श्रीगणेश जन्म

श्रीगणेश के जन्म की कथा भी निराली है। वराहपुराण के अनुसार भगवान शिव पंचतत्वों से बड़ी तल्लीनता से गणेश का निर्माण कर रहे थे। इस कारण गणेश अत्यंत रूपवान व विशिष्ट बन रहे थे। आकर्षण का केंद्र बन जाने के भय से सारे देवताओं में खलबली मच गई। इस भय को भांप शिवजी ने बालक गणेश का पेट बड़ा कर दिया और सिर को गज का रूप दे दिया।

दूसरी कथा शिवपुराण से है। इसके मुताबिक देवी पार्वती ने अपने उबटन से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाल दिए। उन्होंने इस प्राणी को द्वारपाल बना कर बैठा दिया और किसी को भी अंदर न आने देने का आदेश देते हुए स्नान करने चली गईं। संयोग से इसी दौरान भगवान शिव वहां आए। उन्होंने अंदर जाना चाहा, लेकिन बालक गणेश ने रोक दिया। नाराज शिवजी ने बालक गणेश को समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी।

क्रोधित शिवजी ने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया। पार्वती को जब पता चला कि शिव ने गणेश का सिर काट दिया है, तो वे कुपित हुईं। पार्वती की नाराजगी दूर करने के लिए शिवजी ने गणेश के धड़ पर हाथी का मस्तक लगा कर जीवनदान दे दिया। तभी से शिवजी ने उन्हें तमाम सामर्थ्य और शक्तियाँ प्रदान करते हुए प्रथम पूज्य और गणों का देव बनाया।

गणेश के पास हाथी का सिर, मोटा पेट और चूहा जैसा छोटा वाहन है, लेकिन इन समस्याओं के बाद भी वे विघ्नविनाशक, संकटमोचक की उपाधियों से नवाजे गए हैं। कारण यह है कि उन्होंने अपनी कमियों को कभी अपना नकारात्मक पक्ष नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी ताकत बनाया। उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड बताती है कि सफलता का पथ सीधा नहीं है।

यहां दाएं-बाएं खोज करने पर ही सफलता और सच प्राप्त होगा। हाथी की भांति चाल भले ही धीमी हो, लेकिन अपना पथ अपना लक्ष्य न भूलें। उनकी आंखें छोटी लेकिन पैनी है, यानी चीजों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करना चाहिए। कान बड़े है यानी एक अच्छे श्रोता का गुण हम सबमें हमेशा होना चाहिए।

The legend of the birth of usher in nearly according to Lord Shiva also is larger than panchatatvon. varahpuran tallinta the owing of the Ganesh and Ganesh were extremely rupvan and specific attraction to become created fear. many gods in a tizzy. get this fear to shivjii ABS of big boy Ganesh and gave the yard's head.

According to another legend shivpuran has of goddess Parvati created an effigy of his putting and vitality ubtan. they make the creature sitting and the gatekeepers anyone in order to not giving baths to come. by the way so get in there while he wished Lord Shiva came, but tad has angered child. shivjii Ganesh Ganesha explainedBut he is not one.

Angry shivjii cut off Ganesha's head tridents. Parvati, Ganesha's head when that Shiva is hacked, they were particularly resentful. Parvati to shivjii of Ganesh the elephant on the fuselage of the Nob thought jivnadan. Since then shivjii them all strength and powers the first dev of pujya and ganon.

Ganesha has elephant head, fat belly and mouse as small vehicles, but these problems even after they vighnavinashak, sankatmochak — from the distinctions. due to the fact that they don't ever become his shortcomings but their downside has made their strength, their skewed-medhi offers a direct path to the proboscis is not success.

There are right-left to get success and search would be like true move even Hedgehog slow., but don't forget your your path target is their eyes, small but brilliant marketing. of greater analysis. a good listener's properties big ears i.e. we should be present always.



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Sab Kuch Seekha Humne


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महर्षि दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टी का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासङ्गिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे।
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मूल को कभी मत भूलो,

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मनुष्य  को तीन चीजें कुदरत से मिलती हैं। शरीर, मन और आत्मा। हमें शरीर से श्रम साधना है। हम शरीर बदल नहीं पाएंगे, जो है उसी का उपयोग करना है। मन भी हमें जन्म से मिला है। इसका भी किसी से एक्सचेंज ऑफर नहीं हो सकेगा।

जो भी सुधार करना है, इसके मूल स्वरूप में हमें ही करना है और आत्मा तो हमारा वास्तविक स्वरूप है। जीवन में जितना इसके निकट जाएंगे, अपने होने का आनंद उठा पाएंगे। ये तीनों तयशुदा हैं। हमें सारा ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनना है। अब इन तीनों के अलावा जो सांसारिक संपदा है, वह चौथी वस्तु हमें स्वयं अर्जित करनी है; यह ईश्वर नहीं देता। इसकी कमाई हमें ही करनी है।

हां, परमात्मा इनके उपयोग, दुरुपयोग में भले ही अपना हस्तक्षेप कर दे; पर अर्जित करना हमारा दायित्व होगा। इसे कहते हैं जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे। शरीर, मन, आत्मा बीज की तरह हैं, इन्हें तपाकर हम अपना वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। फिर इस वर्चस्व से हमें परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा करनी है। तप के बीज से सेवा का वृक्ष तैयार करना चाहिए। लेकिन जीवन यहीं नहीं रुकता। भारतीय संस्कृति मूल में विश्वास रखती है।

पश्चिम कहता है कि परिणाम पर टिक जाओ, बाहर जो मिले उसे भोगो। पूर्व कहता है परिणाम के साथ मूल को कभी मत भूलो, बाहर से भीतर जाने की प्रक्रिया बंद मत करो। इसे कहेंगे वृक्ष से वापस बीज बनाना। यह पूर्णरूपेण आध्यात्मिक क्रिया होगी। वृक्ष से जब बीज बनेगा, तो यह बहुत सूक्ष्म घटना होगी। गहराई में जाकर यह कृत्य पूरा होगा। इस गहराई में ही भौतिक ऊंचाई छिपी रहेगी।              


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बालपन को मिले सही संगत

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बचपन में हम अच्छी-बुरी संगत का मतलब भले ही न समझें, पर किसी न किसी का साथ जरूर चाहिए होता है। बचपन मे विवेक कम या नहीं के बराबर रहता है, अत: अच्छा-बुरा जो मिले, मन वह स्वीकार करने लगता है।

इस समय ग्रहणशीलता चरम पर होती है, क्योंकि नए के लिए पर्याप्त स्थान और आग्रह उपलब्ध है। हर बच्चे में उसका नैसर्गिक और मौलिक गुण जन्म से ही होता है। माता-पिता उसके लालन-पालन में कमल के पत्ते और जलकण जैसा व्यवहार रखें तो भविष्य में बच्चे की योग्यता निखरकर आएगी। दूसरे पेड़ों के पत्तों पर पानी की बूंद उन पर गिरे तो वे उसे सोख लेते हैं, लेकिन कमल का पत्ता बूंद को बूंद ही रहने देता है।

जलकण की अपनी हस्ती मिटती नहीं। कमल का पत्ता न बूंद को सोखता है और न ही स्वयं भीगता है। इसलिए बालपन की बूंदों को सही संगत दी जाए। गर्म लोहे पर पानी की बूंद गिरेगी तो सूख जाएगी। यदि यही जलकण समुद्र में किसी सीप में गिर जाए तो विशेष नक्षत्र में मोती बन जाएगी। फिर जिस व्यक्तित्व में मोती होने की तैयारी होगी, उसे भविष्य में हीरा बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।

इसलिए यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि बचपन को कौन-सी संगत दी जाए। संसार में मेल-जोल का नियंत्रण तो हम संभाल लेते हैं। बच्चों को आरंभ से परमात्मा की संगत दी जाए। बच्चे में दूसरे के प्रवेश पर खलबली मचती ही है। कभी वह भयभीत होगा तो कभी प्रसन्न होगा। ईश्वर का सान्निध्य उसे आत्मविश्वास देगा। आगे आने वाले जीवन में फिर वह बालपन किसी के भी प्रवेश के प्रति संयमित, सुरक्षित और अनुभवी रहेगा।
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भ्रूण की आवाज सुने

www.goswamirishta.com मुझे आने दो माँ मुझे आने दो माँ, मै भी यहाँ साँस लेना चाहती हूँ मेरी भी आँखें चाहती हैं देखना संसार को मै भी अब जन्म लेना चाहती हूँ मेरे कान भी सुनेंगे प्यार भरे बोल तेरे मै तेरी गोदी में सोना चाहती हूँ मै भी चलूंगी अपने नन्हे कदम रखकर नापना संसार को मै चाहती हूँ मै भी उडूँगी अपनी बाँहों को पसारे आसमाँ मुट्ठी में करना चाहती हूँ रोक लो औजारों को तुम दूर मुझ से मै तुम्हारे पास आना चाहती हूँ नष्ट ना कर दे कोई यह देह मेरी मै तुम्हारी शक्ती बनना चाहती हूँ मुझे आने दो माँ !
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चोट अपने की

www.goswamirishta.com एक सुनार था। उसकी दुकान से मिली हुई एक लुहार की दुकान थी। सुनार जब काम करता, उसकी दुकान से बहुत ही धीमी आवाज होती, पर जब लुहार काम करतातो उसकी दुकान से कानो के पर्दे फाड़ देने वाली आवाज सुनाई पड़ती। एक दिन सोने का एक कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के एक कण के साथ हुई। सोने के कण ने लोहे के कण से कहा, "भाई, हम दोनों का दु:ख समान है। हम दोनों को एक ही तरह आग में तपाया जाता है और समान रुप से हथौड़े की चोटें सहनी पड़ती हैं। मैं यह सब यातना चुपचाप सहन करता हूं, पर तुम...?" "तुम्हारा कहना सही है, लेकिन तुम पर चोट करने वाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नहीं है, पर वह मेरा सगा भाई है।" लोहे के कण ने दु:ख भरे स्वर में उत्तर दिया। फिर कुछ रुककर बोला, "पराये की अपेक्षा अपनों के द्वारा गई चोट की पीड़ा अधिक असह्म होती है।"
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समाज सुधारक थे संत कबीर

www.goswamirishta.com भारतीय संस्कृति में संतों की महिमा अद्भुत है। समाज के गुरु ईश्वर तुल्य होते हैं। समाज में व्याप्त बुराई, अराजकता और अशांति को संत ही हमेशा से नियंत्रित करते रहे हैं। कबीरदास एक निर्भीक समाज सुधारक थे। उनके विचार आज भी समाज के लिए प्रासंगिक हैं। धर्म के ऊपर मानवता को स्थापित किया है। उन्होंने भेदभाव को भुलाकर हमेशा भाईचारे के साथ रहने की सीख दी है। सामाजिक विषमता को दूर करना ही उनकी पहली प्राथमिकता थी। उनकी जयंती पर उनके आदर्शों को जीवन में आत्मसात करना ही इस आयोजन को सार्थक बनाएगा। प्रातः बेला में मैंने परम वंदनीय कबीर दास का स्मरण किया, कमरे में टंगे चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए और चल पड़ा गंगा नहाने। कंधे पर अंगोछा देख हमारे पड़ोसी मेहरा चौंके - 'का बात है बौरा गए हो का, ई सुबह-सुबह कहां चल दिए।' मैं मुस्कराया और बोला, 'मेहरा जी राम-राम, सब कुशल रहे इसलिए गंगा स्नान को जा रहा हूं, चलते हैं तो चलिए। मेहरा भोर के झोंके में थे। वे अपने ओरिजनल फॉर्म से औपचारिक रूप में आते हुए बोले- 'नहीं-नहीं मित्रवर, आप जाइए और दिन का शुभारंभ करिए।' मेहरा क्षण भर को ही सही, आप अपने भीतर सो रही आत्मा के सुर में बोल रहे थे, अचानक महानगरीय खोल में क्यों सिमट गए,' मैं शिकायती लहजे में बोला। 'वो क्या है कि ज्यादा देर जीवन के वास्तविक स्वरूप में रहने पर तबियत खराब होने लगती है। आजकल मैं टेंशन फ्री रहने के लिए मुक्त चिंतन का सहारा ले रहा हूं,' मेहरा ने मुझे जीवन की वास्तविकता से अवगत कराया। उनके जवाब में छुपा टेंशन फ्री रहने के लिए मुक्त चिंतन का फंडा मेरे विचारों को हिट कर गया। रहना तो मैं भी टेंशन फ्री ही चाहता हूं पर आजकल के जमानें में टेंशन फ्री रहना आसान है क्या? घर-ऑफिस, सड़क, देश-प्रदेश हर तरफ टेंशन का बोलबाला है। दिन भर किसी टेंशन से पाला न पड़े इसी टेंशन में तो सुबह-सुबह गंगा नहाने जा रहा था। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछा, 'मेहरा जी चिंतन और उन्मुक्त चिंतन तो सुना है परंतु यह मुक्त चिंतन क्या बला है।' वे मुस्कराए, उनकी मुस्कराहट में मेरे अल्पज्ञानी होने का भाव छुपा हुआ था, फिर बोले 'मुक्त चिंतन मार्केट का शब्द है, देखो इतनी बड़ी मार्केट में अगर तुम टेंशन लेकर जी रहे हो तो तुम्हारा कल्याण परमपिता परमेश्वर भी नहीं कर पाएंगे। कब तक भाग्य भरोसे किस्मत चमकने की प्रतीक्षा करते रहोगे।' मैंने कहा, 'आप मार्केट के नाम पर इक्कीसवीं सदी में चाहे जितना उछल लीजिए इसका मूल भाव तो हमारे देश की सोलहवीं सदी की उपज है जिसकी कल्पना कबीर बहुत पहले ही कर चुके हैं। वैसे आप आज बड़े खुश लग रहे हैं, क्या बात है?' मैंने बात पूरी करते हुए कहा। मेहरा जी बोले, 'उन्होंने भी लिखा है कबिरा खड़ा बाजार में..। सो टेंशन मुक्त होने के लिए बाजार में खड़े हो जाओ और खरीददारी में जुट जाओ, नकद नहीं तो उधार लो। तुम टेंशन फ्री हो जाओगे।' मैंने पूछा, 'मेहरा जी बौद्धिक स्तर पर मार्केट से विरक्ति कैसे होती है?' मेहरा बोले 'जब तुम देखते हो कि हवन सामग्री तक की मार्केटिंग में बहुराष्ट्रीय कंपनियां उतर चुकी हैं तो स्वतः तुम इस मोह-माया से विरक्त हो जाते हो। तुम कबीरवादी बन जाते हो।' मेहरा जी तो इतना कह अंदर चल दिए। मैंने गौर से अपने हुलिए पर नजर डाली और सोचा कि चलूं जल्दी से गंगा नहा लूं या अपना हुलिया बदल डालूं वरना दुनिया के बाजार में अपना कारोबार मुश्किल हो जाएगा।
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अंहकार से सदा दूर रहें

www.goswamirishta.com ईश्वर को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सर्वप्रथम अपने अहंकार को समाप्त करना होता है। जब तक व्यक्ति अहंकार के भार से दबा रहता है, तब तक परमात्मा की कृपा प्राप्त होना असंभव होता है। कभी-कभी व्यक्ति को सात्विक कार्यों में भी अहंकार हो जाता है कि मुझसे बड़ा पुण्यात्मा अथवा दानी-दाता कोई नहीं हो सकता, पर भगवान वामन रूप से आकर यह बता देते हैं कि मैं वामन (बौना) से विराट और विराट से वामन हो सकता हूं। महाराजा बलि से तीन पग भूमि मांग कर भगवान धरती और आकाश को नापा और तीसरा पग कहां रखें इस विचार से बलि की ओर देखा। बलि ने निरर्थक अभिमान के आभास में कहा- मेरे अहंकारी सिर पर तीसरा पग रखकर मेरा कल्याण कीजिए। अत: महाराजा बलि की तरह ही हमें भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अंहकार से सदा दूर रहकर जनहित, परिवार के कल्याणार्थ कार्य करें।
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परमात्मा का अनमोल उपहार

www.goswamirishta.com जीवन परमात्मा का अनमोल उपहार है। यह स्वयं ही इतना दिव्य, पवित्र और परिपूर्ण है कि संसार का कोई भी अभाव इसकी पूर्णता को खंडित करने में असमर्थ है। आवश्यकता यह है कि हम अपने मन की गहराई से अध्ययन कर उसे उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करें। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ एवं अहम के दोषों से मन को विकृत करने के बजाए अपनी जीवनशैली को बदल कर सेवा, सहकार, सौहार्द जैसे गुणों के सहारे मानसिक रोगों से बचा जा सकता है और मानसिक क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य जीवन चार तरह की विशेषताएं लिए रहता है। इस संबंध में एक श्लोक प्रस्तुत है - बुद्धैय फलं तत्व विचारणंच/देहस्य सारं व्रतधारणं च/वित्तस्य सारं स्किलपात्र दानं/वाचः फलं प्रतिकरनाराणाम। अर्थात्- बुद्धि का फल तभी सार्थक होगा, जब उसको पूर्ण विचार करके उस पर अमल करें। शरीर का सार सभी व्रतों को धारण करने से है। धन तभी सार्थक होगा, जब वह सुपात्र को दान के रूप में मिले और बात या वचन उसी से करें, जब व्यक्ति उस पर अमल करें। इसी का बेहतर तालमेल जीवन में बिठाना होता है। जो बिठा लेता है, वह भवसागर से पार हो जाता है और जो नहीं बिठा पाता वह दुख में पड़ा गोता खाता रहता है। आप जब तक इस गहराई को नहीं समझेंगे, अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकते हैं। जानना यह भी जरूरी है कि हम अपनी हर धड़कन की रफ्तार को समझें।
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दया धर्म का मूल Origin of Daya Dharma

हम बचपन से पढ़ते, सुनते आ रहे हैं ‍‍कि 'दया धर्म का मूल है'। सभी धर्मग्रंथों में दया पर ही अधिक जोर दिया गया है। अगर आप दया नहीं कर सकते हैं तो आपका यह मानव जीवन निरर्थक है। यह तो उसी प्रकार की बात हुई कि जन्म लिया, खाए-पिए, बड़े हुए, विवाह-शादी हुई, वंशवृद्धि की परिवार को आगे बढ़ाया और कालांतर में जीवन यात्रा पूरी कर पहुंच गए भगवान के घर। ऐसा जीवन तो पशु-पक्षी भी जीते हैं। ...तो फिर हम इंसानों व पशु-पक्षियों में क्या अंतर रह जाता है? बच्चों पर करें दया :- छोटे बच्चे, बिलखते बच्चे, भूखे, बीमार बच्चे, वृद्ध-वृद्धा... यह फेहरिस्त काफी लंबी है। हे मनुष्य आत्माओं, तुम इन पर दया करो। तुम्हें भगवान मिलेंगे। सिर्फ पूजा-हवन से भगवान नहीं मिलने वाला है। आपको ईश्वर की प्राप्ति के लिए दयालु बनना होगा। मन में दयाभाव व इंसानों के प्रति करुणा, विनम्रता व सहनशीलता रखनी होगी। मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, विनोबा भावे तथा ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने अपनी दया-धर्म के बल पर ही सारे संसार में अपना नाम रोशन किया। जिसकी आभा, दीप्ति से सारा जग-संसार आज भी प्रकाशमान/प्रकाशवान है। ऐसी ‍महान वि‍भूतियों के आदर्शों का अगर हम अनुसरण व अनुकरण करें तो संसार में कोई समस्या ही नहीं रहे। 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे भवंतु निरामया' की भावना से संसार में सर्वत्र हरियाली व खुशहाली जैसा माहौल बन जाएगा। कहा भी गया है कि मानवता (इंसानियत) दुनिया को एकजुट करने वाली ताकत है। क्या करें दया के लिए.... :- 'अंकल/ आंटी प्लीज... एक मिनट...' यह वाक्य आपने भी कई बार सड़क से गुजरते हुए सुना, देखा होगा। स्कूल या काम पर जाते बच्चे इस तरह की लिफ्ट मांगते हैं और लोग हैं कि 'इनको' नजरअंदाज कर निकल जाते हैं। यह बात विडंबना की ही कही जाएगी। अरे भाई, किसी बच्चे को अगर आप अपने वाहन पर बिठाकर उसके मुकाम या उसके नजदीकी ठिकाने तक ही छोड़ दें तो आपको उसकी जो दुआएं मिलेंगी वो आपका जीवन सार्थक कर देंगी। आपको अपार खुशी तो मिलेगी ही इस बात की कि 'आज मैंने अपनी जिंदगी में एक अच्‍छा काम किया।' देखिएगा कि भगवान की सिर्फ पूजा-पाठ व हवन-पूजन, जप तथा उसके नाम की माला फेरने-भर से कुछ नहीं होने वाला है। आपको ईश्वर-प्राप्ति की चाह है गर तो आपको अपने आचरण को थोड़ा-सा ही सही, लेकिन सुधारना जरूर होगा। सिर्फ अपने लिए ही नहीं जिएं :- मन्ना डे की आवाज में पुरानी फिल्म का एक गाना है- 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए।' यह गीत आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में बिलकुल सटीक बैठता है। आज हर किसी के पास एक ही चीज का अभाव है, वह है- समय। जब भी कोई कार्य के बारे में किसी को कहा जाता है तो वह यही कहता है कि 'यार, क्या करूं, मेरे पास टाइम नहीं है।' ये रटा-रटाया शब्द अधिकतर लोगों की जुबान पर रखा ही रहता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पी‍ड़ित मानवता की सेवा कैसे की जाए? ऐसे करें सेवा... :- ठीक है आपके पास समय नहीं है तो आज के मोबाइल, ई-मेल व इंटरनेट के जमाने में भी आप 'दया को अर्पित' कर सकते हैं... वो भी घर बैठे ही! वो कैसे? ठीक है यदि आपके पास अनाथालय (अनाथाश्रम), वृद्धाश्रम, महिला श्राविका आश्रम, महिला उद्धार गृह, कुष्ठ उद्धार गृह आदि जगहों पर जाने का समय नहीं है तो आप इन आश्रमों के फोन, मोबाइल नंबरों पर संपर्क कर अपनी दान राशि भेंट कर सकते हैं। इन आश्रमों के कर्मचारी आपके घर आकर दान राशि ले जाएंगे तथा आप पुण्य के भागी बन जाएंगे। 'रोटी सेवा' की जाए :- यह लेखक अपने अनुभव आप सबके सामने साझा कर रहा है। बात कोई 2003 की है। इस लेखक को टाइफाइड, पीलिया, मलेरिया, अनिद्रा तथा जबर्दस्त दस्त की शिकायत हो गई थी। तब यह इंदौर क्लॉथ मार्केट अस्पताल में भर्ती था। इस दौरान इन्होंने देखा कि ठीक 4 बजे कुछ लोग पॉलिथीन की एक थैली में रोटी तथा एक थैली में सब्जी लेकर वार्ड-वार्ड में घूम-घूमकर मरीजों को दे रहे थे वो भी मात्र 1 रुपए में। उस समय (2003) में भी इस भोजन-सेवा की कीमत आज के 5 रुपए से कम नहीं रही होगी, पर वे मात्र 1 रुपए में यह सेवा कर रहे थे। जानकारी लेने पर मालूम हुआ था कि कुछ लोगों ने इस सेवा हेतु एक ग्रुप बनाया हुआ है तथा ग्रुप के सदस्य हर माह अपनी आमदनी में से कुछ पैसा इस ग्रुप (संगठन) में देते हैं तथा एक बाई (खाना बनाने वाली) को रखकर खाना बनवा कर अस्पताल में सप्लाय कर दिया जाता है। ...तो है न यह सेवा का अनूठा जज्बा! आत्मसंतुष्टि मिलती है :- अगर आप किसी की एक छोटी-सी भी मदद करते हैं तो वह व्यक्ति कृतज्ञ भाव से आपकी ओर देखता है तब आपको जो आत्मसंतोष मिलता है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। कभी आप भूखे बच्चों को रोटी खिलाकर, फटेहाल व ठंड में ठिठुरते लोगों को वस्त्र पहनाकर, किसी सताई हुई नारी को यह दिलासा देते हुए कि 'बहन चिंता मत कर, तेरा भाई जिंदा है' उसके सिर पर अगर आप हाथ रखेंगे तो भावुकतावश आपकी आंखों से भी इस बात को लेकर अश्रुधारा बह निकलेगी कि आज मैंने जिंदगी में अच्‍छा काम किया है। जब ईश्वर के सामने हम अपने कर्मों का हिसाब-किताब देने हेतु खड़े होंगे तो बिलकुल निश्चिंत होंगे, क्योंकि आपके मन में यह भाव लगा रहेगा कि मैंने अपनी जिंदगी में‍ किसी आत्मा को कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया। ...न बुरा बोलें व न बुरा करें :- एक इंसान होने के नाते हर व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी किसी को बुरा नहीं बोले और न ही कभी बुरा कर्म ही करें। अगर आप किसी को बुरा बोलते हैं तो उसके वायब्रेशन सारे वायुमंडल में फैल जाते हैं। यह अपने, सामने वाले के साथ ही वातावरण को भी प्रदूषित करते हैं, अत: सदैव मीठा बोलें। यही बात कर्म पर भी लागू होती है। हमारे कर्म जितने अच्छे होंगे, हम ईश्वर के उतने ही करीब होंगे। रास्ते का पत्थर ही हटा दें :- ठीक है आपके पास पैसे नहीं है। तो आप यह काम तो कर ही सकते हैं कि रास्ते में एक पत्थर पड़ा है, जो आते-जाते लोगों को लहूलुहान कर रहा है। कई लोग ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कई को गंभीर चोट लग भी सकती है या लगती भी है। तो अपने को चाहिए कि वो पत्थर उस जगह से हटा कर एक तरफ रख दें। अपने इस जरा-से कष्ट कई लोगों को सुविधा हो जाएगी। आपका अनजाने व खामोशी से किया गया यह कर्म आपको भी आत्मसंतुष्टि देगा व लोगों की दुआएं भी आपको मिलेंगी। ये भी कर सकते हैं :- कई चौराहों व रास्तों पर देखा गया है कि बच्चे, बुजुर्ग व महिलाएं रास्ता पार करने हेतु ट्रैफिक रुकने का इंतजार कर रहे होते हैं, किंतु ट्रैफिक है कि रुकने का ही नाम नहीं लेता। आप ऐसी स्थि‍ति में उनकी मदद के लिहाज से उनका हाथ पकड़कर रास्ता पार करा सकते हैं। यह भी बिना खर्च किए मुफ्त की एक अच्‍छी 'मानव-सेवा' है। मानव सेवा, माधव सेवा : मानव की सेवा माधव (भगवान) की सेवा के बराबर मानी गई है। आप चाहें चारों धाम की यात्रा करो, लेकिन एक इंसान की सेवा अगर जरूरत के समय नहीं करते हैं तो चारों धाम की यात्रा का कोई फल नहीं मिलने वाला। खराब वचन और खराब कर्म करने के बाद भगवान को जल, अर्घ्य व एक मन चावल अर्पित करके आप अपने द्वारा किए गए पाप से बरी नहीं हो सकते। कर्मों का फल तो हर व्यक्ति को भुगतना ही पड़ता है। इससे भगवान भी नहीं बच सके हैं तो इंसान की क्या बिसात? जिंदा हैं जिनके दम पर नाम-ओ-निशां हमारे :- यह उक्ति आपने कई बार सुनी, पढ़ी होगी। उक्त पंक्तियों का शाब्दिक अर्थ यह है कि वे लोग जो श्रेष्ठ कर्म करते हैं तथा समाज में जिनकी ‍कीर्ति है, उनके दम पर ही हमारे नाम-ओ-निशां जिंदा (बाकी) हैं। अगर समाज से श्रेष्ठ कर्म यानी दया-भाव का खात्मा हो जाए तो यह बस्ती इंसानों की बस्ती न कहलाकर पशु-पक्षियों से भी गई-बीती बस्ती कहलाएगी। इंसान द्वारा इंसान से प्रेम किया जाना मनुष्यता की पहली पहचान है। इस प्रकार हम भी अधिक नहीं तो थोड़ी सी दया-भावना मन में रखकर पी‍ड़ित मानवता की सेवा कर इस उक्ति को सार्थक कर सकते हैं कि दया धर्म का मूल है। मालवा के 'मदर टेरेसा' (सुधीर भाई गोयल) :- सेवाधाम आश्रम, उज्जैन के संचालक का नाम संपूर्ण मालवा अंचल सहित सारे देश में जाना-पहचाना है। उनके द्वारा किए गए सेवा कार्य की सुगंध सर्वत्र बिखरती जा रही है। उनमें 'मानव सेवा, माधव सेवा' का जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ है। उनके क्या बच्चे, क्या बुजुर्ग, या समाज की सताई हुई दुखियारी महिला हो- सबके प्रति 'मानव सेवा, माधव सेवा' की भावना से वे कार्य करते हैं। ‍बीमार, अपाहिज, विकलांग, भूखे, नेत्रहीन व कुष्ठ रोगी के प्रति जो करुणा व दया का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है वह आजकल अन्यत्र दुर्लभ ही मिलता है। उन्होंने कई असहायों को अपनाया है तथा उनका सेवा कार्य जारी है। इस प्रकार हम दया-भाव रखकर पी‍ड़‍ित मानवता की सेवा कर सकते हैं तथा ईश्वर के काफी करीब हो सकते हैं।
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जीवन मूल्यों को दर्शाते धर्म के संदेश

www.goswamirishta.com FILE प्रत्येक धर्म के मूल में प्रेम, निःस्वार्थ व्यवहार, जीवन के प्रति पूरी आस्था, सह-अस्तित्व जैसे जीवन के आवश्यक मूल्य निहित हैं। त्योहारों का उद्देश्य जीवन मूल्यों के पथ पर होने वाले किसी भी भटकाव को आंकने और उसे सुधार लेने का अवसर देना होता है। धार्मिक त्योहार इस मायने में अधिक प्रासंगिक और प्रभावी होते हैं। धर्म कौन-सा इससे ज्यादा फर्क इसलिए नहीं पड़ता है। दया, परोपकार, सहिष्णुता अस्तित्व को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई वे मूल संप्रदाय हैं जो भारतीय समाज की प्रमुख रचना करते हैं। इसके अलावा समुदाय, संप्रदाय, जाति वर्ग के आधार पर मौजूद भिन्नताएं भी समाज की रचना के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इतनी विविधता में भी अस्तित्व सुनिश्चित है। कल्पना कीजिए कि उपर्युक्त जीवन मूल्यों का अभाव होता। सहिष्णुता नहीं होती। जीवन में आस्था नहीं होती। स्वार्थ ही होता, निःस्वार्थ नहीं। तब क्या संभव था कि कोई किसी को जीवित रहने देता? चूंकि जीने की इच्छा प्राणीमात्र की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रबल लालसा होती है, अतः धर्म रचना में पहला बिन्दु अस्तित्व को कायम रखने का पाया जाता है। इस बिन्दु की याद वह हर पर्व-त्योहार दिलवाता है जो किसी न किसी धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है। यह समय ईसाइयत के प्रणेता यीशु मसीह के जन्मदिन का पर्व मनाने का है। ईसाइयत विश्व का सबसे बड़ा धर्म है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि इस वक्त ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। लगभग दो हजार वर्षों से ईसा मसीह के 'निःस्वार्थ प्रेम' के मूलमंत्र के अनुसार ईसाइयत आगे बढ़ रही है। दूसरा प्रसंग स्कंदपुराण में से देखिए, 'केवल शरीर के मैल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता है। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल होता है।' समाज में सकारात्मक सह-अस्तित्व को स्थापित करने में धर्मों को कितनी सफलता मिली, यह आकलन का एक बड़ा विषय है। धर्म इस उद्देश्य की पूर्ति में सतत लगे हैं, पूरी पारदर्शिता के साथ, यह पहली आवश्यकता है। इस दायित्व में तिनका भर विचलन भी परिणामों की नकारात्मकता को बड़ा रूप दे सकता है। स्वस्थ दृष्टिकोण कहता है कि इनकमियों को दूर करते हुए आगे बढ़ना ही विकास का पहला अर्थ है। यदि धर्म की मौजूदगी के बाद भी हिंसा, परस्पर वैमनस्य, लालच, स्वार्थ बढ़ रहे हैं तो यह पता लगाया जाना आवश्यक है कि सकारात्मक अस्तित्व को स्थापित करने की प्रक्रिया में कहीं कोई कमी या गड़बड़ी आई है। ऐसी कमियों को अनदेखा कर आगे बढ़ा जाता है तो कहते हैं कि धर्म का विवेकशील अनुपालन नहीं हो रहा है। अंधविश्वास का भी यही अर्थ होता है। अतीत में जीना और वर्तमान से कटे रहना भी इसी को कह सकते हैं। यह आग्रह प्रत्येक धर्म का है, चाहे वह जीवन धर्म ही क्यों न हो, कि समय के साथ जीवन मूल्यों का सम्मान बनाए रखकर आगे बढ़ते जाना ही जीवन है।
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धर्म की महानता..

www.goswamirishta.com धर्म और संस्कृति की महानता को दर्शाने वाले राजा शिबि का दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। एक पौराणिक कथा के अनुसार उशीनगर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिर कर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था। राजा ने उसके ऊपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा। कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीन कर मेरे प्राण क्यों लेते हैं? राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाए, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए? बाज कहने लगा- महाराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। राजा ने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुम्हें दूंगा। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज अपने शरीर के एक-एक अंग रखते गए। आखिर में राजा खुद पलड़े में बैठ गए। बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो। महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गए है और कबूतर बने अग्नि देवता भी अपने मूल रूप में खड़े हैं। अग्नि देवता ने कहा- महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता। इन्द्र ने महाराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले- आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम लोगों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश सदा अमर रहेगा। दोनों पक्षी बने देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अंतर्र्ध्यान हो गए। ऐसे कई सच्चे उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो हमारी संस्कृति और धर्म की महानता व व्यापकता दर्शाते हैं। हमारा दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। स्वयं कष्ट उठा कर भी शरणागत और प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाली संस्कृति और कहां मिलेगी। वहीं ऐसा राजा भी कहां मिलेगा, जो नाइंसाफी नहीं हो जाए, इसलिए स्वयं को ही भोजन हेतु समर्पित कर दें।
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समभाव मैं है जीवन की सार्थकता

www.goswamirishta.com संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला - नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें। एकनाथजी ने कहा - तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर। यह सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया। घर गया और पत्नी से बोला - मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला - बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी। इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला - नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है? एकनाथजी बोले - तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु तेरे यह आठ दिन कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा? वह व्यक्ति बोला - क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई। एकनाथजी बोले - मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।
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लाला लाजपत राय

www.goswamirishta.com बाल-लाल-पाल त्रयी के स्वतंत्रता आन्दोलन में संकलित राष्ट्रीय योगदान में लाला लाजपत राय का सम्माननीय स्थान है। कोलकाता के विशेष अधिवेशन (1920) के अध्यक्ष रहे लालाजी लुधियाना जिले में दुंद्धिक नाम के गांव में जन्मे थे। किशोरावस्था में स्वामी दयानंद सरस्वती से मिलने के बाद आर्य समाजी विचारों ने उन्हें प्रेरित किया। आजादी के संग्राम में वे तिलक के राष्ट्रीय चिंतन से भी बेहद प्रभावित रहे। गोखले के साथ लाजपत राय 1905 में कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गए और वहां की जनता के सामने भारत की आजादी का पक्ष रखा। 1907 में पूरे पंजाब में उन्होंने खेती से संबंधित आन्दोलन का नेतृत्व किया और वर्षों बाद 1926 में जिनेवा में राष्ट्र के श्रम प्रतिनिधि बनकर गए। लालाजी 1908 में पुनः इंग्लैंड गए और वहां भारतीय छात्रों को राष्ट्रवाद के प्रति जागृत किया। उन्होंने 1913 में जापान व अमेरिका की यात्राएं की और स्वदेश की आजादी के पक्ष को जताया। उन्होंने अमेरिका में 15 अक्टूबर, 1916 को 'होम रूल लीग' की स्थापना की। नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय छात्र संघ सम्मेलन (1920) के अध्यक्ष के नाते छात्रों को उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने का आह्वान किया। 1921 में वे जेल गए। 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व करने के दौरान राय गंभीर रूप से घायल हुए और 17 नवंबर, 1928 को उनका निधन हुआ। उनकी मौत का बदला लेने के लिए ही भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु ने सांडर्स की हत्या की थी। लाला लाजपत राय के प्रभावी वाक्य :- * 'जो अमोघ और अधिकतम राष्ट्रीय शिक्षा लाभकारी राष्ट्रीय निवेश है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी भौतिक प्रतिरक्षा के लिए सैन्य व्यवस्था। * ऐसा कोई भी श्रम रूप अपयशकर नहीं है जो सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो और समाज को जिसकी आवश्यकता हो।' * 'राजनीतिक प्रभुत्व आर्थिक शोषण की ओर ले जाता है। आर्थिक शोषण पीड़ा, बीमारी और गंदगी की ओर ले जाता है और ये चीजें धरती के विनीततम लोगों को सक्रिय या निष्क्रिय बगावत की ओर धकेलती हैं और जनता में आजादी की चाह पैदा करती हैं।'
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महान संत कैसे बने

एक बार किसी ने हरि बाबा से पूछा कि: ‘‘बाबा ! आप ऐसे महान संत कैसे बने ?’’ हरि बाबा ने कहा: ‘‘बचपन में जब हम खेल खेलते थे तो एक साधु भिक्षा लेकर आते और हमारे साथ खेल खेलते। एक दिन साधु भिक्षा लाये और उनके पीछे वह कुत्ता लग गया, जिसे वह रोज टुकड़ा देते थे। पर उस दिन टुकड़ा दिया नहीं और झोले को एक ओर टांगकर हमारे साथ खेलने लगे किंतु कुत्ता झोले की ओर देखकर पूँछ हिलाये जा रहा था। तब बाबा ने कुत्ते से कहा: ‘चला जा, आज मुझे कम भिक्षा मिली है। तू अपनी भिक्षा माँग ले।’ फिर भी कुत्ता खड़ा रहा। तब पुनः बाबा ने कहा: ‘जा, यहां क्यों खड़ा है? क्यों पूँछ हिला रहा है?’ तीन-चार बार बाबा ने कुत्ते से कहा, किंतु कुत्ता गया नहीं। तब बाबा आ गये अपने बाबापने में और बोले: ‘जा, उलटे पैर लौट जा।’ तब वह कुत्ता उलटे पैर लौटने लगा। यह देखकर हम लोग दंग रह गये। हमने खेल बंद कर दिया और बाबा के पैर छुए। बाबा से पूछा: ‘बाबा! यह क्या, कुत्ता उलटे पैर जा रहा है! आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र है कि वह ऐसे चल रहा है?’ बोले: ‘बेटा! वह बड़ा सरल मंत्र है- सब में एक , एक में सब। तू उसमें टिक जा बस!’ तब से हम साधु बन गये।’’ मैं कहता हूं तुम्हारे आत्मदेव में इतनी शक्ति है, तुम्हारे चित्त में चैतन्य प्रभु का ऐसा सामर्थ्य है कि तुम चाहो तो भगवान को साकार रूप में प्रकट कर सकते हो, तुम चाहो तो भगवान को सखा बना सकते हो, तुम चाहो तो दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बना सकते हो, तुम चाहो तो देवताओं को प्रकट कर सकते हो। देवता अपने लोक में हों चाहे नहीं हों, तुम मनचाहा देवता पैदा कर सकते हो और मनचाहे देवता से मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकते हो, ऐसी आपकी चेतना में ताकत है। तो ‘सब में एक- एक में सब’ इसमें जो संत टिके होते हैं, वे तो ऐसी हस्ती होते हैं कि जहाँ आस्तिक भी झुक जाता है, नास्तिक भी झुक जाता है, कुत्ता तो क्या देवता भी जिनकी बात मानते हैं, दैत्य भी मानते हैं और देवताओं के देव भगवान भी जिनकी बात रखते हैं। सब-के-सब लोग ऐसे ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी बात मानते हैं।
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2 मिनट लगेगा प्लीज पुरा पढना

www.goswamirishta.com १.पापा कहते है "बेटा पढाई करके कुछ बनो" तो बुरा लगता है, पर यही बात जब गर्लफ्रेंड कहती है तो लगता है केयर करती है | २. गर्लफ्रेंड के लिए माँ-बाप से झूठ बोलते है, पर माँ-बाप के लिए गर्लफ्रेंड से क्यूँ नहीं ? ३. गर्लफ्रेंड से शादी के लिए माँ-पापा को छोड़ देते है, पर माँ-पापा के लिए गर्लफ्रेंड को क्यूँ नहीं ? 4. गर्लफ्रेंड से रोज रात में मोबाईल से पूछते है खाना खाया की नहीं या कितनी रोटी खाई, पर क्या आज तक ये बात माँ-पापा से पूछी ? 5.गर्लफ्रेंड की एक कसम से सिगरेट छूट जाती है, पर पापा के बार-बार कहने से क्यूँ नहीं ? कृपया अपने माँ-बाप की हर बात माने और उनकी केयर करे...और करते हो तो आपके माँ-बाप आपके लिए कुछ भी गर्व से करने को तैय्यार है | और ये सबको बताये और समझाए, क्या पता आपकी बात उसके समझ में आ जाये...? अपने को माहोल ही ऐसा बनाना है की हर बच्चा अपने माता-पिता को ही भगवान समझे | अगर आप को ये postपसंद आये तो इसे share and like...
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कुंभक्षेत्र तीर्थक्षेत्र

www.goswamirishta.com कुंभक्षेत्र तीर्थक्षेत्र हैं । वहांकी पवित्रता तथा सात्त्विकता बनाए रखनेका प्रयास करना, यह स्थानीय पुरोहित, देवालयोंके न्यासी तथा प्रशासनके साथ ही वहां आए प्रत्येक तीर्थयात्रीका भी कर्तव्य है । १. कुंभक्षेत्रमें पर्यटकोंकी भांति आचरण न करें ! : कुंभक्षेत्रमें आए अनेक लोग वहां पर्यटकोंकी भांति आचरण करते दिखाई देते हैं । एक-दूसरेका उपहास उडाना, पश्चिमी वेशभूषा करना, संगीत सुनना, अभक्ष्य भक्षण करना आदि कृत्य उनसे होते हैं । तीर्थक्षेत्रगमन एक ‘साधना’ है । वह पूर्ण होनेके लिए तीर्थक्षेत्रमें आनेपर भावपूर्ण गंगास्नान करना, देवताओंके दर्शन करना, दान-धर्म करना, उपास्यदेवताका नामजप करना, इस प्रकार अधिकाधिक समय ईश्वरसे सायुज्य (आंतरिक सान्निध्य) रखना अपेक्षित है । ऐसा करनेपर गंगास्नान एवं यात्राका आध्यात्मिक स्तरपर लाभ होता है । २. तीर्थक्षेत्रकी पवित्रता बनाएं रखें ! : कुंभक्षेत्रमें पवित्र तीर्थस्नान करनेवाले तीर्थयात्री वह तीर्थ प्रदूषित करनेवाले कृत्य करते हैं । कुछ लोग प्लास्टिककी थैलियां, सिगरेटके वेष्टन, पुराने अंतर्वस्त्र इ. भी नदी / कुंडमें डालते हैं । इससे तीर्थकी पवित्रता घटती है । धर्मशास्त्रके अनुसार गंगा, गोदावरी एवं क्षिप्रा, इन पवित्र नदियोंको प्रदूषित करना बडा अपराध है । इसलिए तीर्थयात्री इस बातका ध्यान रखें कि स्नानके समय तीर्थकी पवित्रता बनी रहे । ३. पर्वस्नानके आरंभमें प्रार्थना तथा स्नान करते समय नामजप करें ! : पर्वस्नानके समय तीर्थयात्री जोर-जोरसे बातें करना, चिल्लाना, एक-दूसरेपर पानी उछालना इत्यादि अनुचित कृत्य करते हैं । स्नान करनेवालेका मन तीर्थक्षेत्रकी पवित्रता एवं सात्त्विकता अनुभव न करता हो, तो उसके पापकर्म धुलना असंभव है; इसलिए पर्वस्नानका आध्यात्मिक लाभ होने हेतु उसके आरंभमें गंगामातासे आगे दिए अनुसार प्रार्थना करें । ३ अ. हे गंगामाता, आपकी कृपासे मुझे ये पर्वस्नान करनेका अवसर प्राप्त हुआ है । इसके लिए मैं आपके चरणोंमें कृतज्ञ हूं । हे माते, आपके इस पवित्र तीर्थमें मुझसे श्रद्धायुक्त अंतःकरणसे पर्वस्नान हो । ३ आ. हे पापविनाशिनी गंगादेवी, आप मेरे सर्व पापोंको हर लीजिए । ३ इ. ‘हे मोक्षदायिनी देवी, आप मेरी आध्यात्मिक प्रगति हेतु आवश्यक साधना करवा लीजिए और मुझे मोक्षकी दिशामें ले जाइए’ । तदुपरांत उपास्यदेवताका नामजप करते हुए स्नान करें !..
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जनहित में जारी....

www.goswamirishta.com आजकल नए बने ताज एक्सप्रेस वे पर रोजाना गाड़ियों के टायर फटने के मामले सामने आ रहे हैं जिनमें रोजाना कई लोगों की जानें जा रही हैं. एक दिन बैठे बैठे मन में प्रश्न उठा कि आखिर देश की सबसे आधुनिक सड़क पर ही सबसे ज्यादा हादसे क्यूँ हो रहे हैं? और हादसों का तरीका भी केवल एक ही वो भी टायर फटना ही मात्र, ऐसा कोन सी कीलें बिछा दीं सड़क पर हाईवे बनाने वालों ने? दिमाग ठहरा खुराफाती सो सोचा आज इसी बात का पता किया जाये. तो टीम जुट गई इसका पता लगाने में. अब सुनिए हमारे प्रयोग के बारे में. मेरे पास तो इको फ्रेंडली हीरो जेट है सो इतनी हाई-फाई गाडी को तो एक्सप्रेस वे अथोरिटी इजाजत देती नहीं सो हमारे dost ko बुला लिया उनके पास Scorpico है (ध्यान रहे असली मुद्दा टायर फटना है) सबसे पहले हमनें ठन्डे टायरों का प्रेशर चेक किया और उसको अन्तराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ठीक किया जो कि 25 PSI है. (सभी विकसित देशों की कारों में यही हवा का दबाव रखा जाता है जबकि हमारे देश में लोग इसके प्रति जागरूक ही नहीं हैं या फिर ईंधन बचाने के लिए जरुरत से ज्यादा हवा टायर में भरवा लेते हैं जो की 35 से 45 PSI आम बात है). खैर अब आगे चलते हैं. इसके बाद ताज एक्सप्रेस वे पर हम नोएडा की तरफ से चढ़ गए और गाडी दोडा दी. गाडी की स्पीड हमनें 150 - 180 KM /H रखी. इस रफ़्तार पर गाडी को पोने दो घंटे दोड़ाने के बाद हम आगरा के पास पहुँच गए थे. आगरा से पहले ही रूककर हमने दोबारा टायर प्रेशर चेक किया तो यह चोंकाने वाला था. अब टायर प्रेशर था 52 PSI . अब प्रश्न उठता है की आखिर टायर प्रेशर इतना बढ़ा कैसे सो उसके लिए हमने थर्मोमीटर को टायर पर लगाया तोटायर का तापमान था 92 .5 डिग्री सेल्सियस. सारा राज अब खुल चुका था, कि टायरों के सड़क पर घर्षण से तथा ब्रेकों की रगड़ से पैदा हुई गर्मी से टायर के अन्दर की हवा फ़ैल गई जिससे टायर के अन्दर हवा का दबाव इतना अधिक बढ़ गया. चूँकि हमारे टायरों में हवा पहले ही अंतरिष्ट्रीय मानकों के अनुरूप थी सो वो फटने से बच गए. लेकिन जिन टायरों में हवा का दबाव पहले से ही अधिक (35 -45 PSI) होता है या जिन टायरों में कट लगे होते हैं उनके फटने की संभावना अत्यधिक होती है. अत : ताज एक्सप्रेस वे पर जाने से पहले अपने टायरों का दबाव सही कर लें और सुरक्षित सफ़र का आनंद लें. मेरी एक्सप्रेस वे अथोरिटी से भी येविनती है के वो भी वाहन चालकों को जागरूक करें ताकि यह सफ़र अंतिम सफ़र न बने. आप सभी मित्रों से अनुरोध है कि इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें. चूँकि ऐसा करके आपने यदि एक जान भी बचा ली तो आपका मनुष्य जन्म धन्य होगा
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कम्प्यूटर पर ज्यादा बैठते हैं तो कीजिए ये एक्सरसाइज

www.goswamirishta.com दिनभर कम्प्यूटर के सामने बैठे-बैठे हाथ-पैर, आंखे और पूरे शरीर की बुरी हालत हो जाती है। वैसे तो यह सब सामान्य बात ही नजर आती है परंतु इसका हमारे शरीर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। दिनभर कम्प्यूटर पर कार्य करने वाले अधिकांश लोगों में एक समय बाद चिड़चिड़ापन आ जाता है और वे मानसिक तनाव भी झेलते हैं। जिससे उनका पारिवारिक जीवन और कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है। समय रहते इस तनाव को दूर करने का उपाय कर लिया जाए तो आप भी हमेशा खुश और स्वस्थ रह सकते हैं। आपकी आंखों की रोशनी हमेशा चमकती रहेगी और चश्मों आदि से निजात मिलेगी। यह एक्सरसाइज करें - कम्प्यूटर पर कार्य करने वाले लोगों की आंखों पर सबसे अधिक दबाव पड़ता है। इसलिए आंखों की सुरक्षा के लिए आंखों की पुतलियों को दाएं-बाएं और ऊपर-नीचे घुमाए। फिर गोल-गोल घुमाएं। इससे आंखों की रोशनी बढ़ेगी और आंखों को ठंडक मिलेगी। - बैठे-बैठे पीठ दर्द करने लगती है तो इस दर्द को दूर करने के लिए दोनों हाथों से कोहनियां से मोडि़ए और दोनों हाथों की अंगुलियों को कंधे पर रखें। अब दोनों हाथों की कोहनियों को मिलाते हुए और सांस भरते हुए कोहनियों को सामने से ऊपर की ओर ले जाएं। कोहनियों को घुमाते हुए नीचे की ओर सांस छोड़ते हुए ले जाएं। कोहनियों को विपरीत दिशा में भी घुमाइए। - गर्दन दर्द से बचने के लिए गर्दन को दाएं-बाएं और ऊपर-नीचे घुमाएं। गोल-गोल घुमाए। इससे आपकी गर्दन का दर्द ठीक हो जाएगा। यह क्रियाएं प्रतिदिन करने पर कुछ ही दिनों में आप मानसिक तनाव से मुक्ति प्राप्त कर लेंगे और फिर अच्छे से कार्य कर सकेंगे।
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यहां है आधा शिव आधा पार्वती रूप शिवलिंग

www.goswamirishta.com धार्मिक दृष्टि से पूरा संसार ही शिव का रुप है। इसलिए शिव के अलग-अलग अद्भुत स्वरुपों के मंदिर और देवालय हर जगह पाए जाते हैं। ऐसा ही एक मंदिर स्थित है - हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित काठगढ़ महादेव। इस मंदिर का शिवलिंग ऐसे स्वरुप के लिए प्रसिद्ध है, जो संभवत: किसी ओर शिव मंदिर में नहीं दिखाई देता। इसलिए काठगढ़ महादेव संसार में एकमात्र शिवलिंग माने जाते हैं, जो आधा शंकर और आधा पार्वती का रुप लिए हुए है। यानि एक शिवलिंग में दो भाग हैं। इसमें भगवान शंकर के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप के साक्षात दर्शन होते हैं। शिव रुप का भाग लगभग ७ फुट और पार्वती रुप का शिवलिंग का हिस्सा थोड़ा छोटा होकर करीब ६ फुट का है। इस शिवलिंग की गोलाई लगभग ५ फिट है। शिव और शक्ति का दोनों के सामूहिक रुप के शिवलिंग दर्शन से जीवन से पारिवारिक और मानसिक दु:खों का अंत हो जाता है। शिवपुराण की कथा अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच बड़े और श्रेष्ठ होने की बात पर विवाद हुआ, तब बहुत तेज प्रकाश के साथ एक ज्योर्तिलिंग प्रगट हुआ। अचंभित विष्णु और ब्रह्मदेव उस ज्योर्तिलिंग का आरंभ और अंत नहीं खोज पाए। किंतु ब्रह्मदेव ने अहं के कारण यह झूठा दावा किया कि उनको अंत और आरंभ पता है। तब शिव ने प्रगट होकर ब्रह्म देव की निंदा की और दोनों देवों को समान बताया। माना जाता है कि वही ज्योर्तिमय शिवलिंग ही काठगढ़ का शिवलिंग है। चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रगट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका मिलन माना जाता है। काठगढ़ में सावन माह और महाशिवरात्रि के दिन विशेष शिव पूजा और धार्मिक आयोजन होते हैं। इसलिए इस समय काठगढ़ की यात्रा सबसे अच्छा मानी जाती है। काठगढ़ शिवलिंग दर्शन के लिए पहुंचने का मुख्य मार्ग पंजाब का पठानकोट और हिमाचल प्रदेश के इंदौरा तहसील से है। जहां से काठगढ़ की दूरी लगभग ६ से ७ किलोमीटर है।
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कहां होता है शिवलिंग में शिव मुख ?

www.goswamirishta.com शिवलिंग पूजा मन से कलह को मिटाकर जीवन में हर सुख और खुशियाँ देने वाली मानी गई है। हर देव पूजा के समान शिवलिंग पूजा में भी श्रद्धा और आस्था महत्व रखती है। किंतु इसके साथ शास्त्रोंक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक है शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है। - जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती। - शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे। क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरुपा देवी उमा का स्थान है। - पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देती। - इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणामुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है। शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठक के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड़् लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
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आरोग्य देता है शिव-सूर्य पूजन

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श्रावण कृष्ण सप्तमी तिथि सूर्य को समर्पित है अत: सप्तमी को सूर्य के रूप में भगवान शंकर का पूजन विधि-विधान से करने पर तेज की प्राप्ति होती है। इस दिन प्रात:काल सूर्य को जल चढ़ाने से आरोग्य तो मिलता ही है साथ ही इसके निरंतर करने से आंखों एवं सिरदर्द का निदान भी होता है। इस दिन तांबे से निर्मित वस्तुओं का दान करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। 

इस दिन शीतला सप्तमी का व्रत भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाएं यह व्रत अखंड सौभाग्य की इच्छा से करती है। इस दिन शीतलामाता की पूजा शीतल सामग्री से की जाती है। इस दिन घरों में चुल्हा भी नहीं जलाया जाता।

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विवाह में सात फेरे ही क्यों?

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इंसानी जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब दो इंसान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं। हर परिस्थिति में एक - दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है। संकल्प या वचन सदैव देव स्थानों या देवताओं की उपस्थिति में लेने का प्रावधान होता है। इसीलिये विवाह के साथ फेरे और वचन अग्रि के सामने लिये जाते हैं। फेरे सात ही क्यों लिये जाते हैं इसका कारण सात अंक की महत्ता के कारण होता है। शास्त्रों में सात की बजाय चार फेरों का वर्णन भी मिलता है। तथा चार फेरों में से तीन में दुल्हन तथा एक में दुल्हा आगे रहता है। किन्तु फिर भी आजकल विवाह में सात फेरों का ही अधिक प्रचलन है। हमारी संस्कृति में, हमारे जीवन में, हमारे जगत में इस अंक विशेष का कितना महत्व है आइये जाने.....



- सूर्य प्रकाश में रंगों की संख्या भी सात।

- संगीत में स्वरों की संख्या की संख्या भी सात: सा, रे, गा, मा, प , ध, नि।

- पृथ्वी के समान ही लोकों की संख्या भी सात: भू, भु:, स्व: मह:, जन, तप और सत्य। 

- सात ही तरह के पाताल: अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल। 

- द्वीपों तथा समुद्रों की संख्या भी सात ही है।

- प्रमुख पदार्थ भी सात ही हैं: गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि जो कि शुद्ध माने जाते हैं।

- प्रमुख क्रियाएं भी सात ही हैं: शौच, मुखशुद्धी, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन तथा निद्रा।

पूज्यनीय जनों की संख्या भी सात ही है: ईश्वर, गुरु, माता, पिता, सूर्य, अग्रि तथा अतिथि।

- इंसानी बुराइयों की संख्या भी सात: ईष्र्या, का्रोध, मोह, द्वेष, लोभ, घृणा तथा कुविचार।

- वेदों के अनुसार सात तरह के स्नान: मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्रि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, करुण स्नान, और मानसिक स्नान।



7- अंक की इस रहस्यात्मक महत्ता के कारण ही प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वानों या नीति-निर्माताओं ने विवाह में सात फेरों तथा सात वचनों को शामिल किया है। अपने परिजनों, संबधियों और मित्रों की उपस्थिति में वर-वधु देवतुल्य अग्नि की सात परिक्रमा करते हुए सात वचनों को निभाने का प्रण करते हैं यानि कि संकल्प करते हैं। मन ही मन ईश्वर से कामना करते हैं कि हमारा प्रेम सात समुद्रों जितना गहरा हो। हर दिन उसमें संगीत के सातों स्वरों का माधुर्य हो। जीवन में सातों रंगों का प्रकाश फै ले। दोनों एक होकर इतने सद्कर्म करें कि हमारीख्याती सातों लोकों में सदैव बनी रहे

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वैवाहिक जीवन खुशनुमा बनाएं योग से

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अधिकांश विवाहित युगलों के मध्य छोटे-छोटे झगड़े तो सामान्य सी बात है परंतु कई बार यही छोटे-छोटे झगड़े बढ़ जाते हैं और दोनों का जीवन परेशानियों से घिर जाता है।

सामान्यत: इन झगड़ों की वजह आपसी तालमेल की कमी ही होती है। तालमेल की कमी दोनों की व्यस्तता की परिणाम है। पति ऑफिस और बाहर के कार्यों में इतना उलझा रहता है कि घर आते-आते अत्यधिक मानसिक तनाव महसूस करने लगता है। पत्नी घर के कार्यों में उलझी रहती है। यदि पति-पत्नी दोनों जॉब करते हैं तो सामान्यत: उनके बीच झगड़े अधिक होते हैं।

इन झगड़ों से कैसे बचें...

वैसे तो इन झगड़ों से बचने के कई उपाय हैं और सभी उन पर अमल भी करते हैं। इन सभी उपायों के अतिरिक्त एक और रास्ता है योग। योगासन का महत्व सभी अच्छे जानते ही हैं।

- प्रतिदिन योग करने से दिनभर मन शांत रहता है।

- कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है। 

- दिनभर शरीर में ऊर्जा बनी रहती है।

- स्वास्थ्य भी उत्तम रहता है।

- मन शांत रहेगा तो आप अपने जीवन साथी के साथ अच्छा सामंजस्य बना सकेंगे।

- क्रोध ही कई झगड़ों की वजह होता है। योग क्रोध को नियंत्रित करता है।
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जवानी में सफेद बाल और रूसी, नाखुन रगड़ो

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आज अधिकांश युवाओं को सफेद बाल की समस्या परेशान कर रही है। असमय सफेद बाल से बचने के लिए युवा कई तरह के जतन करते हैं। कई दवाइयां, शैम्पू आदि का प्रयोग करते हैं। काफी पैसा लगाने के बाद भी बाल सफेद होने से नहीं रोक पाते। बालों को सफेद होने से रोकने के लिए एक बहुत सरल क्रिया है हाथों के नाखुन रगडऩा।

नाखुन रगडऩे से बाल काले क्यों रहते हैं...

नाखुन रगडऩे से बाल काले रहते हैं क्योंकि हमारे हाथों के नाखुन के नीचे जो ग्रंथियां और नसें हैं, उनका संबंध बालों से है। लगातार नाखुन रगडऩे से इन ग्रंथियां एक्टिव रहती है और बालों को सफेद होने से रोकती है।

- यह क्रिया काफी फायदेमंद हैं और इससे बहुत जल्द बाल सफेद होने पर रोक लग जाती है।

- इस क्रिया को आप कभी भी कहीं भी कर सकते हैं।

- इस क्रिया के लिए समय आदि का कोई बंधन नहीं है।

- आपको जहां समय मिले इस क्रिया को कर सकते हैं।

- इस क्रिया से बालों से जुड़ी सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं।

- बालों से रूसी दूर हो जाती है।

कैसे रगड़े नाखुन...

नाखुन रगडऩे के लिए अपने दोनों को समान रूप से आमने-सामने रखकर अंगुलियों को अंदर की मोड़ें। अब दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर रगडऩा शुरू करें। यह क्रिया कभी भी की जा सकती है। इस क्रिया को कम से कम पांच मिनिट तक अवश्य करें। इसका नियमित अभ्यास आपके बालों को असमय सफेद होने से रोकेगा।

सावधानी...

इस क्रिया को आराम से करें। ज्यादा तेजी से नाखुन ना रगड़ें। नाखुन पर अत्यधिक दबाव भी ना बनाएं। ध्यान रहे नाखुनों से अंगुलियों की त्वचा को कोई नुकसान ना पहुंचे।
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दुकान में वास्तु

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दुकान आपके आय का मुख्य स्त्रोत होती है अत: इसका वास्तु सम्मत होना अतिआवश्यक है। इसके लिए निम्न बातों का ध्यान रखें-

1- दुकान में सदैव पूजा स्थल ईशान कोण में ही बनवाएं।

2- अलमारी या फर्नीचर दुकान के दक्षिण-पश्चिम भाग में और स्वामी को उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिए। ऐसा संभव न हो तो दक्षिण-पश्चिम या पूर्वाभिमुख होकर भी बैठ सकते हैं। 

3- अग्नि संबंधी उपकरण जैसे- विद्युत का मीटर, जनरेटर, इन्वर्टर आदि आग्नेय कोण में ही स्थापित करवाएं।

4- दुकान में पीने के पानी की व्यवस्था उत्तर-पूर्व या उत्तर-पश्चिम में करनी चाहिए।

5- उत्तर क्षेत्र कुबेर का स्थान माना जाता है जो कि धन वृद्धि के लिए शुभ है। यदि कोई व्यापारिक वार्ता, परामर्श, लेन-देन या कोई बड़ा सौदा करें तो मुख उत्तर की ओर रखें। इससे व्यापार में काफी लाभ होता है। 

6- व्यापारियों को कैश बॉक्स और महत्वपूर्ण कागज चैक-बुक आदि दाहिनी ओर रखना चाहिए। 

इन उपायों से धन लाभ तो होता ही है साथ ही समाज में मान-प्रतिष्ठा भी बढ़ती है।
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क्यों पीया था शिव ने कालकूट विष?

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देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकला विष भगवान शंकर ने अपने कण्ठ में धारण किया था। विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीला पड़ गया और वे नीलकण्ठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।


विद्वानों का मत है कि समुद्र मंथन एक प्रतीकात्मक घटना है। समुद्र मंथन का अर्थ है अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं उन्हें मथकर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। हम जब अपने मन से विचारों को निकालेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार निकलेंगे।


यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है। शिव ने उसे अपने कण्ठ में धारण किया। उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पान हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। हमें बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिए।


शिव द्वारा विष पान हमें यह सीख भी देता है कि यदि कोइ बुराई पैदा हो रही हो तो उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने देना चाहिए।
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गालव के मृत पिता को जीवित कर दिया शिव ने

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महर्षि गालव महामुनि विश्वामित्र के प्रिय शिष्य थे। जब वे सभी विद्याओं में पारंगत हो गए तब गुरु की आज्ञा से अपने पिता के दर्शन हेतु अपने घर को चले। जब वे अपने घर पहुंचे तो उनकी माता ने उन्हें उनके पिता की मृत्यु की सूचना दी। वे अत्यन्त दुखी हुए और गुरु का ध्यान कर पिता के दर्शन का उपाय ढूढ़ऩे लगे।


अचानक उन्हें शिव का ध्यान आया। वे अपनी माता की अनुमति लेकर योगसाधना द्वारा शिवजी की स्तुति करने लगे।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उनसे वर मांगने को कहा। उन्होंने अपने पिता के दर्शनों का वर मांगा। शिवजी ने उन्हें वर दिया और आज्ञा दी कि वे तुरन्त घर वापस जाएं और अपने पिता के दर्शन करें।


शिवजी ने उनकी पृतभक्ति देखकर उन्हें व उनके माता-पिता को अमरता का वरदान दिया।जब गालव मुनि घर पहुंचे तो उन्हें उनके पिता यज्ञशाला के द्वार से आते दिखे। उन्हें देखकर गालव मुनि बहुत खुश हुए और पिता के चरणों में गिर पड़े।


इस प्रकार गालव मुनि ने शिवजी की भक्ति से अपने पिता के फिर दर्शन किए।
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गायत्री मंत्र से करें शिव की आराधना

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श्रावण मास के आगमन के साथ ही मन में धर्म व अध्यात्म का प्रकाश फैल जाता है। श्रावण मास में सत्संग सुनने का विशेष लाभ मिलता है। यह मास शिव की आराधना के लिए अति उत्तम माना गया है। पुराणों में वर्णित है कि इस मास में सच्चे मन से शिव की आराधना से शिव प्रसन्न होते हैं। इस मास की हर तिथि का भी अपना विशेष महत्व है। विशेष तिथि को शिव का विशेष पूजन- अर्चन करने से सभी सुखों का लाभ मिलता है।

श्रावण कृष्ण दशमी तिथि मां गायत्री को समर्पित है। इस दिन शिव का गायत्री मंत्र द्वारा पूजन करने से अकाल मृत्यु का भय सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन सफेद वस्त्र दान करने से शिव व गायत्री प्रसन्न होते हैं।
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भैरव पर लगा ब्रह्महत्या का दोष

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ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तभी वहां ब्रह्महत्या उत्पन्न हुई और भैरव को त्रास देने लगी। तब भगवान ने ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए भैरव को व्रत करने का आदेश दिया व कहा- जब तक यह कन्या(ब्रह्महत्या) वाराणसी पहुंचे, तब भयंकर रूप धारण करके तुम इसके आगे ही आगे चले जाना। वाराणसी में ही तुम्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी। सर्वत्र विचरण करते हुए जब भगवान भैरव ने विमुक्त नगरी वाराणासी पुरी में प्रवेश किया, उसी समय ब्रह्महत्या पाताल में चली गई और भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई।

शिव के साथ करें भैरव की भक्ति 

भैरव ने ब्रह्मा का पांचवा सिर काटा था। जहां वह सिर गिरा वह स्थान काशी में कपाल मोचन तीर्थ के नाम से विख्यात है। जो प्राणी इस तीर्थ का स्मरण करता है, उसके इस जन्म एवं पर जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहां आकर सविधि स्नानपूर्वक पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके मानव ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। कपाल मोचन तीर्थ के समीप ही भक्तों के सुखदायक भगवान भैरव स्थित हैं। सज्जनों के प्रिय भैरव का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष की कृष्णाष्टमी को हुआ था। उसी दिन को उपवासपूर्वक जो प्राणी कालभैरव के समीप जागरण करता है, वह संपूर्ण महापापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यदि कोई व्यक्ति भगवान शंकर का भक्त होते हुए भी कालभैरव का भक्त नहीं है, तो उसे बड़े-बड़े दु:ख भोगने पड़ते हैं। यह बात काशी में विशेष रूप से चरितार्थ होती है। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है। 
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रेशमी बालों वाले होते हैं सभ्य प्रेमी

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किसी की भी सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं यदि उसके बाल सुंदर हो। लड़कियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं उनके लंबे, काले और घने बाल। अच्छे नयन-नक्ष वाली लड़की के बाल भी सुंदर हो तो फिर सोने पे सुहागा ही है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति के बालों से भी आप उसके स्वभाव का पता लगा सकते हैं।

- यदि किसी व्यक्ति के बाल मुलायम, काले घने, रेशम के जैसे हो तो वह व्यक्ति दिलदार होता है। वह जीवन को पूरी मस्ती के साथ जीता है। ऐसे लोगों को धन की कमी नहीं होती। ऐसे लोग बहुत अच्छे प्रेमी होते हैं।

- पतले बाल वाला व्यक्ति साफ मन का और भावुक होता है।

- रूखे और सख्त बाल वाला व्यक्ति बहादुर होता है परंतु वह तंगदिल और अति कामुक भी होता है।

- जिस व्यक्ति के बाल सुर्ख रंग के होंगे उसके साथ हमेशा धन की समस्या रहती है और वह परेशान रहता है।

- सुनहरे बाल वाले व्यक्ति मध्यम स्तर के होते हैं। वे सामान्य व्यतीत करते हैं।
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क्या हैं वेद, पुराण और उपनिषद?

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युवाओं के लिए धार्मिक ग्रंथ यानी वेद, पुराण, उपनिषद आदि एक अबूझ पहेली जैसे हैं। ये ग्रंथ क्यों हैं और किस लिए बनाए गए हैं, यह अधिकतर युवाओं की समझ से बाहर है। इन ग्रंथों की पारंपरिक शैली और कठिन भाषा के कारण इन्हें समझना और ज्यादा मुश्किल हो गया है। पुराणों में अधिकांश कहानियां प्रतीकात्मक हैं। अभी तक कई लोगों को यह भी पता नहीं है कि इन किताबों में है क्या? वेद, पुराण और उपनिषदों में आखिर ऐसा क्या है जो पढ़ने लायक है और इन किताबों को पढ़कर क्या सीखा, समझा जा सकता है? इनमें पढ़ने लायक क्या है? 



आइए हम आपको इन ग्रंथों से परिचित कराते हैं:- 

वेद - वेद चार हैं, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इन्हें दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तकें माना गया है। नासा ने भी इसकी प्रामाणिकता स्वीकार की है। ये चारों वेद एक ही वेद के चार भाग हैं, जिन्हें वेद व्यास ने संपादित किया है। ऋग्वेद में सृष्टि की परिस्थितियों, देवताओं आदि की स्थितियों के बारे में विवरण है। सामवेद ऋग्वेद का ही गेय रूप है, इसके सारे श्लोक गेय यानी संगीतमय या गीतमय हैं। यजुर्वेद - यजुर्वेद में यज्ञ संबंधी श्लोक हैं, यज्ञों की विधियां और उससे देवताओं को प्रसन्न करने संबंधी विधियां हैं। अथर्ववेद - इस वेद में परा शक्तियों यानी पारलौकिक शक्तियों के श्लोक हैं। 

उपनिषद - उपनिषद को यह नाम इसलिए मिला है क्योंकि ये वेदों के ही हिस्से हैं। वेदों से ही प्रेरित इन उपनिषदों की रचना वेदव्यास के ही चार शिष्यों ने की है। मूलत: ़108 उपनिषद माने जाते हैं। उपनिषद का अंग्रेजी में अर्थ है कॉलोनी। जैसे शहर के ही किसी एक हिस्से को कॉलोनी कहते हैं, वैसे ही उपनिषदों को भी वेदों का ही हिस्सा माना जाता है। वेदों के ही श्लोकों को कथानक के रूप में उपनिषदों में लिया जाता है। 

पुराण - पुराण पिछले युगों सतयुग, त्रेता और द्वापर युग की कथाओं का विवरण हैं। इनकी भी रचना वेद व्यास और उनके समकालीन ऋषियों द्वारा की गई है। ये मूलत: पौराणिक पात्रों की कथाओं के ग्रंथ हैं। पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। कालांतर में कई ग्रंथ बढ़ गए हैं।

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कर ऐसी इनायत गोविन्द

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जय श्रीकृष्ण

कर ऐसी इनायत गोविन्द तेरा शुक्र मनाना आ जाये,
हम इन्सां हैं हमें इन्सानों की तरह प्यार निभाना आ जाये।
तेरे कदम हमारी चौखट हैं, हम गिरते रहे तेरे कदमों में,
पर ऐसी शक्ति दे हमें गिरतों को उठाना आ जाये।
मुझे ये न मिला मुझे वो न मिला ये दिल ऐसे ही रोता है,
तेरा प्यार ही मेरी दौलत हो ये दिल को समझाना आ जाये।
ये तन मन धन तेरा मुझे फिर क्या चिंता,
हम तेरे आशिक हैं प्यारे हमें प्यार निभाना आ जाये।
वो मस्त तुझी में रहते हैं जो तेरे आशिक होते हैं,
हम तेरे आशिक बन जायें और सर को झुकाना आ जाये।
बोलो के सुन्दर नक्शे पर हम रंग प्यार का भर पायें,
तेरी हम पर कृपा हो हमें फूल चढाना आ जाये।
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पागल का बदला

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पागलखाने में एक बड़ा अजीब पागल भर्ती किया गया। जहां दूसरे पागल रोते-चिल्लाते और बक-बक किया करते थे, वहां वह बड़े जोर से हंसा करता था।
एक दिन डॉक्टर ने पागल से पूछा - तुम क्या बता सकते हो, तुम हमेशा क्यों हंसा करते हो?
पागल ने जवाब दिया - मुझमें यह सब जुड़वां भाई के कारण है।
डॉक्टर ने उत्सुकता से पूछा - क्या मतलब? जरा साफ-साफ बताओ।
पागल - हम दोनों भाइयों की शक्ल एक जैसी थी। कोई भी ठीक से पहचान नहीं सकता था। कक्षा में शरारतें वह करता था, पर पीठ-पूजा मेरी होती थी। दंगा-फसाद वह करता था, पर जेल की हवा मुझे खानी पड़ती थी। प्रेमिका मेरी थी, पर शादी उसकी हो गई।
हमदर्दी जताते हुए डॉक्टर ने कहा - तब तो सचमुच तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है।
पागल - हां डॉक्टर साहब, ऐसी ही बात है। पर अंत में मैंने भी उससे खूब कस कर बदला लिया, दरअसल मर तो मैं गया, पर दफना दिया गया वह। पागल जोर से हंसता हुआ दूसरे रूम में चला गया।
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The tale a sense

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Everything in life and to early-early, everything is increasingly wish to find, and we find that it takes less than twenty-four hours of the day, the perception that these narrative, "and two cup of tea glass barni" we miss.

A Professor of philosophy in the classroom and he told the students that they are going to be taken an important text of life. ...

He brought along a glass at the table of badia barni (jar) and table tennis balls are far too many and then put the remaining space of a single ball in Chino ... He asked the students-barni full? हाँ ... Voice. ... Then fill in the little Professor Sir kankar's h start gradually to all it really quite barni kankar moved where there was a vacancy, he asked Professor again end, Sir, what is full, students now barni once then Yes ... Professor Sir, now called sand from the sand that haule haule-barni, he started to put sand in the jar as possible on his sat, now student nadani laughed. ... Then he asked Professor Sir, why now, barni full? हाँ .. Now there is full.. All-in-one voice said ... Sir, two cups of tea from under the table by removing it risked the tea jar, tea also soak in a sand stone located between place. ... Professor Sir started to explain in a serious voice – the people you consider your life glass barni. ... Table tennis balls are the most important part that is God, family, children, friends, health and hobbies, mean your job, car, large small kankar houses etc, and small sand means more useless things, pique, jhagdea.. Now if you sand off the glass would have been the first barni table tennis balls and no place for kankaron remain, or not given over kankar, balls, sand around may of course. ... Well the same thing applies to life ... If you live in the valleys and small things would delete it your energy back so you have more time for the main things will not ... What is important for the pleasure of mind that you have to decide. Play with your kids, pour water in the garden, get out, walk home with his wife the morning of check-out the fenko, medical stuff up karvao ... Table tennis balls is the same important first, fikra..... First decide that what is essential ... Everything else is the sand ... Students were carefully listening to large Suddenly a asked, Sir but you don't tell "two cups of tea"? Professor muskuraye, said ... I was thinking that it's not a question, ...

The answer is that, how perfect and happy life to us, but we have the ultimate father divine to be always the time I Simran
Photo: एक बोध कथा

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ... प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो .... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं , छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है .. अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ..... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है .. छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...

इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन हमारे पास उस परम पिता परमात्मा को सिमरन करने के लिए हमेशा समय होना चाहिए I
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एक बोध कथा

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जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ... प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो .... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं , छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है .. अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ..... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है .. छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...

इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन हमारे पास उस परम पिता परमात्मा को सिमरन करने के लिए हमेशा समय होना चाहिए I
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रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...