरे पर चिंता की लकीरों को गहराता देखती। वह समझ रही थी कि उसके पिता उसके लिए कितना कुछ सहन कर रहे हैं।

शादी की तैयारियों के बीच, रिश्तेदारों का आना-जाना भी शुरू हो गया। कभी नंद आ रही थी, कभी जेठानी, तो कभी चाची सास और मुमानी सास। टोली बना-बना कर लोग आते, और रघुवीर की पत्नी, निर्मला, चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए सबका स्वागत करती। उन्हें आला से आला खाना खिलाया जाता, और जाते समय 500-500 रुपये दिए जाते। लेकिन हर बार निर्मला की मुस्कान के पीछे छिपे दर्द को केवल रघुवीर ही समझ पाता था।

मंगनी और बियाह की रस्में पूरी हो रही थीं, लेकिन रघुवीर की चिंता बढ़ती जा रही थी। बारात के लोगों की संख्या तय की जा रही थी—500 या 800। यह सोच-सोच कर रघुवीर का दिल बैठा जा रहा था। बाप का एक-एक बाल कर्ज में डूबता जा रहा था। और जब वह थका-मांदा शाम को घर लौटता, तो उसकी बेटी सुजाता उसके पास आकर उसका सर दबाने बैठ जाती। उसकी आँखों में अपने पिता के लिए आंसू थे, क्योंकि वह जानती थी कि उसके कारण उसके पिता कर्ज में डूब रहे थे।

शादी का दिन आ ही गया। सुजाता की विदाई का समय आया तो रघुवीर की आँखों में आंसू थे। वह जानता था कि उसने अपनी बेटी को समाज की इस विकृत परंपरा के चलते एक भारी बोझ के साथ विदा किया है।

सुजाता ने विदाई के वक्त अपने पिता के कान में कहा, "पिताजी, आपने मेरे लिए जो कुछ भी किया, वह मैं कभी नहीं भूलूंगी। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि इस समाज ने आपको इतना मजबूर कर दिया कि आप अपनी बेटी को इज्जत से विदा करने के बजाय कर्ज के बोझ तले दब गए।"

रघुवीर ने सुजाता को गले लगाते हुए कहा, "बेटी, तुम हमेशा खुश रहो। मैं इस समाज के गंदे रस्म-रिवाजों को बदलने के लिए हर संभव कोशिश करूंगा, ताकि कोई और पिता अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज में न डूबे।"

यह कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर कब तक हम इन पुराने और गंदे रस्म-रिवाजों को निभाते रहेंगे? कब तक बाप अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज में डूबता रहेगा? क्या हमें बदलाव की जरूरत नहीं है?

यह समय है कि हम जागें और इन बुरे प्रथाओं का विरोध करें, ताकि हर बाप अपनी बेटी को इज्जत से, खुशी से विदा कर सके, बिना किसी कर्ज के बोझ के।

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