कबीर की साखियाँ

कबीर की साखियाँ गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागूँ पाँय। बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दिया बताय॥ सिष को ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय। गुरु को ऐसा चाहिए, सिष से कुछ नहिं लेय॥ कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास। जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुबास॥ साधु तो ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उडाय॥ गुरु कुम्हार सिष कुंभ है गढ-गढ काढै खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट॥ कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय। रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय॥ जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास। जो है जाको भावता, सो ताही के पास॥ प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस। तन में मन में नैन में, ताको कहा संदेस॥ नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय। पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय॥ गगन गरजि बरसे अमी, बादल गहिर गँभीर। चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर॥ जाको राखै साइयाँ, मारि न सक्कै कोय। बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥ नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ। ना मैं देखौं और को, ना तोहि देखन देवँ॥ लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥ कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं। ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं। सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय। जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय॥ जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ। जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥ बिरहिनि ओदी लाकडी, सपचे और धुँधुआय। छूटि पडौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं। प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं॥ लिखा-लिखी की है नहीं, देखा देखी बात। दुलहा दुलहिनि मिलि गए, फीकी परी बरात॥ रोडा होइ रहु बाटका, तजि आपा अभिमान। लोभ मोह तृस्ना तजै, ताहि मिलै भगवान॥
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