बेटियों को पालने का सुख जितना अनमोल है, उनकी विदाई का दुख भी उतना ही गहरा होता है -As precious as the joy of raising daughters is, the pain of their departure is equally deep
बात उस दिन की है जब मुझे अपनी बेटी साक्षी का KVS का परीक्षा दिलवाने के लिए पानीपत के पास एक दूरस्थ गाँव जाना पड़ा था। परीक्षा का समय दोपहर 2:30 से 4:30 तक था और हमें उसी शाम घर वापस लौटना था। मेरे पास कोई निजी वाहन नहीं था, इसलिए मुझे सरकारी बस से लौटना था। पानीपत से मेरे गांव रायपुर तक की यात्रा लगभग 3 घंटे की थी। ऐसे में मेरे मन में लगातार चिंता थी कि यदि समय पर कोई साधन नहीं मिला तो क्या होगा। रात रुकने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि न तो उस गांव में कोई जान-पहचान थी और न ही ठहरने का कोई ठिकाना।
जब साक्षी परीक्षा देने के लिए अंदर चली गई, मैं बगल के कुछ और माता-पिता के साथ स्कूल के लान में बैठ गया। धीरे-धीरे बातचीत शुरू हुई, और वहाँ मौजूद अजनबी से लोग भी अपने से लगने लगे। उनमें से एक व्यक्ति, जिसका नाम राजेश सिंह था, चंडीगढ़ से अपनी बेटी का पेपर दिलवाने आया था। उसने बताया कि वह कारगिल युद्ध में लड़ चुका है और उसकी बेटी उसके ससुर के साथ पेपर देने आई थी। राजेश के पास अपनी कार थी, और हमारी बातों के बीच वह मेरी चिंता को समझ गया।
"चिंता मत करो भाई, अगर कोई साधन नहीं मिला तो मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूंगा। आखिर हम भी बेटी के पिता हैं," राजेश ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा। उसकी बात सुनकर मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया। वह मिलनसार और मजबूत व्यक्तित्व का व्यक्ति था। उसने अपने पैर में लगी कारगिल युद्ध के दौरान की गोली का निशान भी दिखाया, जिसे देखकर मैं उसकी बहादुरी का कायल हो गया।
शाम होने को आई, पेपर समाप्त हुआ, और हम सभी स्कूल के बाहर इकट्ठे हो गए। राजेश ने अपनी कार में मुझे और साक्षी को बिठाया और हम करनाल तक साथ आए। संयोगवश, वहीं से चंडीगढ़ से रोहतक जाने वाली एक बस मिल गई। राजेश ने कार रोकी, और जल्दी से हमें बस में बैठा दिया। हम मुस्कराते हुए एक-दूसरे से विदा हुए। मैंने दिल से उसका धन्यवाद किया और हम दोनों ने एक-दूसरे के फोन नंबर का आदान-प्रदान भी किया।
करीब 9 बजे हम रोहतक पहुंचे, और वहाँ से मुझे रायपुर बाईपास तक ऑटो पकड़ना था क्योंकि मेरा गाँव उसी रास्ते में पड़ता था। संयोगवश, जिस ऑटो में हम बैठे, उसमें एक बुजुर्ग सरदार जी बैठे थे, जिनकी उम्र करीब 55 साल रही होगी। थोड़ी देर तक वह बिल्कुल शांत बैठे रहे। फिर अचानक उन्होंने मेरी बेटी साक्षी की ओर देखा और फिर मेरी तरफ। उनकी आँखों में हल्की नमी थी, और वो अपनी आँखों से आंसू पोंछने लगे। उन्होंने अपनी लाल होती आँखों को रुमाल से छिपाने की कोशिश की, लेकिन आंसू रुक नहीं रहे थे।
मैंने उनसे पूछ लिया, "सरदार जी, क्या बात है? आप इतने दुखी क्यों हैं?"
सरदार जी का धैर्य टूट गया। उन्होंने फफक कर रोना शुरू कर दिया। मेरी बेटी भी आश्चर्य से मेरी ओर देख रही थी। बार-बार पूछने पर उन्होंने बताया, "मेरी बेटी भी आपकी बेटी की तरह है। दो दिन बाद उसकी शादी है। हम उसकी शादी की तैयारियों में लगे हैं, लेकिन जब सोचता हूँ कि मेरी बेटी मुझे छोड़कर चली जाएगी, तो मेरा दिल टूट जाता है। क्या हम बेटियों को इसी दिन के लिए पालते हैं?"
उनकी बात सुनकर मेरा दिल भारी हो गया। मैंने किसी तरह उन्हें सांत्वना दी, ढांढस बंधाया। लेकिन जब मैंने अपनी बेटी साक्षी की ओर देखा, तो मेरे खुद के आंसू निकल आए। वह पल मेरे दिल में गहरे उतर गया।
उस दिन मैंने जाना कि बेटियों की विदाई हर पिता के लिए कितनी कठिन होती है। हम उन्हें बड़े प्यार से पालते हैं, उनकी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी का ख्याल रखते हैं। लेकिन जब वो पल आता है, जब हमें उन्हें किसी और के साथ उनके नए जीवन के लिए विदा करना होता है, तो हमारा दिल भारी हो जाता है। शायद यह दुनिया का सबसे सुंदर और सबसे दर्दभरा एहसास होता है, जिसे हर पिता महसूस करता है।
कहानी का सार:
यह कहानी एक पिता के उन भावनात्मक क्षणों की है जब वह अपनी बेटी की विदाई के बारे में सोचता है। यह अनुभव हर पिता को जीवन में कभी न कभी होता है, और यह सोच कि बेटी अब किसी और घर की हो जाएगी, दिल को भावुक कर देती है। बेटियों को पालने का सुख जितना अनमोल है, उनकी विदाई का दुख भी उतना ही गहरा होता है।
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