यह पवित्र संगम गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन स्थल है। भारत का यह सबसे ज्यादा पवित्र जल तीर्थ माना जाता है। वेद पुराण महाकाव्य और अन्य प्राचीन ग्रंथों में इस पवित्र तीर्थ की महिमा का उल्लेख है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि सितासित तरंगों के संगम पर स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस संगम पर यदि प्राणान्त हो जाए तो जीव को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता।
महाकवि कालिदास ने कहा है कि इस पवित्र संगम में स्नान करने से ज्ञान प्राप्ति के बिना भी मुक्ति मिल जाती है। रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों में त्रिवेणी संगम की महिमा का बखान किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने त्रिवेणी संगम क्षेत्र को तीर्थराज प्रयाग का राजसी भव्य सिंहासन कहा है-
संगम सिंहासन सुठि सोहा। छत्र अक्षयवट मुनि मन मोहा।
चंवर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुःख दारिद भंगा॥
त्रिवेणी के निर्गुण स्वरूप की व्याख्या करते हुए कवि ने कहा है-
देहेन्द्रिय प्राण मनो मनीषा
चित्ता ह यज्ञान विभिन्न रूपा
तत्साक्षिणी या स्फुरित स्व भासा
साक्षात् त्रिवेणी मम सिद्धदास्तु
देह, इंद्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अज्ञान- इन सबसे जिनका भिन्न रूप है, लेकिन जो इन सबकी साक्षी रूपा त्रिवेणी हैं, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित हैं, वह मुझे सिद्धि प्रदान करें।
जाग्रत्प्रदं स्वप्नपदं सुषुप्तं
विद्योतयन्ती विकृति तदीयाम्।
या निर्विकारोपनिषत्प्रसिद्धा
साक्षात् त्रिवेणी मम सिद्धदास्तु
जागृति स्वप्न सुषुप्ति और इनके विचारों को भी जो प्रकाशित करती है, जो उपनिषदों में निर्विकार के नाम से प्रसिद्ध है, वह साक्षात त्रिवेणी मेरे लिए सिद्धि देने वाली हो।
त्रिवेणी के निर्विकार और सगुण दोनों ही रूपों की प्रशंसा ऋषि-मुनियों और कवियों ने की है। इन मनीषियों ने उन्हें तीर्थराज प्रयाग की प्रिया कहा है-
उत्फुल्लारुण पद्मनेत्र युगला मुद्दण्ड दैत्यापहाम्।
उद्योतोज्ज्वल तीर्थराज रमणी उल्लास तेजोवतीम्॥
उत्तकर्षाभयदान पेशलकरा मुच्छास शक्तिप्रदाम्।
उर्वस्यार्चित पादुकाम् पर कलां देवीं त्रिवेणीं भजे॥
खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जो उद्दण्ड दैत्यों का नाश करने वाली हैं, प्रभा से विलसित हैं, तीर्थराज प्रयाग की प्रिया हैं, उल्लास और तेज से युक्त हैं, उत्कर्ष और अभयदान देती हैं, जीवन शक्ति देती हैं, जिनकी खड़ाऊ की पूजा उर्वशी करती हैं, जो उत्कृष्ट कलाओं का रूप हैं, ऐसी त्रिवेणी देवी की मैं वंदना करता हूं।
त्रिवेणी में गंगा-यमुना के साथ गुप्त सरस्वती का संगम माना गया है। इस जलधारा की आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महिमा से आकर्षित होकर हजारों साल से ऋषि-मुनि, राजा और सम्राट संगम क्षेत्र में आते हैं। अनेक दार्शनिकों, धर्म प्रचारकों ने इस संगम में स्नान करके अपने मत, संप्रदाय और सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया।
तीर्थराज प्रयाग का यह संगम सिंहासन एक तरह से ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और धार्मिक सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार का मंच बन गया है। संगम क्षेत्र से ही अनेक दार्शनिकों ने अपने समाज कल्याणकारी सिद्धांतों का प्रचार किया। इन दार्शनिक संतों में जगद्गुरु शंकराचार्य, गुरु रामानंद, निम्बाकाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, संत रविदास को आज भी बड़ी श्रद्धा से याद किया जाता है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि सितासित तरंगों के संगम पर स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस संगम पर यदि प्राणान्त हो जाए तो जीव को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता।
महाकवि कालिदास ने कहा है कि इस पवित्र संगम में स्नान करने से ज्ञान प्राप्ति के बिना भी मुक्ति मिल जाती है। रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों में त्रिवेणी संगम की महिमा का बखान किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने त्रिवेणी संगम क्षेत्र को तीर्थराज प्रयाग का राजसी भव्य सिंहासन कहा है-
संगम सिंहासन सुठि सोहा। छत्र अक्षयवट मुनि मन मोहा।
चंवर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुःख दारिद भंगा॥
त्रिवेणी के निर्गुण स्वरूप की व्याख्या करते हुए कवि ने कहा है-
देहेन्द्रिय प्राण मनो मनीषा
चित्ता ह यज्ञान विभिन्न रूपा
तत्साक्षिणी या स्फुरित स्व भासा
साक्षात् त्रिवेणी मम सिद्धदास्तु
देह, इंद्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अज्ञान- इन सबसे जिनका भिन्न रूप है, लेकिन जो इन सबकी साक्षी रूपा त्रिवेणी हैं, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित हैं, वह मुझे सिद्धि प्रदान करें।
जाग्रत्प्रदं स्वप्नपदं सुषुप्तं
विद्योतयन्ती विकृति तदीयाम्।
या निर्विकारोपनिषत्प्रसिद्धा
साक्षात् त्रिवेणी मम सिद्धदास्तु
जागृति स्वप्न सुषुप्ति और इनके विचारों को भी जो प्रकाशित करती है, जो उपनिषदों में निर्विकार के नाम से प्रसिद्ध है, वह साक्षात त्रिवेणी मेरे लिए सिद्धि देने वाली हो।
त्रिवेणी के निर्विकार और सगुण दोनों ही रूपों की प्रशंसा ऋषि-मुनियों और कवियों ने की है। इन मनीषियों ने उन्हें तीर्थराज प्रयाग की प्रिया कहा है-
उत्फुल्लारुण पद्मनेत्र युगला मुद्दण्ड दैत्यापहाम्।
उद्योतोज्ज्वल तीर्थराज रमणी उल्लास तेजोवतीम्॥
उत्तकर्षाभयदान पेशलकरा मुच्छास शक्तिप्रदाम्।
उर्वस्यार्चित पादुकाम् पर कलां देवीं त्रिवेणीं भजे॥
खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जो उद्दण्ड दैत्यों का नाश करने वाली हैं, प्रभा से विलसित हैं, तीर्थराज प्रयाग की प्रिया हैं, उल्लास और तेज से युक्त हैं, उत्कर्ष और अभयदान देती हैं, जीवन शक्ति देती हैं, जिनकी खड़ाऊ की पूजा उर्वशी करती हैं, जो उत्कृष्ट कलाओं का रूप हैं, ऐसी त्रिवेणी देवी की मैं वंदना करता हूं।
त्रिवेणी में गंगा-यमुना के साथ गुप्त सरस्वती का संगम माना गया है। इस जलधारा की आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महिमा से आकर्षित होकर हजारों साल से ऋषि-मुनि, राजा और सम्राट संगम क्षेत्र में आते हैं। अनेक दार्शनिकों, धर्म प्रचारकों ने इस संगम में स्नान करके अपने मत, संप्रदाय और सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया।
तीर्थराज प्रयाग का यह संगम सिंहासन एक तरह से ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और धार्मिक सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार का मंच बन गया है। संगम क्षेत्र से ही अनेक दार्शनिकों ने अपने समाज कल्याणकारी सिद्धांतों का प्रचार किया। इन दार्शनिक संतों में जगद्गुरु शंकराचार्य, गुरु रामानंद, निम्बाकाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, संत रविदास को आज भी बड़ी श्रद्धा से याद किया जाता है।
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